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बुधवार, 4 अप्रैल 2018

ॐ doha shatak akhilesh khare 'akhil'

 
दोहा शतक 
अखिलेश खरे 'अखिल'









जन्म: ​३०.६.१९७१कछारगाँव बड़ाकटनी ४८३३३४। 
आत्मज: श्रीमती फूलवती -स्व.श्री आनंदीलाल खरे। 
जीवन संगिनी:  श्रीमती विनीता खरे
काव्य गुरु: डॉ. अनिल गहलौत, मथुरा  
शिक्षा: परास्नातक। 
​​संप्रति: मुख्य सलाहकार जीवन बीमा निगम।
​लेखन विधा: दोहा, बालगीतसजलकुण्डलिया। 
संपर्क:  अखिलेश खरे 'अखिल', कछारगाँव(बड़ा)द्वारा मझगवां सरौलीतहसील ढीमरखेड़ाजिला कटनी ४८३३३४। 
चलभाष: ९७५२८६३३६९। ईमेल: sumitkhare2003@gmail.com    
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     दोहाकार अखिलेश खरे ‘अखिल’ गाँव व शहर के संपर्क सेतु पर दैनंदिन जीवन में सतत गतिशील रहते रहे हैं हैं। ऋतु और समाज दोनों में हो रहे परिवर्तनों के सजग साक्षी अखिलेश की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करते दोहों की जड़ें वास्तविकता की जमीं में जमी हैं। इन दोहों में कपोलकल्पना के स्थान पर यथार्थ के धरातल से उपजी अनुभूतियाँ मुखर हुई हैं। अलस्सुबह की ताजगी को शब्दित करते दोहे में धूप और दरिया के माध्यम से उपस्थित किया गया रूपक मोहक है-
भोर-भाल पर अधर जब, धरे पूस की धूप।
दरिया का मन कुनकुना, मौसम देख अनूप।।
     नदियों में सतत घटते पानी, निरंतर काटे जाते जंगल और वीरान होते पनघटों का रूपक लिए दोहा अखिल जी की पर्यावरणीय चेतना और चिंता का साक्षी है-
नदिया विधवा हो गई, वन मुँडवाए बाल।                                                          
प्यास बैठकर दल रही, हर पनघट पर दाल।।
     अखिल पौराणिक चरित्रों की उपमा देकर अपनी बात अपने ही अंदाज़ में प्रस्तुत करते हैं-
मंजिल सीता माँ सरिस, सुरसा सी मग पीर।
पवनपुत्र सा हौसला, भरे सफलता नीर।।
     शाब्दिक और भाषिक समृद्धि की कायस्थ परिवरीय विरासत संपन्न अखिलेश शब्दों से क्रीडा करते प्रतीत होते हैं। निम्न दोहे में ‘पिता-गेह’ और ‘पिया-गेह’ के माध्यम से खेत से कटती फसल के खलिहान जाने का मनहर शब्दांकन है-
खेतों से डोली चली, खलिहानों में शोर।
पिता गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।

     हिंदी, बुंदेली, उर्दू और यदा-कदा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर अखिलेश जी कथ्य को मौलिकता, संक्षिप्तता, लाक्षणिकता और लालित्य के साथ कह पाते हैं आदमी की मौका परस्ती पर तीक्ष्ण व्यंग्य की चोट करता दोहा निम्न दोहा अखिलेश जी के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की साक्षी देता है-
आज बदलता आदमी, पल-पल कितने रंग।
गिरगिट भी हैरान है, देख अजब सा ढंग।।

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दोहा शतक 
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गोरी बैठी भोर में, ओढ़ पूस की धूप।
मौसम कुछ बेशर्म सा, ताके सुघर स्वरूप।।
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भोर-भाल पर अधर जब, धरे पूस की धूप।
दरिया का मन कुनकुना, मौसम देख अनूप।।
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पत्थर धोबी घाट का, दिखलाता औकात।                                                          
मेरे पीछे ही सदा, करता दो-दो बात।।
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धूप करोंटा ले गई, सुन जाड़े की बात।                                                        
दिवस ठिठुरता रह गया, बनी बिछौना रात।।
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नदिया विधवा हो गई, वन मुँडवाए बाल।                                                          
प्यास बैठकर दल रही, हर पनघट पर दाल।।
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चूल्हा,चकिया, ओखली, छानी मकां दुकान।                                              
कस्बा-बस्ती के इन्हें, दादा-दादी जान।।
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झाड़-फूँक की जड़ें हैं, जनगण में मजबूत।
दवा बाद में ले रहे, पहले चली भभूत।।
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नपना बदले आदमी, देश-काल अनुसार।
पतला-मोटा देखकर, बदले नाप सुनार।।
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आँख दिखाती जेठ में, ननद सास सी लाल।
