काजी नज़रुल इस्लाम - की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अवदान-सम्मान
स्वाधीनता
सत्याग्रहों तथा स्वातंत्रयोत्तर काल में राष्ट्रीय एकात्मता की मशाल को ज्योतित रखनेवाले महापुरुषों में अग्रगण्य काजी नज़रुल इस्लाम बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, प्रखर देशप्रेमी, सर्वधर्म समभाव के समर्थक तथा बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि रहे हैं। कविता में विद्रोह के स्वर प्रमुख होने के कारण वे 'विद्रोही कवि' कहे गये। वे संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा, दार्शनिक, गायक, वादक, नाटककार तथा अभिनेता के रूप में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे। उनकी कविता का वर्ण्यविषय 'मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार' तथा 'सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद' है।
जन्म, परिवार तथा संघर्ष-
बंगाल
के बर्दवान जिले में पुरुलिया गाँव के काज़ी फ़कीर अहमद की बेग़म ज़ाहिदा खातून ने माँ काली की कृपा से २४ मई १८९९ को एक पुत्र को जन्म दिया जिसे
'नज़रुल' नाम मिला। केवल ८ वर्ष की उम्र में १
बड़ा भाई, २ छोटे भाई तथा एक छोटी बहिन को छोड़कर उनके वालिद का इंतकाल चल बसे। घोर गरीबी से जूझते हुए उन्होंने १० साल की आयु में मखतब का इम्तिहान पास कर अरबी-फारसी के
साथ-साथ भागवत, महाभारत, रामायण, पुराण और कुरआन आदि पढ़ीं और और पढ़ाईं तथा माँ काली की आराधना कर राष्ट्रीय चेतना का प्रथम तत्व सर्व धर्म सम भाव पाया।
रानीगंज, बर्दवान के राजा से ७ रुपये छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा तथा मुस्लिम छात्रावास में
मुफ्त खाना-कपड़े की व्यवस्था होने पर वे पढ़ सके तथा कक्षा में प्रथम आये। समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य प्रधान नौटंकी करने वाले दल 'लीटो' में सम्मिलित होकर कलाकारों के लिये काव्यात्मक सवाल-जवाब लिख केवल ११ वर्ष की
आयु में वे मुख्य 'कवियाल' बने। उन्होंने रेल गार्डों के घरों में, बेकरी में १ रु. मासिक पर काम कर, संगीत गोष्ठियों में बाँसुरी वादन कर जीवनयापन के
साधन जुटाये। आर्थिक संकट से जूझते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का दूसरा तत्व आम लोगों की आर्थिक दुर्दशा के प्रति सहानुभूति यहीं मिला।
पुलिस
सब इंस्पेक्टर रफीकुल्ला ने गाँव त्रिशाल जिला मैमनपुर बांगला में नज़रुल
को स्कूल में प्रवेश दिलाया। अंतिम
वर्ष पूर्ण पूर्व १८ वर्षीय नजरुल १९१७ में 'डबल कंपनी' में सैनिक शिक्षा लेकर ४९ वीं बंगाल रेजिमेंट के साथ नौशेरा
उत्तर-पश्चिम सीमांत पर गए। वहाँ से कराची आकर वे 'कारपोरल' के निम्नतम पद से उन्नति कर कमीशन प्राप्त अफसर के रूप में
१९१९ में 'हवलदार' हुए। उन्हें आंग्ल शासन की भारतवासियों के
प्रति नीति और भावना जानने-परखने का अवसर मिला। मई १९१९ में पहली गद्य रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा' (आवारा की आत्मकथा), जुलाई १९१९ में प्रसिद्ध कविता 'मुक्ति' तथा नज्म 'लीचीचोर' ने उन्हें ख्यति दी। अंग्रेज सरकार उन्हें सब रजिस्ट्रार बनाना चाहा पर नजरुल ने स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों
की सेना में भारतीयों के प्रति दुर्भाव और उत्पीड़न की भावना ने उन्हें राष्ट्रीय चेतना का तीसरे तत्व मुक्ति की चाह से जोड़ दिया।
सेना
की नौकरी छोड़ कर वे बाल साहित्य प्रकाशक अली अकबर खाँ के साथ मार्च-अप्रैल १९२१ में पूर्वी बंगाल के दौलतपुर गाँव, जिला तिपेरा, हैड ऑफिस कोमिल्ला गये। अली अकबर के मित्र
