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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

संस्मरण अमरेंद्र नारायण

संस्मरण के अंतर्गत अभियान के परामर्शदाता इंजी अमरेंद्र नारायणजी की फीजी यात्रा का अनमोल संस्मरण प्रस्तुत है जिसे उनहोंने विशेषकर अभियान के लिए शब्दबद्ध किया है। 

यात्रा संस्मरण : 
भारतवर्षियों के अध्यवसाय से विकसित फिजी 
इंजी. अमरेंद्र नारायण, परामर्शदाता, अभियान 
*
दक्षिणी प्रशांत महासागर के मनोरम नीले विस्तार के बीच न्यूजीलैंड से लगभग दो हजार किलोमीटर की दूरी पर
फीजी द्वीप का सौंदर्य बार-बार आने का मौननिमंत्रण देता है। भारतीयों के लिए तो फीजी की यात्रा 

सुदूर प्रशांत महासागर की गोद में बसे इस देश के निवासी भारतवंशियों के प्रति एक कृतज्ञता यात्रा है और उनके
स्वेद अश्रुओं से सिंचित उनकी कर्मठता को एक विनम्र प्रणाम है। 
दुःख की बात है कि भारतवंशियों के अनवरत संघर्ष के साक्षी इस देश की मिटटी में उनके खून-पसीने के साथ रक्त की बूँदें भी सनी हैं। फीजी की अपनी पहली यात्रा के बाद जब मैं के बाद जब मैं बैंगकौक वापस आया तो वहाँ के फोटो देख कर मेरी पत्नी ने कहा-'यह तो बिलकुल अपना बिहार लगता है!'
पत्नी का यह कथन आंशिक रूप से सत्य है क्योंकि वहां के भारतीय मूल के निवासियों ने अपनी परंपरा बनाये रखी है, पर फीजी में बिहार और उतर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों की लोक परंपरा के भी दर्शन होते हैं। नांडी का आकर्षक हिंदी मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला का एक आकर्षक उदाहरण है। फीजी दक्षिणी प्रशांत महासागर का एक समृद्ध द्वीप है ।लगभग १८.४ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वालेइस देश की जनसंख्या  ९ लाख है। इस उच्च-माध्यम आय वर्गवाले देश की प्रति व्यक्ति औसत आय लगभग ६००० डौलर है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत से लगभग ५०० श्रमिकों को लेकर लियोनिदास नामक जहाज कलकत्ते से चला था।पर, १४ मई १८७९ को जब लियोनिदास फीजी पहुँचा तब उसमें  ४६७ श्रमिक बचे थे।दूसरा श्रमिक जहाज १८८२ में फीजी आया। इसके बाद सन् १९१६ तक ८७ जहाजों से श्रमिक फीजीआये। उनके जी तोड़ परिश्रम की बदौलत ही फीजी में ईख की खेती विकसित हुई और चीनी बनाने का उद्योग पनपा।लगभग ६० ५५३ भारतीय श्रमिक फीजी आये थे। फिर कुछ डॉक्टर और अन्य प्रोफेशनल भी वहाँ आ गये।
भारतवर्षियों का संघर्ष लंबा तथा कठिन था और कई रूपों में आज भी है। उन कर्मजीवियों के वंशज निरंतर संघर्षरत हैं। राजनीतिक कारणों से अब फीजी में भारतवंवंशियों का प्रतिशत घटता जा रहा है। शिक्षित लोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अन्य देशों में जा रहे हैं। अभी फीजी में लगभग ३ लाख १३ हजार भारतीय मूल के लोग हैं। यह फीजी की जनसंख्या का लगभग ३३ % है।उनकी कठिनाइयों और उनके कठिन परिश्रम का वर्णन मैंने अपने उपन्यास संघर्ष में किया है, उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। फीजी जाने पर उन श्रमजीवियों की कर्मठता के प्रति मन श्रद्धा से भर उठता है। गन्ने के सघन खेतों के बीच बने छोटे मकान सहज आकर्षण उत्पन्न करते हैं।
भारतवंशियों की वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश लोग शहररों में रहते हैं। फीजी का अंतर्राष्ट्रीय का हवाई अड्डा नांडी में है। वहाँ से राजधानी सूवा की सड़क मार्ग से दूरी लगभग १९० किलोमीटर है।नांडी और सूवा के बीच विमान सेवा उपलब्ध है पर मैंने इन दो स्थानों के बीच अपनी अपनी अधिकांश यात्रायें कारद्वारा ही की हैं ताकि वहाँ के जन-जीवन से परिचित हो सकूँ। प्रे: टैक्सी में भारतीय मूल के टैक्सी चालक मिलते थे जिनसे भोजपुरी में बात
