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मंगलवार, 5 जुलाई 2022

मदनमहल,भाषा व्याकरण,अलंकार,चिकित्सा,गुरुवंदन,छंद,हाइकु

-: गोंड़ दुर्ग मदन महल : एक अध्ययन :-
संजीव वर्मा 'सलिल', अभियंता
मयंक वर्मा, वास्तुविद
* प्रस्तावना

मदन महल पहुँच पथ, निर्माण काल, निर्माणकर्ता आदि।

भारत के हृदयप्रदेश मध्य प्रदेश के मध्य में सनातन सलिला नर्मदा के समीप बसे पुरातन नगर संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर-नागपुर मार्ग पर से लगभग ४.५ किलोमीटर दूर, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के सामने, तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ तक्नोलोजी की और जा रहे पथ पर मदन महल दुर्ग के ध्वंसावशेष हैं। इसके पूर्व प्रकृति का चमत्कार 'कौआडोल चट्टान' (संतुलित शिला,बैलेंस्ड रॉक) के रूप में है। यहाँ ग्रेनाइट पत्थर की विशाल श्याम शिला पर दूसरी श्याम शिला सूक्ष्म आधार पर स्थित है। देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि एक कौआ भी आकर बैठे तो चट्टान पलट जाएगी पर १९९३ में आया भयानक भूकंप भी इसका बाल-बाँका न कर सका।

मदन महल दुर्ग सन १११६ ईसवी में गोंड़ नरेश मदन शाह द्वारा बनवाया गया।१ गोंड़ साम्राज्य की राजधानी गढ़ा जो स्वयं विशाल दुर्ग था, के निकट मदन महल दुर्ग निर्माण का कारण, राज-काज से श्रांत-क्लांत राजा के मनोरंजन हेतु सुरक्षित स्थान सुलभ करने के साथ-साथ आपदा की स्थिति में छिपने अथवा अन्य सुरक्षित किलों की ओर जा सकने की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराना रह होगा। गढ़ा का गोंड़ साम्राज्य प्राकृतिक संपत्ति से समृद्ध था।

* गोंड़

भारत भूमि का 'गोंडवाना लैंड्स' नामकरण दर्शाता है कि गोंड़ भारत के मूल निवासी हैं। गोंड़ प्राकृतिक संपदा से संपन्न, सुसंस्कृत, पराक्रमी, धर्मभीरु वनवासी प्रजाति हैं जिनसे अन्य आदिवासी प्रजातियों, कुलों, कुनबों, वंशों आदि का उद्भव हुआ। गोंड़ संस्कृति प्रकृति को 'माता' मानकर उसका संवर्धन कर पोषित होती थी। गोंड़ अपनी आवश्यकता से अधिक न जोड़ते थे, न प्रकृति को क्षति पहुँचाते थे। प्रकृति माँ, प्राकृतिक उपादान पेड़-पौधे, नदी-तालाब, पशु-पक्षी आदि कुल देव। अकारण हत्या नहीं, अत्यधिक संचय नहीं, वैवाहिक संबंध पारस्परिक सहमति व सामाजिक स्वीकृति के आधार पर, आहार प्राकृतिक, तैलीय पदार्थों का उपयोग न्यून, भून कर खाने को वरीयता, वनस्पतियों के औषधीय प्रयोग के जानकार। गोंड़ लोगों ने १३ वीं और १९ वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना में शासन किया था। गोंडवाना वर्तमान में मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और ओडिशा के पश्चिमी भाग के अंतर्गत आता है। भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत,सिवान, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम - में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड़ जैसे समूह गोंडों की जातीय भाषा गोंड़ी बोलते हैं जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है। आस्ट्रोलायड नस्ल की जनजातियों की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बँटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद' कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। विवाह के लिये लड़के द्वारा लड़की को भगाए जाने की प्रथा है। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा सम्पन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।

युवकों की मनोरंजन संस्था - गोटुल का गोंड़ों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के मारिया गोंड़ों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाच-गान करते हैं।

गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा समाप्तप्राय है। गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है, खेती के लिये परिवारों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके। धीरे-धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। गोंड़ों की कुछ उपजातियां रघुवल, डडवे और तुल्या गोंड आदि सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, अन्य खेत मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।

गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ १५ वीं तथा १७ वीं शताब्दी राजगौंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। अब यह मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं।

किला/दुर्ग :

राजपरिवार के निवास तथा सुरक्षा के लिए महल बनाए जाते थे। महल के समीप बड़ी संख्या में दास-दासी, सैनिक, सवारी हेतु प्रयुक्त पशु, दूध हेतु गाय-भैंस, मनोरंजन हेतु पशु-पक्षी तथा उनके लिए आवश्यक आहार, अस्त्र-शस्त्रादि के भंडारण, पाकशाला आदि की सुरक्षा था प्राकृतिक आपदा या शत्रु आक्रमण से बचाव के लिए किले, दुर्ग, गढ़ आदि का निर्माण किया जाता था।


* किला 'कोट' (अरबी किला) चौड़ी-मजबूत दीवालों से घिरा स्थान होता था। इसमें प्रजा भी रह सकती थी। 'गढ़' (पुर-ऋग्वेद) छोटे किले होते थे। 'दुर्ग' सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य, अजेय होता था। दुर्ग की तरह अजेय देवी 'दुर्गा' शक्ति के रूप में पूज्य हैं। दुर्ग कई प्रकार के होते थे जिनमें से प्रमुख हैं -