वीरेंद्र के पिता श्री इंद्रकुमार सेनगुप्त, माँ बिराजसुन्दरी, बहिन गिरिबाला, भांजी प्रमिला उन्हें परिवार जनों की तरह स्नेह करते। वे बिराजसुंदरी को 'माँ' कहते। ब्रम्ह समाज से जुडी प्रमिला से २४ अप्रैल १९२४ को नजरुल ने विवाह
कर लिया। नज्म 'रेशमी डोर' में ''तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतो, आमार कंठे जड़ा ली'' अर्थात 'तुम लोग कैसे मेरे कंठ से मणिमाला की तरह लिपट गये हो?' लिखते नज़रुल को राष्ट्रीय चेतना का चौथा तत्व
स्वदेशियों से अभिन्नता मिला।
'धूमकेतु' पत्रिका में अंग्रेज शासन विरोधी लेखन के
कारण १९२३ में मिले एक वर्ष के कारावास से छूटने पर वे कृष्ण नगर चले गये। विपन्नता से जूझते नजरुल ने प्रथम पुत्र तथा १९२८ में प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह का नाम बुलबुल रखा। पुत्र अल्पजीवी
हुआ किन्तु संग्रह चिरजीवी। 'दारिद्र्य' शीर्षक रचना करने के साथ-साथ नजरुल ने अपने
गाँव में विद्यालय खोला तथा 'कम्युनिस्ट
इंटरनेशनल' का प्रथम अनुवाद किया। नज़रुल ने एक पंजाबी मौलवी की मदद से फारसी सीख, फारसी महाकवि हाफ़िज़ की 'रुबाइयाते हाफ़िज़' का अनुवाद किया।राजनैतिक व्यस्तताओं के कारण
यह १९३० में, दूसरा अनुवाद 'काब्यापारा' १९३३ में छपे। ८ अगस्त १९४१ को टैगोर का निधन होने पर नजरुल
ने २ कविताओं की आल इंडिया रेडिओ पर सस्वर प्रस्तुति कर श्रद्धान्जलि दी। यह नज़रुल की स्वतंत्र पहचान का प्रमाण
था। 'रुबाइयाते हाफ़िज़' का दूसरा भाग १९५२ में छपा तथा 'रुबाइयाते उमर खय्याम' १९५९-६० में छपे। साम्यवाद ने नज़रुल को उपनिवेशवाद का विरोध
तथा मुक्ति के लिए संघर्ष राष्ट्रीयता का पाँचवा तत्व दिया।
सांप्रदायिक
सद्भाव से राष्ट्रीयता का प्रचार
हिन्दू
मुस्लिम को लड़कर देश पर राज्य करने की अंग्रेजों की चाल को नकारतीं नजरुल
की कृष्णभक्ति परक रचनाएँ व नाटक खूब लोकप्रिय हुईं। वे यथार्थ पर आधारित, प्रेम-गंध पूरित, देशी रागों और धुनों से सराबोर, वीरता, त्याग और करुणा प्रधान नाटक लिख-खेल
राष्ट्रीय भावधारा बहाते थे। पारंपरिक रागों के साथ आधुनिक धुनों में विद्रोही, धूमकेतु, भांगरगान, राजबन्दिर, जबानबंदी आदि ३००० से अधिक ओजस्वी बांगला गीति-रचनाएँ रच तथा गाकर, संगीत से जन-संघर्ष को सबल बनने काम नज़रुल ने
लिया। उनकी प्रमुख कृति 'नजरुल गीति' हैं। सांप्रदायिक कट्टरता या संकीर्णता से कोसों
दूर नजरुल सांप्रदायिक सद्भाव के जीवंत प्रतीक हैं। रूद्र रचनावली, भाग १, पृष्ठ ७०७ पर प्रकाशित रचना उनके साम्प्रदायिकता
विहीनविचारों का दर्पण है-
'हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सहनीय हैं
लेकिन
उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि
यही दोनों विवाद कराती हैं।
चोटी
में हिंदुत्व नहीं, शायद पांडित्य है
जैसे
कि दाढ़ी में मुसल्मानत्व नहीं, शायद मौल्वित्व है।
और
इस पांडित्य और मौल्वित्व के चिन्हों को,
बालों
को लेकर दुनिया बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज
जो लड़ाई छिड़ती है
वो
हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो
तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी
को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान
तो सदा लड़ा गाय-बकरे को लेकर।
विदेशी
शासन के प्रति विद्रोह मंत्र-
भारत माता की गुलामी के बंधनों को काट फेंकने का आव्हान करती उनकी रचनाओं ने उन्हें 'विद्रोही कवि' का विरुद दिलवाया। अंग्रेजी सत्ता के प्रतिबन्ध उनकी ओजस्वी वाणी को दबा नहीं सके। कवि, गायक, संगीतकार होने के साथ-साथ वे श्रेष्ठ
