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बुधवार, 5 अगस्त 2020

पुरोवाक दुल्हन सी सजीली

पुरोवाक
दुल्हन सी सजीली - गीति रचनायेँ नवेली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सनातन सत्य 'परिवर्तन ही जीवन है' (चेंज इज लाइफ) का प्रत्यक्ष प्रमाण हिंदी कविता है। हिंदी कविता में पल-पल होते परिवर्तन उसकी जीवंतता, यथार्थता और सरसता के साक्षी हैं। यह परिवर्तन भाषा के स्तर पर शब्द चयन में देखे जा सकते हैं। आनुभूतिक स्तर पर विषय चयन, रसानुभूति और लयात्मक अभिव्यक्ति में सतत परिवर्तन उल्लेखनीय हैं। शैल्पिक स्तर पर  अलंकार, बिम्ब, प्रतीक और छांदस परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं। इन परिवर्तनों का असर कविताजनित प्रभाव पर होना ही है। आज की कविता में लिजलिजी भावनात्मकता पर खुरदुरी यथार्थपरकता को वरीयता प्राप्त है। अब कविता सरल-सहज बोधगम्यता के स्थान पर व्यंजनपरकता को अधिक स्थान दे रही है। संदेशवाहक उद्देश्यपरकता अब कविता का अनिवार्य तत्व नहीं है। 'नर हो न निराश करो मन को' जैसी सहज अभिव्यक्ति से दूर जातो कविता ने लोक मांगल्य से दूर होकर जन-मन में स्थान भी खो दिया है। अब कविता किताबी हो रही है जिसमें शैल्पिक कसावट तो है पर आनुभूतिक सघनता अपेक्षाकृत कम है। यथार्थपरकता ने रसात्मकता के साथ-साथ कविता की चारुता और लालित्य को भी घटाया है। 
इस साहित्यिक संक्रमण काल में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में' जैसा सरस नवगीत संग्रह देनेवाले हरिहर झा जी की नयी कृति 'दुल्हन सी सजीली' की पाण्डुलिपि मिलना लू से झुलसाते जेठ मास के बाद सावन की शीतल फुहार की तरह है। हरिहर झा जी भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर में वैज्ञानिक अधिकारी पद से कार्य कर चुके हैं। उनकी अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ आकाश कुसुम की सी कल्पना से दूर रहकर जमीनी सचाइयों से आँख मिलाती हों, यह स्वाभाविक है। विज्ञान और आध्यात्म का संगम 'जीवन में परिवर्तन' गीत में देखें -  
सूरज चंदा घूमे कैसे,
कैसे इनकी चलती गाड़ी
जाँची शरीर की नस नस पर
ना पाई प्रज्ञा की नाड़ी
जड़ तो जड़ है, समझा
कैसे जाना जाये चेतन आयें जीवन में परिवर्तन 
स्थूल और सूक्ष्म का द्वैत इन गीतों को सामान्य गीतकारों की अभिव्यक्ति से भिन्न बनाता है। मनुष्य के अंतर्मन और बाह्य व्यक्तित्व के विरोधाभास को कवि ने 'गाँधी हम सब, भीतर हिटलर' कहकर उजागर किया है। 'इच्छा सब कुछ पा कर नहीं अघाती' कहता कवि 'जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान' की विरासत को आगे बढ़ाता है। 
शीर्षक गीत 'दुल्हन सी सजीली' में गीत कर दर्शन और विज्ञान दोनों को आधा-अधूरा पाता है-   
जीवन मिला, जड़ देह में
इस चेतना संचार की,
बख्शीश आधी अधूरी;
दर्शन अधूरा, अधूरे से मार्ग में
विज्ञान की, कोशिश आधी अधूरी;
घोषणा लो उपनिषद की,
पूर्णमिदम वा..णी से सज
पूर्णतायें, चली दुल्हन सी सजीली।  
'अचंभे में पड़ा हूँ मैं' शीर्षक रचना हरिहर जी की स्वाभाविक और सहज अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी प्रस्तुत करती है-  
निशब्द हो गया
अचंभे में पड़ा हूँ मैं।
छरहरे वृक्ष पर
फुनगी
नई खिलती रहे
उजड़ रही इबारतों पर,