अ. धन्व दुर्ग - धन्व दुर्ग थल दुर्ग होते हैं जिनके चतुर्दिक खाली ढलवां जमीन, बंजर मैदान या मरुस्थली रेतीली भूमि होती थी जिसे पार कर किले की ओर आता शत्रु देखा जाकर उस पर वार किया जा सके।



आ. जल दुर्ग - इनका निर्माण समुद्र, झील या नदी में पाने के बीच टापू या द्वीप पर किया जाता है। इन पर आक्रमण करना बहुत कठिन होता है। लंका समुद्र के बीच होने के कारण ही दुर्ग की तरह सुरक्षित थी। ये किले समतल होते हैं। टापू के किनारे-किनारे प्राचीर, बुर्ज तथा दीप-स्तंभ व द्वार बनाकर शत्रु का प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाता है। मुरुद जंजीरा का दुर्ग जल दुर्ग है।

इ. गिरि दुर्ग - किसी पहाड़ के शिखर को समतल कर उस पर बनाए गए दुर्ग को गिरि दुर्ग कहा जाता है। ग्वालियर, चित्तौड़, रणथंभौर के दुर्ग श्रेष्ठ गिरि दुर्ग हैं। पहाड़ी पर होने के कारण इनमें प्रवेश के मार्ग सीमित होते हैं। तलहटी से किये गए शत्रु के वार नहीं पहुँच पाते जबकि किले से किए गए प्रहार घातक होते हैं।

ई. गिरि पार्श्व दुर्ग - इनका निर्माण पहाड़ के ढाल पर किया जाता है। जहाँ पहाड़ के दूसरी और से आक्रमण की संभावना न हो वहाँ इस तरह के दुर्ग बनाये जाते हैं।

उ. गुहा दुर्ग - गुहा दुर्ग का निर्माण ऐसी तलहटी में किया जाता है जिसके चारों ओर ऊँचे पर्वत शिखर हों जिन पर निगरानी चौकियाँ बनाई जा सकें।

ऊ. वन दुर्ग - इन दुर्गों का निर्माण सघन वन में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के मध्य किया जाता है ताकि दूर से उनका होना ज्ञात न हो। कंकवारी दुर्ग अलवरइसी तरह का दुर्ग है।

ऊ. नर दुर्ग - नर दुर्ग का निर्माण युद्ध में व्यूह की तरह किया जाता है। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु का वध करने के लिए बनाया गया चक्रव्यूह नर दुर्ग ही था।

* मदनमहल

मदनमहल का दुर्ग एक पहाड़ी के ऊपर होने के कारण सामान्यत: गिरि दुर्ग कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह पहाड़ी लगभग ५०० मीटर ऊँची है। इस पर चढ़ पाना दुष्कर नहीं है। मदनमहल के चतुर्दिक तालाब हैं। आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जब यह दूर बनाया गया तब ये तालाब बहुत गहरे और बड़े रहे होंगे। इस पहाड़ी के चारों ओर घना वन रहा होगा जिसमें हजारों गगनचुंबी वृक्ष रहे होंगे।

* मदन महल स्थल चयन:

किसी दुर्ग के निर्माण का महत्वपूर्ण पक्ष स्थल-चयन है। मदन महल के निर्माण का निर्णय लिए जाने पर इसके चारों ओर की भूमि की प्रकृति पर विचार करना होगा। मदन महल का दुर्ग वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरि दुर्ग का मिला-जुला रूप है।

१. प्राकृतिक सुरक्षा-निगरानी- इसके समीप ही गढ़ा का विशाल दुर्ग (जिसके स्थान पर गढ़ा और जबलपुर बसा है) होने के कारण उस ओर (उत्तर व पूर्व) से आक्रमण की संभावना नहीं थी। उस ओर से पहुँच मार्ग रखा जाना सर्वथा निरापद है। शेष दो ओर (दक्षिण पूर्व से दक्षिण ) गहरा पहाड़ी ढाल होने से वहाँ से आक्रमण एकाएक नहीं हो सकता था। किले के अंदर और बाहर व्यवस्थाएँ की गई थीं। दक्षिण पूर्व में संग्राम सागर का विशाल सरोवर है।

२. मजबूत जमीनी आधार- मदन महल के निर्माण के लिए जिए भूखंड का चयन किया गया था वह कड़ी कंकरीली मुरम, नरम चट्टान तथा कड़ी चट्टान का क्षेत्र है। कारण बारहों महीने यहाँ बेरोक-टोक आया-जाया जा सकता था। मजबूत आधार भूमि होने के कारण नींव को गहरा या बड़ा रखने की जरूरत नहीं थी। दीवारों की मोटाई भी सामान्य रखी गई थी। इस कारण किले का निर्माणअपेक्षाकृत अल्पव्ययी रहा होगा। किले की बाह्य प्राचीर के अंदर सैन्य बल के रहवास, पाकशाला, अस्तबल (अश्वशाला), जल स्रोत, शस्त्रागार, बारादरी, सेवकों के आवास आदि का नर्माण किया गया होगा जिनके ध्वंसावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस किले के अंदर राजा-रानी के प्रवास हेतु दो ग्रेनाइट-चट्टानों पर लघु महल बनाया गया था जिसे भ्रमवश निगरानी चौकी कहा जाता है।