उसी धूप के पूष में, झरे पूँछ के बाल।।
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बूँद- बूँद जल मिल चला, पाषाणों की ओर।
राह रोक पाए नहीं, गिरि-जंगल घनघोर।।
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राहों के कंकर चुभें, परखें मन की धीर।
सागर सा व्यवधान भी, चीर गए रघुबीर।।
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मंजिल सीता माँ सरिस, सुरसा सी मग पीर।
पवनपुत्र सा हौसला, भरे सफलता नीर।।
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घर की फ़ूट समझ 'अखिल', ज्यों हांडी में छेद।
खोल बिभीषण ने दिया, लंकापति का भेद।।
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पालागी-जय राम जी, हुई नदारत आज।
मोबाइल के जाल में, उलझा सकल समाज।।
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कर्जा ले घी पी गये, रहन हुए घर-द्वार।
बैठी विपदा आँगने, फैलाए बाजार।।
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श्याम सलौनी निशा के, केश सितारे टाँक।
पहन नदी की पायलें, रही भोर भू झाँक।।
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धूप-दुशाला ओढ़ कर, भोर ढाँकती अंग।
मौसम प्यासा प्यार का, रंग रँगीले ढंग।।
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पीत चुनरिया ओढ़कर, लजती सरसों मौन।                                                        
टेसू पागल प्यार में, किसके बोले कौन?
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खेतों से डोली चली ,खलिहानों में शोर।
पिता गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।।
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बर्षा का सुन आगमन, खुशियों की बौछार।                                                        ​
ज्यों रूठी प्रियतमा जा, मैके से ससुरार।।       
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देख सजीला नभ विहँस, दिशा सुनाती गीत।                                                      
हरा घाघरा ले धरा, साध रही संगीत।।
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पैसे से है बंदगी, पैसे से पहचान।
बिन पैसे के स्वजन भी, बन जाता अनजान।।
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वर्षा लगी निकालने, छानी की सब खोट।
ज्यों विपक्ष पर कर रहे, सत्ताधारी चोट।।
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जंगल के सिर पर उगे, पावस पाकर बाल।
सत्ताधारी दल 'अखिल', ज्यों हो मालामाल।।
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पावस आने का नदी, बाँधे मन-विश्वास।
अस्पताल ज्यों देखकर, बढ़ जाती है आस।।
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दस में बिकती थी कभी, दो रूपये में आज।
अरे टमाटर साठ के, हो मत जाना प्याज।।
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ब्याह रचाने आ गई, पावस मेरे गाँव।                                                           
दादुर मंत्र उचारते, बैठ सुहानी ठाँव।।
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व्योम, बिजुरिया, बाजने, पायल सी छनकार।
पवन बाँसुरी पावसी, मौसम है फनकार।।
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शहर सहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव।
सुदिन बाँचता भोर से, कागा कर-कर काँव।।
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भोर खड़ी मज्जन किये,आज नदी के तीर।
बूँद बूँद नहला गई,धरनी मले शरीर।।
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धवल धवल सी चाँदनी, धवल काँस के फूल।
पावस माया जाल ज्यों, गया कबीरा भूल।।
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भरी तिजोरी खेत की, कहिं कुटकी कहुँ धान।
लेखा-जोखा कर रहा, बूढ़ा मेड़ मचान।।
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हिरण चाल नदिया चली, सर, मन उठी हिलोर।
पावस पायल पहन पग, नाचे अँगने खोर।।
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बिद्यालय खुलने लगे,मौसम की मनुहार।
फीस, किताबें, कापियाँ, गर्म हुआ बाजार।।
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छानीवाले हैं कहाँ, अब कोई स्कूल।
बदल गए है आजकल, 'अखिल' पुराने रूल।।
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दुल्हिन सी खेती सजी, हरी ओढ़नी तान।
