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गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

दोहा सलिला

 दोहा सलिला:
चर्चित होते क्यों सदा, अपराधी-अपराध?
शब्द साधकों को नहीं, पल भी मिले अबाध

*
नेता नायक संत के, सत्कर्मों को भूल
समाचार बनते सलिल', हैं कुकर्म दे तूल
*

बगिया में दोनों मिलें, कुछ काँटे कुछ फूल
मनुज फेंककर कमल को, खोजे सिर्फ बबूल
*
सूरज में भी ताप है, चंदा में भी दाग।
अमिय चंद्र के साथ शिव, रखते विषधर नाग
*
तम में साया भी नहीं, देता पल भर साथ।
फिर मायापति किस तरह, दें माता तज साथ?
*
मनुज न बंधन चाहता, छंद नहीं निर्बंध।
लेकिन फिर भी अमर है, दोनों का संबंध
*
होता है अंधेर ही, अगर न्याय में देर।
दे उजास खुद जल मरे, दीप छिपा अंधेर
*
मलिन नहीं होती नदी, उद्गम से ही आप।
मानव दूषित कर कहे, प्रभु! मेटो, अभिशाप
*
कर्म किया है तो मिले, निश्चय उसका दंड।
भोग लगाकर हो न तू, और अधिक उद्दंड
*
प्रभु निर्मम-निष्पक्ष है, सत्य अगर ले जान।
सर न झुकाए दूर से, कभी उसे इंसान
*
'ठाकुर' ने जैसे किया, आकर नम्र प्रणाम।
ठाकुर जी मुस्का दिए, आज पड़ा फिर काम
*
जान गया जो ब्रम्ह को, ब्राम्हण है वह मीत!
ब्रम्ह न जाने 'ब्राम्हण', जग की भ्रामक रीत
*
जात दिखा दर्शा गया, वह अपनी पहचान।
अंतर्मन से था पतित, चोला साधु समान
*
काया रच निज अंश रख, जब करता विधि वास।
तब होता 'कायस्थ' वह, जैसे सुमन-सुवास
*
धन की जाति न धर्म है, जैसे भी हो लूट।
वैश्य न वश में लोभ रख, रहा माथ निज कूट
*
सेवा कर प्रतिदान ले, शूद्र उसे पहचान
बिना स्वार्थ सेवा करे, जो वह देव समान
*
मेरे घर हो लक्ष्मी, काली तेरे द्वार।
तू ही ले-ले शारदा, मैं हूँ परम उदार
*
जिसका ईमां मुसलसल, मुसलमान लें जान।
चाहे वह गीता पढ़े, या पढ़ ले कुरआन
*
औरों के हित हेतु जो, लड़-सह ले तकलीफ।
सिक्ख वही जो चाहता, हो न तनिक तारीफ
*
जो मन-इन्द्रिय जीत ले, करे न संचय-लोभ।
जैन उसी को जानिए, नत हो गहें प्रबोध
*
त्याग-राग के मध्य में, चले समन्वय साध
बौद्ध न अति की ओर जा, कहे सत्य आराध
*


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