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गुरुवार, 7 जुलाई 2022

सॉनेट, ग्रामीण संस्कृति, नागर संस्कृति, दोहे, दिल, हाइकु गीत, गीत

सॉनेट
अँगुली
*
ठेंगा देखा-दिखा रहे हम
पा आजादी, मोल न जानें
लगा अँगूठा अँखियाँ थीं नम
पढ़-लिख बढ़ना मन में ठानें

दादागिरी अँगूठा करता
अंगुलियों को रही शिकायत
एक दबाए चार-चार को
आओ! हम मिल करें बगावत

लोकतंत्र मतदान दिवस पर
उठी तर्जनी नेता चुनने
पहन अँगूठी झट अनामिका
सपने लगी ब्याह के बुनने

मिली कनिष्ठा अरु अनामिका
राज्य हो गया साम-दाम का
७-७-२०२२
•••
विमर्श
ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति

यह बहुत समीचीन और सामाजिक विषय है भारत माता ग्रामवासिनी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था क्या आज हम यह कह सकते हैं क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए गांव की पहचान पनघट चौपाल खलिहान वनडे घुंघरू पायल कंगन बेंदा नथ चूड़ी कजरी आल्हा पूरी राई अब कहां सुनने मिलते हैं इनके बिना गांव-गांव नहीं रहे गांव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है और शहर क्या है जिनके बारे में अज्ञ लिखते हैं सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं शहर में बसना तुम्हें नहीं आया एक बात पूछूं उत्तर दोगे डसना कहां से सीखा जहर कहां से पाया तो शहर में जहां आदमी आदमी को डसना सीखता है जहां आदमी जहर पालना सीखता है तो वह गांव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था वह गांव जो अपनेपन से सराबोर था वह गांव जो रिश्ते नातों को जीना जानता था वह गांव जहां एक कमाता वह खा लेते थे वह भागकर चेहरा रहा है कौन से शहर में जहां 6 काम आए तो 1 को नहीं पाल सकते जहां सांस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है जहां रास्तों की मौत हो रही है जहां माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं जहां नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं जहां निर्मल ओं के लिए महिला आश्रम आश्रम रैन बसेरों की व्यवस्था की जाती है हम जीवन को कहां से कहां ले जा रहे हैं यह सोचने की बात है क्या हम इन चेहरों को वैसा बना पाएंगे जहां कोई राधा किसी का ना के साथ राजा पाए क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कष्ट का नाम लेने पर विश्वास न करना पड़े शहरों में कोई पार्वती कवि किशन कर पाएगी हम ना करें लेकिन सत्य को भी ना करें हम अपनों को ऐसा शहर कब बना सकते हैं अपने गांव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर चन्द्र के द्वारा लोक का गला घोट रहे हैं जिनके नाम पर उनके द्वारा जनमत को कुचल रही हैं हमारे तंत्र की कोई जगह नहीं है हमारा को केवल गुलाम समझता है आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है यह व्यक्ति है उसके द्वारा दी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा का भुगतान होता है लेकिन मानसिकता की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है गुलाम शायद पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अभय हमारे गांव स्वतंत्रता पूर्वक ने बेबस नहीं थे जितने अब हैं स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था जो अब नहीं है पहले वह महुआ तोड़ कर बैठ सकता था पेट पाल सकता था अपराधी नहीं था अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता वह वन विभाग की संपत्ति है पहले सरकारी जमीन पर आप पेड़ होए तो जमीन भले सरकार की हो पेड़ की फसल आपकी होती थी आप का मालिकाना हक होता था अब नहीं पहले किसान फसल उगाता था घर के पन्नों में भर लेता था विजय बना लेता था जब जितने पैसे की जरूरत है उतनी फसल निकालकर भेजता था और अपना काम चलाता था अब किसान बीज नहीं बना सकता यह अपराधी अपनी फसल नहीं सकता बंधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहां उसे फसल को गेहूं को खोलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती जहां रिश्वत देने पर घटिया गेहूं के दाम ज्यादा लग जाते हैं जहां रिश्वत न देने पर लगते हैं हम हम शहरों की ओर जा सके हमारा शहरीकरण कम हो गांधी ने कहा था कि हम कुटीर उद्योगों की बात करें उद्योगों की बात करें हमारे गांव आत्मनिर्भर आज उन्होंने हमें यही सबक दिया कि गांव के शहरों में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ साहूकारों उद्योग पतियों की बिल्डिंग खड़ी करते हैं उन्हें अरबपति बनाते हैं उद्योगपति हैं कि संकट आने पर अपनों को अपनों को 2 महीने 4 महीने भी नहीं सकते गांव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा उस गांव में रोजी-रोटी ना होने के कारण छोड़ कर गया था अब जब ढलान पर है उसे क्या काम मिलेगा लेकिन मुझे विश्वास है उसे पा लेगा क्योंकि गांव के मन में उदारता है शहर में पड़ता है शहर में कुटिलता है गांव में सरलता है लेकिन हमारे को भी राजनीति राजनीति सामाजिक जीवन सुखद हो पाएगा हमारे मन में बसे निर्मल हो।
७-७-२०२०
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
७-७-२०१९
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दोहा सलिला:
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
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साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
***
दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
*
दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
*
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति।
तब ही 'उस' से मिलन हो, दिल को हुई प्रतीति।।
***
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
गीत
रचना और रचयिता
संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नहीं रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
७-७-२०१०

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