यहाँ यह समझना होगा कि राजा-रानी का स्थाई निवास गढ़ा किले था। मदन महल का निर्माण राजा-रानी के अल्प प्रवास हेतु था। इसलिए यह अन्य महलों की तरल विशालकाय नहीं है। इस महल का एक अन्य उपयोग यह था कि यहाँ राजकोष को छिपाने की गुप्त व्यवस्था की गई थी कि कभी पराजित होने पर मुख्य गढ़ा दुर्ग हाथ से निकल जाए तो भी कोष सुरक्षित रहे। लोकोक्ति है - 'मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच। जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट।' ऐसे आपातकाल में राजा-रानी आदि की सुरक्षित निकासी हेतु मदन महल में सुरंग भी बनाई गयी थी जो कालान्तर में बंद कर दी गई है।

३. ऊँचाई - किले तथा राजनिवास का निर्माण इस तरह किया गया है कि किला समीपस्थ क्षेत्र से ऊँचा रहे। किले की प्राचीरों की ऊँचाई के बराबर ऊँची श्याम शिलाओं के ऊपर राजसी दंपत्ति के लिए एक कक्ष बनाया गया था जो आज तक बचा है। इस तक पहुँचने के लिए जीना (सीढ़ियाँ) बहुत सुविधाजनक नहीं हैं ताकि कोई वेग के साथ एकाएक राजसी दंपत्ति के विश्राम कक्ष में प्रवेश न कर सके। सीढ़ियाँ ऊँची तथा घुमावदार हैं।

४. निर्माण सामग्री की सुलभता - यह स्थल चयन निर्माण सामग्री की सुलभता की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। यहाँ मिट्टी, मुरम, पत्थर, लकड़ी, बेल फल, श्रमिक तथा कारीगर आदि पर्याप्त मात्रा में तथा सस्ती दरों में सुलभ रहे होंगे।

५. पहुँच एवं निकासी मार्ग -मदन महल किले का सर्वज्ञात निकासी मार्ग पूर्व दिशा में है जबकि महल का निकासी द्वार उत्तर दिशा में है। वास्तु की दृष्टि से ऐसा किया जाना सर्वथा उचित और शास्त्र सम्मत था।

६. अदृश्यता - इस किले और महल का निर्माण सघन-ऊँचे वृक्षों के मध्य इस तरह किया गया था कि द्वार के सम्मुख आ जाने तक यह निश्चित न हो सके कि किला इतने सन्निकट है और दूर से इसे देखकर इस पर प्रहार न जा सके।

७. पेय जल की उपलब्धता - दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक, सेवक, पशु और जान सामान्य भी रहते और आते-जाते थे। इसलिए शुद्ध पेय जल पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक था। इस किले के चारों ओर अनेक सरोवर, बावली, झरने आदि थे जिनमें से कुछ अब भी द्रष्टव्य हैं।

८. परिवेश - महल तथा किले के चतुर्दिक रमणीय सघन वन, सुन्दर जलाशय, मनोरम दृश्य, विविध प्रकार के पशु-पक्षी आदि थे। यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त की नयनाभिराम छवियाँ देखी जा सकती थीं।

९. छिपने-छिपाने के स्थल (गुफाएँ) - इस दुर्ग की एक असामान्य विशेषता इसके अंदर और बाहर अनेक गुफाएँ, दरारें आदि थीं जिनमें छिपकर किले के अंदर आने और बिना किसी कोज्ञात हुए बाहर जाने की व्यवस्था का लाभ राजा और उनकी फ़ौज उठा सकती थी किन्तु आक्रामक नहीं क्योंकि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती थी।

* मदन महल निर्माण की आवश्यकताएँ :

सन्निकट विशाल और मजबूत गढ़ा का किला होने के बाद भी इस किले को बनाने का कारण राज्य विस्तार, सुरक्षा, प्रतिष्ठा, बसाहट, भण्डारण, रोजगार, शिल्प कौशल का विकास, सैन्य प्रशिक्षण था।इस किले ने हर उद्देश्य को पूर्ण भी किया।

* मदन महल का रूपांकन :

किले का आकार और विस्तार - महत्वपूर्ण व्यक्तियों, सैन्य दल, शस्त्रागार, पाकशाला, पशु, सैन्य अभ्यास, मनरंजन आदि के संपादन हेतु किले में पर्याप्त स्थान सुलभ था। राज महल अपेक्षाकृत छोटा रखा गया कि उससे अन्य गतिविधियाँ प्रभावित न हो सके।

विभिन्न भवनों की स्थिति - किले के अंदर महल, पशुशाला, अश्वशाला, शस्त्रागार, सैनिकों व सेवकों आदि के आवास आदि कई इमारतें थीं जिनके अवशेष ही अब शेष हैं। इन के आकार अपेक्षाकृत छोटे होने का कारण यह है कि समीप ही गढ़ा किले में वृहदाकारी ीअमरतें रही होंगीं जिन्हें मुगलों, अंग्रेजों और जन सामान्य ने बेरहमी से नष्ट कर दिया।