अकड़ दिखाता मेड़ पर, टूटा हुआ मचान।।
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ताँक-झाँक चंदा करे, छुपे बदरिया ओट।
सजी धरा को देख कर, मन में दिखती खोट।।
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गाँव, शहर जबसे बना, दुआ सलामी गोल।
गलियों-गलियों पर चढ़े, कंकरीट के खोल।।
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पावस की लगती 'अखिल', सुखदाई  सी भोर।
हरा घाघरा पहन कर, धरा सजी हर पोर।।
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सुखदाई माँ गोद सी, पावस की बौछार।
सज-धज धरनी कर रही, अम्बर की।।
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सारे जग में श्रेष्ठ है, अम्मा तेरा नाम।
तेरे सुखद चरण लगें, मुझको चारों धाम।।
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रामचरित मानस अवध, तू ही सीता-राम।
तू गीता ही गीता द्वारिका, तू ही राधा-श्याम।।
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जबसे सिर से उठ गया, पूज्य पिता का नेह।
जेठ दोपहर सी तपे, 'अखिल' झुलसती देह।।
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बिन माँगे माँ पेट भर, बेटों को आशीष।
भूखी रखती है उसे, हर दिनांक इकतीस।।
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आँगन-आँगन उग रहीं ,काँटों की दीवार।
अम्मा की ममता 'अखिल',द्वार खड़ी लाचार।।
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खेत बँटे आँगन बँटे, खिड़की आँगन द्वार।
बिन बँटवारे के मिले, जग को माँ का प्यार।।
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मंदिर, मस्जिद, चर्च सब, बाँट रहे इंसान।
पञ्च तत्व निर्मित सभी, हिंदू , मुगल, पठान।।
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वात, पित्त ,कफ का 'अखिल', उचित रहे संयोग।
तब तक कभी शरीर को, क्या छू पाये रोग।।
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मिले योग से आयु सुख, योग ज्ञान  का सार।
अज्ञानी का धन 'अखिल', दुःख का है आधार।।
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जिम्मेदारी शीश पर, आँखों में है प्यार।
सीना ममता से भरा, जय भारत की नार।।
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सच से आँखे जब मिली, दिया पसीना छोड़।
पुरुष संयमी कभी भी, चले न रस्ता तोड़।।
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बिना समर्पण कब मिला, ज्ञान-भक्ति का दान।
हुए समर्पण से 'अखिल' तुलसी, सूर, महान।।
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धूल पात पर उड़ जमे, ले मन में दुर्भाव।
कभी न बदला पत्र ने, अपना सहज सुभाव।।
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मंत्री बन बैटर  रहो, बाबा जीवन बेस्ट।
साधारण के कब हुए, बाबाओं से टेस्ट?
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आज बदलता आदमी, पल-पल कितने रंग।
गिरगिट भी हैरान है, देख अजब सा ढंग।।
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दबे रहे जो ग्रीष्म में, छानी के कुछ होल।
वर्षा में खुलने लगे, ज्यों विपक्ष की पोल।।
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गुल गुलशन, वन जीव सब, तब-तब हुए उदास।
खास जश्न की खबर जब, पहुँची उनके पास।।
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पुत्र जन्म नर-नाथ घर, देख डरे पशु भीत।
बकरे से बकरी कहे, भाग चलो अब मीत।।
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चीरहरण सा चल रहा, द्रुपदी हुआ किसान।
भीष्म पितामह मूक हैं, आ भी जा भगवान।।
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कूटनीति की चक्कियाँ, खेती हुई पिसान।
फंदा कर्जा का गले, कैसे हँसे किसान?
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श्रम-सीकर पी श्रमिक का, ताजमहल सी शान।                                             
बदले में दो कौड़ियाँ, जय हो हिंदुस्तान।।
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श्रम सीकर से बन गया, कुर्ते पर जो चित्र।
भारत का नक्शा बना, कुर्ता हुआ पवित्र।।
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पेड़ पथिक को दे रहे, मात गोद सा प्यार।
भेद-भाव बिन छाँह का, बाँट रहे उपहार।।
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कहो मोल माँगें कभी, पावक, गगन, समीर?
