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रविवार, 22 अप्रैल 2018

श्री श्री चिंतन: दोहा मंथन 2

इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम,  कनाडा
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जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी,  अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
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अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
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खुद जल; जग रौशन करें,  होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें,  जीव-मित्र भरपूर।।
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निम्न अग्नि तम-धूम्र दे,  मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
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करें इंद्रियाँ बुराई,  तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल,  जा सुख में तू डूब।।
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करें इंद्रियाँ भलाई,  फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
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12.4.2018

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