जल स्रोत - किले के अंदर कूप और बाहर अनेक सरोवर, निर्झर और बावड़ियाँ शुद्ध पेय जल सुलभ कराती थीं।

राज निवास - राज निवास (महल) बहुत छोटा होने का कारण यह है कि यह सर्वकालिक राज निवास नहीं था। यह अल्पकालिक प्रवास हेतु था। गोंडों की जीवन शैली अत्यंत सादगीपूर्ण था जबकि राजपूतों, मराठों और मुगलों की जीवन शैली अत्यंत शानशौकतपूर्ण और विलसितामय होती थी। इनसे तुलना करने पर गोंड़ों के महल या किले प्रभावित नहीं करते किंतु वास्तव में गोंड राजाओं ने जन-धन का अपव्यय निजी विलासिता के लिए न कर, आदर्श प्रस्तुत किया था। राज निवास में प्रवेश के लिए बनाई गयीं सीढ़ियाँ ऊँची, हैं ताकि उन पर सहजता से बिना आहट न चढ़ा जा सके। दरवाजे कम ऊँचाई बनाए गए हैं ताकि प्रवेश करते समय सिर झुकाकर घुसना पड़े। अवांछित आगंतुक या शत्रु के प्रवेश करने पर वह वार सके इसके पहले ही उसकी गर्दन काट दी जा सके। गोंड़ भूमिपुत्र थे, जमीन पर सोते थे। मुख्य कक्ष में जमीन पर लेते, बैठें या खड़े हों दीवार में छेद इस तरह बनाये गए हैं कि उनसे सुदूर बाह्य क्षेत्र पर नज़र रखी जा सके। यही नहीं जो छेद हैं वे दीवार की मोटाई में लंबवत नहीं, लहभग ३० अंश तिरछे हैं। इस कारण कक्ष के अंदर से निशाना साधकर बाहर शर-प्रहार किया जा सकता है किन्तु बाहर से अंदर निशाना नहीं साधा जा सकता। राजा की सुरक्षा हेतु अन्य भी अनेक व्यवस्थाएँ की गई थीं।

सैन्य दल - मदन महल में गोंडों की सेना का मुख्यालय नहीं था इसलिए यहाँ उतनी ही सेना रखी जाती थी जो राजा या अन्य महत्वपूर्ण अतिथियों तथा किले की सुरक्षा के लिए अनिवार्य थी। इस सैन्य दल का सतत जागरूक रहना और चुस्त-दुरुस्त रहना आवश्यक था। इसलिए सैनिकों के लिए बनाए गए आवास सुविधा पूर्ण तो थे, विलासिता पूर्ण नहीं।

पाक शाला - गोंडों का भोजन बहुत सादा था। वे माँसाहारी थे किन्तु पशु-पक्षियों को शौक के लिए नहीं मारते थे, केवल भोजन हेतु शिकार करते थे। ज्वार-बाजरा, कोड़ों-कुटकी, मक्का, अरहर, मूँग आदि उनके प्रिय खाद्यान्न थे। वे लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग करते थे। पाक शाला सामान्य कक्ष के तरह थी।

पशुशाला - पशुशाला में गाय और घोड़े मुख्य पशु थे जो इस किले में रखे जाते थे। बड़ी गजशाला और अश्वशाला वर्तमान जीवन बीमा संभागीय कार्यालय की भूमि पर था जिसे ध्वस्त कर इस कार्यालय की इमारत बनाई गयी।

* मदन महल का शिल्प और वास्तु :

ईकाइयों का निर्धारण, परिमाप तथा आकार, दिशावेध, लंबाई-चौड़ाई-ऊँचाई, द्वार-वातायन, कक्ष, प्रकाश तथा वायु संचरण, दीवालें और प्राचीरें, स्तंभ, छत, मेहराब, गुंबद, आले, मुँडेर, प्रतीक चिन्ह आदि में स्थानीयता सामग्री शिल्प और कला की प्रमुखता स्पष्ट है। यह भ्रम है कि गोंड़ी इमारतों पर मुग़ल स्थापत्य की छाप है। वास्तव में गोंड़ी सभ्यता और संस्कृति प्राचीनतम है। गोंड़ों के मकान झोपड़ीनुमा छोटे-छोटे, पत्थर (बोल्डर) और कच्ची ईंटों को को गारे से जोड़कर निर्मित होते थे। दीवारों में मलगे, कैंची, , दरवाजे खूँटियाँ आदि लकड़ी की होती थीं। छत बनाने के लिए बाँस, जूट, तेंदूपत्ते आदि का पयोग किया जाता था। चूने के गारे और अपक्की ईटों या आयताकार पत्थरों का उपयोग समृद्ध जनों के आवास हेतु किया जाता था। इसीलिये इस निर्माण सामग्री से बनी इमारत को भले ही वह छोटी हो 'महल' कहा जाना सर्वथा उचित है। सादगी गोंड़ जीवनशैली का अंग और वैशिष्ट्य थे, विपन्नता नहीं।

* मदन महल भावी विकास :

