एक चर्चा
'कत्अ'
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'कत्अ'
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'कत्अ' उर्दू काव्य का एक हिस्सा है। 'कत्अ' का शब्दकोशीय अर्थ 'टुकड़ा या भूखंड' है। 'उर्दू नज़्म की एक किस्म जिसमें गज़ल की तरह काफ़िए की पाबन्दी होती है और जिसमें कोई एक बात कही जाती है'१ कत्अ है। 'कत्अ' को सामान्यत: 'कता' कह या लिख लिया जाता है।
'प्राय: गज़लों में २-३ या इससे अधिक अशार ऐसे होते थे जो भाव की दृष्टि से एक सुगठित इकाई होते थे, इन्हीं को (गजल का) कता कहते थे।'... 'अब गजल से स्वतंत्र रूप से भी कते कहे जाते हैं। आजकल के कते चार मिसरों के होते हैं (वैसे यह अनिवार्य नहीं है) जिसमें दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफिया - हमरदीफ़ होते हैं।२
'कत्अ' के अर्थ 'काटा हुआ' है। यह रूप की दृष्टि से गजल और कसीदे से मिलता-जुलता है। यह गजल या कसीदे से काटा हुआ प्रतीत होता है। इसमें काफिये (तुक) का क्रम वही होता है जो गजल का होता है। कम से कम दो शे'र होते हैं, ज्यादा पर कोइ प्रतिबन्ध नहीं है। इसमें प्रत्येक शे'र का दूसरा मिस्रा हम काफिया (समान तुक) होता है। विषय की दृष्टि से सभी शे'रों का एक दूसरे से संबंध होना जरूरी होता है। इसमें हर प्रकार के विषय प्रस्तुत किये जा सकते हैं।३
ग़ालिब की मशहूर गजल 'दिले नादां तुझे हुआ क्या है' के निम्न चार शे'र 'कता' का उदाहरण है-
जबकि तुम बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है।
ये परि चेहरा लोग कैसे हैं
गम्ज़-ओ-इश्व-ओ-अदा क्या है।
शिकने-जुल्फ़े-अंबरी क्यों है
निग्हे-चश्मे-सुरमा सा क्या है।
सब्ज़-ओ-गुल कहाँ से आये है
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है।
फैज़ का एक कता देखें-
हम खस्तातनों से मुहत्सिबो, क्या माल-मनाल की पूछते हो।
इक उम्र में जो कुछ भर पाया, सब सामने लाये देते हैं
दमन में है मुश्ते-खाके-जिगर, सागर एन है कहने-हसरते-मै
लो हमने दामन झाड़ दिया, लो जाम उलटाए देते हैं
यह बिलकुल स्पष्ट है कि कता और मुक्तक समानार्थी नहीं हैं।
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सन्दर्भ- १. उर्दू हिंदी शब्दकोष, सं. मु. मुस्तफा खां 'मद्दाह', पृष्ठ ९५, २. उर्दू कविता और छन्दशास्त्र, नरेश नदीम पृष्ठ १६, ३.उर्दू काव्य शास्त्र में काव्य का स्वरुप, डॉ. रामदास 'नादार', पृष्ठ ८५-८६, ४.
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