कलम लिखती रहे
मंत्र है भैया,
अचंभे में पड़ा हूँ मैं।   
वैज्ञानिक 'हरिहर' में 'हरि' और 'हर' दोनों का समावेश है। 'हर' उन्हें तथ्यपरक बनाते है तो 'हरि' 'रस अमृत का पान करते हैं। हरि और उनकी माया अभिन्न हैं। बृज के लाला और राधा की लीला से कौन दूर रह सकता है। हरिहरि जी की अनुभूति मन आप भी सहभागी हों -
राधे मोहन
एक रूप हैं, कवि-वचनामृत तिरछे
राधा-वेश में कृष्न आये,
कृष्न किधर हैं पूछे
कान्हा बन कर
राधा आई, ’राधे! राधे!’ रटती
'चोरनी पक्की' नामित गीत में भी आधुनिक वैज्ञानिक पारंपरिक विरासत के सागर में अवगाहन कर रहा है- 
मली बदन पर,
चाकी की धूल केसर
अंग चंदन की सुगंध से महक रहा
अणु भट्टी जले
ताप का ओज छीना
लिजलिजी देह से लावण्य दहक रहा
नखशिख चुरा लिये
मेघदूत-ग्रन्थ से
सोलह शृंगार में कितनी चतुराई।
सामाजिक विसंगतियों से हरिहर जी का कवि अपरिचित नहीं है। वह सृष्टि के आरंभ से पाखण्ड और छल की धारा प्रवाहित होते देखकर ऋषि-मुनियों से हितकर परिणाम की अपेक्षा करता है- 
सृष्टि बनी तब से पाखंडी,
धारा छल की बहे
मनमर्जी को रोक न पाये
कोई कुछ भी कहे
तारे पाप ऋषि-मुनि,
परिणाम कोई हितकर दे। 
'झूमता सावन' में कवि का भिन्न रूप सामने आता है। वह समर्थ को श्रृंगार में लीन और असमर्थ को बेहाल देखकर कहता है-  
झूमता सावन, हिलोरे ले रहा,
भीगता यौवन।
बदली चली सजधज अनोखी,
लुट गई
देह के शृंगार पर;
जग भले बेहाल, बिसात क्या,
बेहोशी के कगार पर;
हरिहर जी के गीतों में त्रेता-द्वापर कालीन पौराणिक मिथक प्रचुरता से प्रयोग हुए हैं। 'शोक में डूबा अशोक ' में कवि प्रश्न करता है- 
जड़-प्रकृति का फूल हूँ,
शोभा बना था केश में
जननि चेतन जगत की,
क्यों बंदिनी के वेश में? 
'संघर्ष से जिसको ना लगे डर' में ऐतिहासिक घ्यातनाओं का साक्षी होता गीतकार अंतत: प्रेण के ढाई अक्षरों की जयकार करता है- 
धर्म की ध्वजा उठाये,
पीटते थे ढोल और डंका बजाते
तलवार चमकी कलम पर,
शास्त्र अपना सत्य और शाश्वत बताते
टक्कर चली विवाद की तो मुस्कराते 
प्रेम के ढाई अच्छर। 
वर्तमान राजनैतिक लम्पटता पर शब्दाघात करने से कवि पीछे नहीं हटता। वह कथनी-ाकरनी के अंतर को इंगित करते हुए नेताओं द्वारा लोक को वादों से ठगते देख व्यंजना के स्वर में कहता है-  
हे राम! कहाँ आवश्यक है
कोई वचन निभाना।
ख्याली लड्डू दो वोटर को
काहे जंगल जंगल सड़ना
हर पिशाच से हो समझौता
काहे खुद लफड़े में पड़ना
हाथ मिला कर राजनीति में
मक्खन खूब उड़ाना।
हरिहर जी आतंकवाद के त्रासदी पर भी प्रहार करते हैं -
डाँवाडोल चित्त सँभले ना,
भयंकर उछल कूद
नागों के जत्थे आतंकी
फैंक गये बारूद
मन की गहराई में पनपे,
विकार हुये खिलाफ
यम, आसन ढीले होने की,
शिकायतें ना माफ
संयम मेरा, एक ना चली
'न्यूटन जी' शीर्षक नवगीत में हरिहर जी का वैज्ञानिक फिर आगे आता है और कामचोरी की मनोवृत्ति पर आगत करता है - 
न्यूटन जी
बैठे
फरमाते,
काम के बराबर प्रतिरोध।
नियम तीसरा सच ही है तो
परिश्रम भला क्यों करना
पिछड़े रह कर भी जी लेंगे
ऐयाशी कर के मरना
प्रगति में झंझट है ज्यादा
प्रतिक्रिया में सारा बोध।
जल प्लावन के दृश्य हवाई जहाज से और दूरदर्शन पर देखकर घड़ियाली आँसू बहाने की मानसिकता पर कवी का शब्दाघात मारक है- 
देख टी वी,
बाढ़ से, मदद में डूबोगे?