मदन महल क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विक्सित किये जाने की आवश्यकता और संभावना दोनों हैं। यहाँ के पर्यावरण और परिवेश को देखते हुए यहाँ लाखों की संख्या में बाँस, साल, सागौन, तेन्दु, पलाश, सीताफल, बीजा, महुआ, सेमल आदि के वृक्ष लगाए जाने चाहिए। यहाँ की पहाड़ियों में सर्पगन्धा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा, वच, आर्टीमीशिया,लेमनग्रास, अकरकरा, सहजन जैसी आयुर्वेदिक औषधिजनक पौधों की रोपणी बनाई जानी चाहिए। इससे इन पहाड़ियों का क्षय होना बंद होगा। यहाँ के बैसाल्ट पत्थरों को तोड़ने पर तुरंत रोक लगाई जाए। यह शिलायें जबलपुर क्षेत्र को भूकंपरोधी बनाने में सहायक हैं। वन और औषधीय पौधों के विकास से भूमिगत जलस्तर ऊपर उठेगा। इन वनों में गिरनेवाला वर्षाजल कुओं। बवालियों, झरनों, नदियों में पहुँचेगा तो औषधीय गुणों से युक्त होगा जिसका पान करने से जन सामान्य को लाभ होगा। यह बड़ी मात्रा में सर्प रहते हैं जी गर्मी और बरसात में निकलते हैं। सर्प संग्रहालय बनाकर सर्प विष का उत्पादन किया जा सकता है। यहाँ तेंदुओं तथा मृगों का भी आवास रहा है। अनेक तरह के पक्षी यहाँ अभी भी रहते हैं। वन विकसित होने पर पक्षी अभयारण्य भी विक्सित किया जा सकता है। इन इमारतों को मूल रूप में पुनर्निर्मित कर उनमें गोंड़ सभ्यता और संस्कृति का संग्रहालय भी बनाया जा सकता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में जो भी विकास योजनाएं हैं वे इस परिवेश और विरासत के अनुकूल नहीं हैं। इस क्षेत्र में नई इमारतें बनाना प्रतिबंधित कर, नगरीकरण से बचाकर प्रकृति के अनुकूल विकास कार्य किए जाने चाहिए।