मातु-पिता, भाई-बहिन, धरा, समंदर, नीर।।
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पेड़ न जाने भेद कुछ, हिंदू, मुगल, पठान।
आया जो भी पास में, दे फल-छाँह सामान।।
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नैन पलक तरकस लगें, नजरें तीखे तीर।
प्रेम जंग रणबाँकुरी, अंग-अंग शमशीर।।
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केश घने घन साँवरे, विमल चंद्र सम भाल।
घूँघट पट नैना छिपें, 'अखिल' चित्त बेहाल।।
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कनक रंग सी देह है, कजरारे हैं नैन।
चाल फागुनी पवन सी, कोयल जैसे बैन।।
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कूटनीति के घाट पर, सत्य हुआ बदनाम।
झूठ कपट के मंत्र से, गुँजित आठों याम।। 
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भौजाई सी छाँह है, तेज ननद सी धूप।
जेठ दहाड़े द्वार पर, पिता गेह का कूप।।
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दरिया दुल्हिन सी सहम, रही जेठ घर मौन।
पवन ननद सी चुलबुली, छेड़े उलझे कौन।।
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नशे-नशे में हो गई, बहुत नशीली बात।
घूँसों की होने लगी, बेमौसम बरसात।।
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थाने में दस की 'अखिल', देता थानेदार।
बीस रुपैया पैक पर, रोज बचेंगे यार।।
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निपट नशीले मूड में, साहब लौटे गेह।
अटपट-लटपट चाल है, सनी कीच से देह।।
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मधुशाला सी जिंदगी, पैमाने सी साँस।
कुछ हाथों तक मय गई, वरना रिक्त गिलास।।
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हल से लिखता खेत पर, कृषक अनोखे छंद।
बरखा रानी बाँचती, लिखे हुए नव बंद।।
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पाँसों जैसे हाथ में, हँसिया और कुदाल।
खेती-चौपड़ खेल सा, चलो सोचकर चाल।।
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मँहगाई के सामने, खड़ा कृषक करजोर।
ज्यों कपिला है शेर के, आगे अति कमजोर।।
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खेत बिछौना हो गया, चादर है आकाश।
पेट पकड़ कर सो गया, फिर भी नहीं निराश 
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चातक जैसी टकटकी, नेता जी से आस।
आश्वासन की पातियाँ, रही कुँवारी प्यास।।
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भारत देश महान अति, हिमगिरि जिसका शीश।
कंकर-कंकर में विहँस, रमते शंकर ईश।।
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गोरे काले का यहाँ, शेष नहीं मतभेद।
ज्यों सरिता सागर मिली, जाकर भूली भेद।।
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दरिया जैसी जिंदगी, घाट-घाट विश्राम।
कहीं जागरण की सुबह, कहीं चैन की शाम।।
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प्रीत, रीत के गीत भी, संस्कारी तटबंध।
मर्यादा की मूल से, भारत का अनुबंध।।
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नेताजी की चाकरी, बरगद जैसी छाँव।
चापलूस मल्लाह की, लगी किनारे नाव।।
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बाजी खेले जान की, खेतों बीच किसान।
जैसे सीमा पर डटा, आठों पहर जवान।।
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उपजाता है अन्न जब, पेट भरें सब लोग।
पर किसान ही देश का, भूखा करता सोग।।
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गिरगिट जैसी चाल है, चींटी जैसी जान।
चोरों जैसी हरकतें, पाजी पाकिस्तान।।
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नैनों से छुरियाँ चलें, करें दिलों पर घात।
नैनों-नैनों में हुई, प्रेम भरी बरसात।।
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नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन।
महक छिपे कब इत्र की, कहो लगे कौन?
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श्रम सीकर बोने लगे, खेतों  बीच किसान।
गीता के संदेश का, मन में करके ध्यान।।
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खेतों की हर माँग को, पूरा करे किसान।
इम्तिहान देता रहा, बलि लेते भगवान।।
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फागुन सरसों सज गई, गेंहूँ बदले रंग।
पी कर बैठा खेत में, चना जरा सी भंग।।
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पवन भांग पी कर चली, मौसम देखे ख्वाब।
कलियाँ भौरों से कहें, बाँचो नेह किताब।।
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टेसू-मन रंगीन है, महके अमुआ अंग।
सरसों पीली देखकर, महुआ का मन दंग।।
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गोरी फागुन में सजी, विमल चंद्र सा भाल।
पग पायल नूपुर बजें, पुरवाई सी चाल।।
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मन सावन-भादों हुआ, हरियाकर दिन दून।
प्रियतम परदेशी हुए, कर सपनों का खून।।
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प्रेम पुजारी देश यह, पवन सुनाती तान।
तुलसी, सूर, रहीम, घन, प्रेम पगे रसखान।।
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भादों गर्जे द्वार पर, पवन झकोरा मार।
बुँदिया नाचत आँगने, धरा करे श्रृंगार।।
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'
अखिल' अनंदी लाल सुत, फूलवती माँ जान।
ग्राम कछार सुहावना, है निवास अस्थान।। १०० 

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