बचाने तुम,
स्क्रीन से यहाँ क्या कूदोगे?
मग्न हो तुम,
प्रलय सुख में कामायनी के
रचा लो ना,
श्रद्धा, इड़ा के नृत्य हौले।
देस जंगल, राज है
गिद्धों का, साँप का
देश से दूर रहते हुए भी देश को याद कर उस पर गर्व करनेवाला कवि हरिहर झा शब्दार्चन करता नहीं भूलता- 
माटी में
जिसकी महक रहा,
त्याग और बलिदान
नमन उस देश के आयुध को,
तुझ पर है अभिमान।
तेरे सीने में,
भुजबल में
दिखे कईं हिमालय
गंगा बही हृदय से,
संगम, जन सागर में तय
पार हुई
दुर्गम घाटी की ऊँचाई, ढलान। 
हिंदी नवगीत को एक नई देश देने की कोशिश करते हरिहरि जी 'दुल्हन सी सजीली की हर रचना में वैचारिक मौलिकता और विचारात्मक नवीनता दृष्टव्य है। इन नवगीतों को नवगीत के पारम्परिक ढाँचे और घिसे-पिटे छड़ी स्यापे से मुक्त देखना सुखकर है। नवगीत के नाम पर साम्यवादी गुटबाजी कर रहे मठाधीशों के लिए उन्हें स्वीकारना कठिन होना ही कवि की सफलता है। पहिये क्रांति के, राह उल्टी मनुज की, बन बैठा है क्यों मानव-बम, लहू अब खौलता, सुख की तलाशआदि गीतों में कवि की सहृदयता झलकती और छलकती है। 
नवगीत के प्रसाद की बंद खिड़कियों पर असहमति की थपकी देकर, मौलिकता की ताज़ी हवा से नवजीवन का संचार करते ये नवगीत अपनी राह खुद बना रहे हैं। सामान्य जन जीवन से जुड़े हर पहलू को रचना का विषय बनाया है हरिहर जी ने। 
अकल लगा दे मक्कारी में, पत्थर हैं पोगापंथी, लगे हैं तारनहार, डूब गई लुटिया, दुनिया हैरान, क्यों सभी नाराज़, पीड़ा चुभन की, लू में झुलस गये जैसी रचनाएँ कवि हरिहर जी की स्वतंत्र - सकारात्मक सोच की साक्षी हैं। हिंदी गीतों के उद्यान में नयी कलमें रूप कर उसे समृद्ध करनेवाले, लीक तोड़कर अपनी राह खुद बनानेवाले गीतकार के रूप में हरिहर जी का रचनाकर्म उल्लेखनीय है। मुझे भरोसा है पाठक इन गीतों की नवता को सराहेंगे और हरिहर जी की रचनाधर्मिता अगले संकलन में और भी नई और कई भावमुद्राओं के साथ हिंदी के सारस्वत भंडार को समृद्ध करेगी। उनके ऑस्ट्रेलिया प्रवास में ऑस्ट्रलिया के परिवेश और समाज से जुड़े नवगीत प्रकाश में आएं तो हिंदी पाठक विशेषकर वे जो ऑस्ट्रेलिया नहीं जा सके, का लाभ होगा। संकलन की लोकप्रियता के प्रति विश्वस्त मैं, हरिहर झा जी को मंगलकामनाएँ देता हूँ। 
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 

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