५-७-२०२२



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भाषा व्याकरण ३
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मध-ुरस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
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*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
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स्तंभ - *चिकित्सा*
*अपना स्वास्थ्य खुद सुधारें!*
*बिना एक्सरसाइज के वजन कम करें*
अगर आपका वजन तेजी से बढ़ रहा है तो बिना एक्सरसाइज के भी इसे घटाया जा सकता है। हम अक्सर देखते हैं कि वजन बढ़ने पर लोग जिम की तरफ भागते हैं और खाना छोड़ देते हैं। यहां तक कि ज्यादातर लोगों को यह भी लगता है कि बिना एक्सरसाइज के वजन घटाया ही नहीं जा सकता, जबकि यह सिर्फ मिथक है। वास्तव में वजन घटाने के लिए सिर्फ एक्सरसाइज की ही नहीं बल्कि सही डाइट के साथ ही अन्य छोटी छोटी बातों को भी ध्यान में रखना पड़ता है। जैसे कि कुछ लोग एक ही बार में ढेर सारा भोजन करने के आदी होते हैं, वहीं कुछ लोग बाजार की चीजें खाने के शौकीन होते हैं, कुछ लोग पानी कम पीते हैं तो कुछ लोग भोजन को चबाने के बजाय सीधे निगल जाते हैं जो वजन बढ़ने का कारण बन जाता है।
इसलिए इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर बिना एक्सरसाइज के भी वजन कम किया जा सकता है।
यदि आपको भी एक्सरसाइज के लिए टाइम नहीं मिल पा रहा है, लेकिन आप वजन घटाना चाहते हैं तो इस आर्टिकल में हम आपको बताने जा रहे हैं बिना एक्सरसाइज के वजन घटाने के आसान तरीके।
*बिना एक्सरसाइज के वजन कम करने के तरीके –*
यदि आप अपना वजन बढ़ने से परेशान हैं, और व्यायाम के बिना वजन कम करने के उपाय तलास रहे हैं तो फिक्र मत किजिए। क्योंकि इस लेख में हम आपको बिना एक्सरसाइज के वजन कम करने के लिए कुछ ऐसे आसान तरीके बता रहे हैं, जिन्हें अपनाने पर आपको मोटापा कम करने के लिए व्यायाम करने की भी जरूरत नहीं होगी, और वजन अपने आप ही धीरे-धीरे कम हो जाएगा।
तो फिर देर किस बात की, जानिए और आज ही अपनाइए, यह बिना एक्सरसाइज के वजन घटाने के यह नायाब तरीके –
*बिना एक्सरसाइज वजन घटाने के लिए लिक्विड कैलोरी से दूर रहें*
बिना व्यायाम वजन कम करने के लिए सबसे पहले अधिक कैलोरी युक्त लिक्विड या पेय पदार्थों से परहेज करना बेहद जरुरी है।
थकान मिटाने या रिफ्रेश होने के लिए ज्यादातर लोग चाय, कॉफी या रेड वाइन पीते हैं। इस तरह के पेय पदार्थों में कैलोरी की मात्रा ज्यादा होती है जिससे वजन तेजी से बढ़ता है।
इस तरह की लिक्विड डाइट छोड़ने से बिना एक्सरसाइज वजन कम हो सकता है। साथ ही डिब्बाबंद बीयर, सोडा, जूस सहित अन्य ड्रिंक में शुगर अधिक मात्रा में होता है जो बॉडी फैट को बढ़ाता है। बेहतर है कि बिना एक्सरसाइज वजन घटाने के लिए इनका सेवन बंद कर दें।
*बिना व्यायाम के वजन कम करने का उपाय चबा चबाकर भोजन करना*
भोजन को अच्छी तरह चबाकर खाने से भी बिना कसरत के वजन घटाया जा सकता है। वास्तव में हम जो कुछ भी खाते हैं उसे प्रोसेस करने में ब्रेन को टाइम लगता है। आराम से चबा चबाकर खाना खाने से पेट जल्दी भरता है और ज्यादा खाना खाने की जरुरत नहीं पड़ती है।
खाना खाने की गलत आदतों से वजन बढ़ता है। साथ ही खाना खाने की स्पीड से भी वजन प्रभावित होता है। इसलिए बिना एक्सरसाइज के वेट घटाने के लिए हर बार भोजन को अच्छी तरह चबाकर खाएं।
*पर्याप्त पानी पीने से बिना एक्सरसाइज वेट लॉस होता है*
खाना खाने से पहले पानी पीने से भूख कम लगती है और ज्यादा भोजन करने की जरुरत नहीं पड़ती है। इस तरीके से बिना एक्सरसाइज के वजन तेजी से कम होता है।
यदि आपने बिना व्यायाम के वजन घटाने की प्लानिंग कर रखी है तो भूख को रोकने के लिए भोजन से कम से कम 30 मिनट पहले आधा लीटर पानी पीएं। इससे ना सिर्फ कैलोरी बर्न होगी बल्कि लगभग 12 हफ्तों में बिना एक्सरसाइज के लगभग 44 प्रतिशत तक वजन कम हो जाएगा।
*बिना कसरत के वजन घटाने का आसान उपाय फाइबर युक्त आहार*
आहार में फाइबर शामिल करके भी बिना एक्सरसाइज वेट लॉस किया जा सकता है। फाइबर लेने से पेट जल्दी भर जाता है और लंबे समय तक भूख नहीं लगती है। विस्कोस फाइबर केवल प्लांट फूड जैसे बीन्स, ओट्स, शतावरी, संतरा और अलसी से प्राप्त होता है।
विस्कोस फाइबर जब पानी के संपर्क में आता है तो जेल का रुप धारण कर लेता है और यह जेल पोषक तत्वों के अवशोषण के समय को बढ़ा देता है जिसके कारण भूख महसूस नहीं होती है। इसके अलावा ग्लूकोमानन सप्लीमेंट में भी उच्च मात्रा में विस्कोस फाइबर पाया जाता है जो बिना एक्सरसाइज के वेट लॉस में मदद करता है।
*बिना एक्सरसाइज मोटापा भगाने के लिए भोजन में प्रोटीन शामिल करें*
बिना एक्सरसाइज के वजन घटाने के लिए भूख को कंट्रोल करना बहुत जरुरी होता है। प्रोटीन भूख पर पावरफुल इफेक्ट डालता है और इसका सेवन करने से पेट जल्दी भर जाता है।
वास्तव में प्रोटीन कई हार्मोन्स को प्रभावित करता है जो भूख में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रोटीन युक्त आहार जैसे, ग्रीक दही, दालें, बादाम और क्विनोआ का सेवन करने से कैलोरी नहीं बढ़ती है और बिना कसरत के वजन कम हो जाता है।
*बिना एक्सरसाइज वेट लॉस के लिए अच्छी नींद है जरूरी*
एक अच्छी लाइफस्टाइल और पर्याप्त नींद भी बिना एक्सरसाइज के वेट लॉस में सहायक होती है। भरपूर नींद न लेने से सिर्फ सेहत पर ही खराब असर नहीं पड़ता बल्कि वजन भी उतनी ही तेजी से बढ़ता है। वास्तव में खराब नींद के कारण हार्मोन गड़बड़ हो जाते हैं और मेटाबोलिज्म भी बेहतर तरीके से काम करना बंद कर देता है। जिसका पूरा प्रभाव बॉडी पर पड़ता है और वजन बढ़ जाता है। रात में 6 से 8 घंटे की नींद लेने से वजन कम करने के लिए एक्सरसाइज की जरुरत नहीं पड़ती है।
*बिना व्यायाम वजन घटाने के लिए बैलेंस डाइट अपनाएं*
खाने पीने के सही तरीकों के साथ ही बैलेंस डाइट लेने से भी बिना एक्सरसाइज के वजन कम होता है। बिना व्यायाम के मोटापा घटाने के लिए कम कैलोरी और फैट वाली सब्जियों और फलों को संतुलित आहार में शामिल किया जाता है।