होती थी। उनकी भोजपुरी बिहार या पूर्व उत्तर प्रदेश की भोजपुरी से थोड़ी भिन्न है।
फीजी के द्वीप बहुत खूबसूरत हैं। प्रशांत महासागर के शांत महासागर की नीलिमा मानो दूर क्षितिज के पार अंबर की नीलिमा को मिलन संदेश देती है। क्रूज द्वारा लैगून और समुद्र तट का आनंद लेने बड़ी संख्या में पर्यटक फीजी आते हैं। वहाँ कईहिंदी मंदिर हैं। नांडी का शिव सुब्रमण्यन मंदिर आकर्षण का प्रमुख केंद्र है।फीजी में रहनेवाले अधिकांश भारतवंशी अपनी संंस्कृति और परंपरा का आदर करते हैं।
एक बार न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में मेरी पत्नी को बाजार में खरीददारी करते देखकर एक लड़की उनके पास आई। उसने बताया कि वह फीजी वासी है पर इनदिनों न्यूजीलैंड में रहती है। वह मेरी पत्नी को अपने घर ले गयी और उसने उन्हें अपनी शादी का कैसेट दिखाया। दखलाया। मेरी पत्नी  ने मुझेबताया कि उसकी  शादी 
के रीत-रिवाज बिहार में होनेवाली शादियों सेबिलकुल मिलते हैं। मैंने भी भी पूजा-पाठ, हवन आदि में भारतीय परंपरा का पालन ही देखा है।
इतने वर्ष बाद भी कठिन परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करते हुए भी वहाँ के लोग अपनी परंपरा का आदर पूर्वक निर्वाह करते हैं।
फीजी हिंदी के प्रचार में युवा और खेल विभाग के पूर्व मंत्री तथा सूवा स्थित यूनिवर्सिटी औफ साऊथ पैसेफिक के
हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ. विवेकानंद शर्मा  जी का महत्वपूण योगदान रहा है। उनके प्रयास से ही विश्व विद्यालय में हिंदी की पढ़ाईप्रारंभ हुई। रेडियो फीजी द्वारा हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। डाॅ. विवेकानंद शर्मा जी के प्रति वहाँ के छात्र-छात्राओं का आदर भाव देख कर मन प्रफुल्लित हो गया। एक बार बंधुवर डाॅ.शर्मा और मैं विश्वविद्यालय की कैंटीन में चाय पी रहे थे। जो भी छात्र-छात्रा वहाँ आते थे,वे शर्मा जी  के चरण स्पर्श करते थे। विवेकानंद भाई ने मुझे बताया कि जब वेक्लास में जाते हैं तब उनके विद्यार्थी 'प्रणाम गुरूजी' कहकर 
उनका अभिभवादन करते हैं। यह किसी गुरुकुल की बात नहीं, एक आधुनिक विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र-छात्रों के संस्कार की बात है। 
डाॅ.विवेकानंद शर्मा  जी 'संस्कृति' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित  करते थे। वे फीजी में विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन भी करना चाहतेथे। आज डाॅ. शर्मा हमारे बीच नहीं हैं पर उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए जो महत्वपूर्ण कार्य किये हैं उनके लिए फीजीवासी उनके ऋणी रहेंगे। इसका अनुभव मुझे भोपाल में २०१५ में 
विश्व हिंदी सम्मलेन में देखने को मिला। फीजी से एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल सम्मलेन में भाग लेने के लिए भोपाल आया था और उसके सभी सदस्य एक ही प्रकार की नीले रंग की वेशभूषा में थे। उनसे बात करने पर पता चला की फीजी में हिंदी के विकास का काम अभी भी अच्छी तरह चल रहा है।निरामिष भोजियों को सूवा या नांडी
में कोई असुविधा नहीं है। निरामष भारतीय भोजन आसानी से मिल जाता है, फिर गोविन्द रेस्त्रां जो है। 
फीजी में प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। जगह जगह आधुनिक सुख -सुविधा संपन्न रिसोर्ट बने हुए हैं वहाँ जाने वाले भारतीयोन की यात्रा उनके मन पर फीजी निवासी भारतवंशियों के  अध्यवसाय और संघर्ष की एक अमित छाप  छोड़ जाती है और पुनः आने का मौन निमंत्रण देकर ही विदा करती है!

- अमरेंद्र नारायण,जबलपुर २५ जुलाई २०२०


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