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शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

दोहा, छंद अनुगीत,सॉनेट

सॉनेट 
जलसा घर
घर में जलसा घर घुस बैठा
साया ही हो गया पराया
मन को मोहे तन की माया
मानव में दानव है पैठा

पल में ऐंठे, पल में अकड़े
पल में माशा, पल में तोला
स्वार्थ साधने हो मिठबोला 
जाने कितने करता लफड़े

जल सा घर रिस-रिसकर गीला
हर नाता हो रहा पनीला
कसकर पकड़ा फिर भी ढीला

सीली माचिस जैसे रिश्ते
हारे चकमक पत्थर घिसते 
जलते ही झट चटपट बुझते
१४-७-२०२१
ए२/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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सॉनेट 
मैं-तुम 
मैं-तुम, तू तू मैं मैं करते
जैसे हों संसद में नेता
मरुथल में छिप नौका खेता
इसकी टोपी उस सिर धरते

सहमत हुए असहमत होने
केर-बेर का संग सुहाए 
हर ढपली निज राग बजाए
मतभेदों की फसलें बोने

इससे लेकर उसको देना
आप चबाना चुप्प चबेना
जो बच जाए खुद धर लेना 

ठेंगा दिखा ठीक सब कहते
मुखपोथी पर नाते तहते
पानी पर पत्ते सम बहते
१४-७-२०२२, २१•४६
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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सॉनेट 
बहाना
बिना बताए सबने ठाना
अपनी ढपली अपना राग
सावन में गाएँगे फाग
बना बनाकर नित्य बहाना

भूले नाते बना निभाना
घर-घर पलते-डँसते नाग
अपने ही देते हैं दाग
आँख मूँदकर साध निशाना

कौआ खुद को मान सयाना
सेता अंडा जो बेगाना
सीख न पाए मीठा गाना

रहे रात-दिन नाहक भाग
भूले धरना सिर पर पाग
सो औरों से कहते जाग
१४-७-२०२२, २१•२५
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस 
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दोहा सलिला 
दिल  ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.

भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.

दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.

नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, खाक उगेगी दूब.

नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.

नहीं पेंशनर को मिले,सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.

गगरी कहीं उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.

मन में क्या है!; क्यों कहें?, आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें, पता नहीं श्रीमान.

झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार.
जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार.
***
कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
*
१५-७-२०१८
अनुगीत छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
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१५-७-२०१६
हास्य रचनाः
नियति
संजीव
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाये, एक अदद तब बीबी पाये
सोचे धौन्स जमाऊं इस पर, नचवाये वह आंसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाये गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
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१५-७-
सॉनेट 
गुरु
गुरु को नतशिर नमन करो रे!
गुरु की महिमा कही न जाए 
गुरु ही नैया पार लगाए
गुरु पग रज पा अमन वरो रे!

गुरु वचनामृत पान करो रे!
गुरु शब्दों में सत्य समाहित 
गुरु वाणी में अर्थ विराजित 
गुरु का महिमा-गान करो रे!

गुरु का मन में मान करो रे!
गुरु-दर्पण में निज छवि देखो
गुरु-परखे तो निज सच लेखो
गुर-वचनों का ध्यान धरो रे!

गुरु को सत्-शिव सुंदर मानो
गुरु का खुद को चाकर मानो
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
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सॉनेट 
गुरु
गुरु गुर सिखलाता है उत्तम
दिखलाता है राह हमेशा
हरता है अज्ञानजनित तम
दिलवाता है वाह हमेशा

लेता है गुरु कड़ी परीक्षा
ठोंक-पीटकर खोट निकाले
देता केवल तब ही दीक्षा
दीप-ज्योति अंतर में बाले

कहे दीप अपना खुद होओ
गिरकर रुको न, उठ फिर भागो
तम पी, उजियारा बो जाओ
खुद समर्थ हो भीख न माँगो

गुरु-वंदन कर शिष्य तर सके
अपनी मंजिल आप वर सके
१३-७-२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल 
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