इन सभी चीजों से बॉडी को जरूरी मिनरल, विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट मिल जाता है। इसके साथ ही , डेयरी प्रोडक्ट और पोर्क भी बैलेंस डाइट के अंतर्गत ही आते हैं। ब्राउन राइस और बाजरा को भी भोजन में शामिल करने से बिना एक्सरसाइज के शरीर की चर्बी घट सकती है।
*सिजेरियन डिलीवरी के बाद बढ़े पेट को इन तरीकों से कम करें*
किसी भी महिला के लिए मां बनना एक खूबसूरत एहसास है, लेकिन इस एहसास के साथ नई मांओं को कुछ परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है। सी-सेक्शन यानी सिजेरियन डिलीवरी के बाद पेट बढ़ना या पेट लटकना एक आम समस्या है और यह समस्या नई मांओं के लिए तनाव का कारण भी बन जाती है। डिलीवरी के बाद तुरंत वजन तो कम नहीं हो सकता है, लेकिन अगर प्रभावी और सुरक्षित उपाय अपनाए जाएं तो पेट पहले जैसा हो सकता है।
सी-सेक्शन यानी सिजेरियन का सहारा तब लिया जाता है जब प्रसव के पारंपरिक तरीके में कठिनाई हो रही हो या नार्मल डिलीवरी से मां या शिशु के स्वास्थ्य को खतरा हो।
सिजेरियन के बाद कभी भी एकदम से पेट की चर्बी कम करने की कोशिश न करें। इस प्रक्रिया में धैर्य रखना और शरीर को डिलीवरी के बाद ठीक होने का समय देना जरूरी हैं।
*शिशु को स्तनपान कराएं
अगर महिला स्तनपान कराती है तो उन मांओं की तुलना में तेजी से वजन घटाती हैं जो नहीं कराती हैं। जब स्तनपान कराते हैं तो शरीर को यह करने के लिए कैलोरी बर्न करनी होती हैं। इसमें काफी ऊर्जा लगती है और शरीर को दूध पैदा करने में मेहनत करनी होती है। स्तनपान कराने वाली मांए औसतन रोजाना 250 से 500 कैलोरी बर्न करती हैं। यह आंकड़े मां के वजन और वह कितना स्तनपान कराती हैं उस पर निर्भर करता है।
*प्रोसेस्ड फूड से दूरियां बनाएं, हेल्दी फूड खाएं
हेल्दी खाने का यह मतलब नहीं कि डाइट पर जाएं। इसका सरल अर्थ है कि अपनी डाइट से जंक फूड हटाना और इसे पौष्टिक आहार से बदलना। चिप्स, बेक्ड फूड्स, फ्राइड फूड्स सभी प्रोसेस्ड फूड्स जैसे का वजन घटाने पर तेजी से प्रभाव पड़ता है। प्रोसेस्ड फूड्स में कैलोरी ज्यादा होती हैं। इसकी बजाए फल, सब्जियां, फलियां, साबुत अनाज, नट्स आदि होल फूड्स खाने चाहिए। डाइट कार्बोहाइड्रेट से भरपूर हो, कम फैट वाली हो और इसमें विटामिन, मिनरल्स भरपूर हों।
*वजन कम करने के लिए पैदल चलें
पैदल चलना एक अच्छा व्यायाम है जो कि सी-सेक्शन के बाद किया जा सकता है। यह हल्का और सरल व्यायाम है जो कि हार्ट रेड और ब्लड सर्कुलेशन का ध्यान रखता है। यह मांसपेशियों को गर्भावस्था के पहले की तरह लाने की कोशिश करता है।
*योगासन करें
हैवी वर्कआउट की बजाए सी-सेक्शन के बाद योग अपनाएं। वैसे यह बच्चा होने के 6 से 8 सप्ताह बाद ही शुरू करना चाहिए। डॉक्टर की सलाह पर योग शुरू कर सकते हैं। इससे मांसपेशियां मजबूत होंगी और ढीली मांसपेशियों को फिर से बनाने में मदद मिलेगी। प्राणायाम से भी फायदा होगा।
*एब्डोमिनल बेल्ट लगाएं
प्रसव के बाद शुरुआती महीनों में पेट की चर्बी कम करने में और इसे लटकने से बचाने में एब्डोमिनल बेल्ट बड़ी कारगर हो सकती हैं। यूं तो बेल्ट को हर समय लगा सकते हैं, लेकिन सोते समय, खाते समय और शौच जाते समय न लगाएं। प्रसव के दो महीने बाद टांके ठीक दिखने पर बेल्ट या कपड़ा बांध सकते हैं।
*मसाज से फायदा
डिलीवरी के बाद पेट अंदर करने के लिए मसाज करवाएं। लेकिन सिजेरियन के दो सप्ताह बाद शुरू करवाना चाहिए, उससे पहले नहीं। मसाज से मांसपेशियों को टोन करने में मदद मिलती है और पेट का साइज भी कम होता है।
*अच्छी नींद जरूरी
पेट को फिर शेप में लाने के लिए नींद की भी भूमिका होती है। नींद की कमी से शरीर में सूजन और कोर्टिसोल रिलीज होता है। कोर्टिसोल एक स्ट्रेस हार्मोन है जो कि पेट के बढ़ने से जुड़ा होता है।
*खूब पानी पिएं
पेट की चर्बी कम करने के लिए पर्याप्त पानी पीना जरूरी है। यह शरीर में तरल पदार्थ के संतुलन को बनाने के साथ कमर के आसपास बढ़ रहे फैट को भी बर्न करेगा।
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गुरुवंदन
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरुवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
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विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, अन्य नहीं पर्याय..
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गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भव का पाश..
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गुरु भास्कर अज्ञान तम, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
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गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
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गुरुता जिसमें वही गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
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गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान..
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गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
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माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
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कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
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शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
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गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
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ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
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गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
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गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
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गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
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गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
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मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
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शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
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गुरु अनुकम्पा नर्मदा, रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
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गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
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गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
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गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
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संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
५-७-२०२०
***
संजीव वर्मा 'सलिल' --एक अजीम शख्सियत
प्रोफेसर अनिल जैन, दमोह
*
यूँ तो होश संभालते ही मेरा मिज़ाज अदबी था । मैंने उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी ज़ुबान के कई रिसाले पढ़ डाले थे । गाहे बगाहे क़लम भी चला लिया करता था
इसी शौक से मुब्तिला होकर कुछेक अंग्रेजी ग़ज़लें लिख डाली । बहुत समय तक तो ना मैंने खुद ने ना ही किसी और ने इन गजलों कोई तरजीह नहीं दी क्योंकि पेशतर तो मेरे क़स्बाई नुमा शहर में अंग्रेजी के जानकार न के बराबर थे दूसरा मैं खुद काफी झिझक महसूस कर रहा था कि पता नहीं लोग इस बारे में क्या सोचेंगे ।
इत्तफाकन मुझे आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी के बारे में पता चला । यहाँ यह भी बताते चलूं कि सलिल जी की प्राध्यापक पत्नी डॉ साधना वर्मा उन दिनों मेरी कलीग हुआ करती थीं । उनसे पता चला कि सलिल का मिज़ाज भी शायराना है ।
सलिल जी से पहली मुलाकात के अनुभव को लफ़्ज़ों में बयान करना बहुत ही मुश्किल काम है । बस इतना ही कहूँगा वे पल जीवन के चंद हमेशा याद रखे जाने वाले पल हैं । उनका गंभीर चेहरा, उनका अंदाज़े बयां, ज़ुबानों पर उनकी धाक औऱ सबसे बड़ी बात उनका हौसला अफजाई का जो शऊर मैंने देखा उस पर केवल रश्क़ किया जा सकता है ।
उन्होंने मेरी गज़लों को पढ़ा, दाद दी, और भरोसा दिया कि वे उन्हे साया करवाएंगे । औऱ ऐसा उन्होंने किया भी । इस तरह मेरी ग़ज़लें जिनका उन्वान 'ऑफ एंड ऑन' है अपने अंजाम तक पहुँची । मेरा सफ़र पूरा हुआ लेकिन सलिल जी यहीं नहीं रुके । ये उनका मेरे लिए स्नेह ही था कि वे मेरी किताब हर एक अदबी जलसों में लेकर जाते औऱ कोशिश करते कि मैं और भी बुलंदियों को छू सकूँ ।
इसी सिलसिले में उन्होंने मेरी किताब केरल के हिंदी के जाने माने एक प्रोफेसर डॉ बाबू जोसेफ को भेंट की और गज़लों की तफसील डॉ जोसेफ को बयां की । मैंने लिखा कम था लेकिन सलिल जी ने जो तफसील बताई उससे डॉ जोसेफ बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मेरे दीवान का तर्जुमा हिंदी ज़ुबान में कर डाला जिसे हिंदी में 'यदा कदा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया । इस तरह मेरी टोपी में एक पंख और जुड़ गया ।
इसके बाद रोज़मर्रा की ज़रुरतों में मशरूफ होने के कारण सलिल जी से मुलाकातों का दौर काफ़ी कम हो गया फिर भी फोन पर अक्सर मैं सलाह मशविरा किया करता था । हर मसले पर उनका नज़रिया बहुत साफ था और यही साफगोई उनके हर मशविरे का मज़मून हुआ करती थी ।
वक़्त अपनी रफ्तार से चलता रहा । छुटपुट लेखन भी चलता रहा । और वक्त जैसे फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया । हुआ यूं कि छोटी छोटी तहरीरों के सफे दर सफे जमा होकर एक किताब की शक्ल अख्तियार करने लगे और साया होने को मचल उठे ।
फिर वही सलिल जी से मुलाकातों का दौर शुरू हुआ । जिस्मानी तौर पर तो उनमें कोई फर्क नज़र नहीं आया लेकिन वैचारिक स्तर वे पूरी तरह से लबरेज़ थे । सलिल जी ने फिर मुझे इनकरेज किया कि मेरी पोयम्स में काफ़ी कुछ है जिसे लोग पसंद करेंगें ।उन्होंने ने यह भी बताया कि आज के दौर में किस तरह के नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं । सलिल जी ने खुद ही मेरी अंग्रेजी पोयम्स जिसका टाइटल 'द सेकंड थॉट' है का प्रीफेस लिखा, कवर पेज डिजाइन करवाया और पब्लिश भी करवाई । यहां तक कि किताब का विमोचन भी उन्हीं ने करवाया ।
इस सब के लिए केवल शुक्रगुजार होना कहना मुनासिब नहीं होगा पर यह सच है कि यही सारी बातें किसी इंसान को उन बुलंदियों तक ले जाती हैं जिस बुलंदी पर आज इंजीनियर संजीव वर्मा'सलिल' कायम हैं । वे वास्तव में इसके हकदार हैं ।
[बी 47, वैशाली नगर, दमोह 9630631158 aniljaindamoh@gmail.com]
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छंद की आधार भूमि काव्य
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छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
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शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
५-७-२०१८
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हाइकु सलिला:
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रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
५-७-२०१८
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आइये, सोचें-विचारें
*
जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
५-७-२०१०
***

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