दार्शनिक भी थे। नज़रुल ने मनुष्य पर मनुष्य के अत्याचार, सामाजिक अनाचार, निर्बल के शोषण, साम्प्रदायिकता आदि के खिलाफ सशक्त स्वर
बुलंद किया। नजरुल ने अपने लेखन के माध्यम से जमीन से जुड़े सामाजिक सत्यों-तथ्यों
का इंगित कर इंसानियत के हक में आवाज़ उठायी। वे कवीन्द्र रविन्द्र नाथ ठाकुर के पश्चात्
बांगला के दूसरे महान कवि हैं। स्वाभिमानी, जन समानता के पक्षधर नजरुल ने परम्परा तोड़ किसी शायर को
उस्ताद नहीं बनाया।
एक
अफ़्रीकी कवि ने काव्य को रोष या क्रोध की उपज कहा है। नजरुल के सन्दर्भ में यह सही
है। लोकप्रिय
'भंगार गान' में नजरुल का जुझारू और विद्रोही रूप
दृष्टव्य है- 'करार आई लौह कपाट, भेंगे फेल कार-रे लोपात, रक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण वेदी' अर्थात तोड़ डालो इस बंदीग्रह के लौह कपाट, रक्त स्नात पत्थर की वेदी पाश-पाश कर दो/ जो
वेदी रुपी देव के पूजन हेतु खड़ी की गयी है। 'बोलो! वीर बोलो!!उन्नत मम शीर' अर्थात कहो, हे वीर कहो कि मेरा शीश उन्नत है। श्री बारीन्द्र कुमार घोष के संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक
पत्रिका 'बिजली' में यह कविता प्रकाशित होने पर जनता ने इसे
गाँधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आन्दोलन से जोड़कर देखा। वह अंक भारी मांग के
कारण दुबारा छापना पड़ा। गुरुदेव ने स्वयं उनसे यह
रचना सुनकर उन्हें आशीष दिया।
रूसो के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांत तथा रूस की
क्रांति से प्रभावित नज़रुल ने साम्यवादी दल बंगाल के मुखिया होकर 'नौजूग' (नवयुग) पत्रिका निकाली। नजरुल द्वारा १९२२ में प्रकाशित 'जूग-बानी' (युग-वाणी) की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कविवर पन्त जी ने
अपने कविता संग्रह को यही नाम दिया। काव्य संग्रह 'अग्निबीना' (१९२२), निबन्ध संग्रहों दुर्दिनेर जात्री (१९३८), रूद्र मंगल, 'वशीर बंसी' तथा 'भंगारन' को अवैध घोषित कर तथा १६
जनवरी १९२३ को नज़रुल को कैद कर सरकार
ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने में उनके योगदान को परोक्षतः स्वीकारा। नजरुल
की राष्ट्रीय चेतनपरक क्रान्तिकारी गतिविधियों से त्रस्त
सरकार उन्हें बार-बार काराग्रह भेजती थी। जनवरी १९२३ में नजरुल ने ४० दिनों तक जेल
में भूख-हड़ताल की। कारावासी नेताजी सुभाष ने उनकी प्रशंसा कर कहा- ‘हम जैसे इंसान संगीत से दूर भागते हैं, हममें भी जोश जाग रहा है, हम भी नजरुल की तरह गीत गाने लगेंगे। अब से
हम 'मार्च पास्ट' के समय ऐसे ही गीत गायेंगे।‘ ग्यारह माह के कारावास में असंख्य गीत और कवितायेँ रचकर पंद्रह दिसंबर १९२३ को नजरुल मुक्त किये गये।
व्यंग्य रचना 'सुपेर बंदना' (जेल अधीक्षक की प्रार्थना) में नजरुल के लेखन का नया रूप
सामने आया। 'एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल' (जो बेड़ी पहनी हमने वो केवल एक दिखावा है / इन्हें पहन निर्दयियों को
ही कठिनाई में डाला है)। शोचनीय आर्थिक परिस्थिति के बाद भी नजरुल की
गतिविधियाँ बढ़ती गयीं। गीत 'मरन-मरन' में 'एशो एशो ओगो मरन' (ओ री मृत्यु! आओ आओ) तथा कविता 'दुपहर अभिसार' में जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे? (कहाँ जा रहीं कहो अकेली? अलसाये बैसाख में) लिखते हुए नजरुल ने जनगण को निर्भयता का पाठ पढ़ाया।
सन
१९२४ में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन और कोंग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच स्वार्थपरक राजनैतिक
समझौते पर नजरुल ने 'बदना गाडूर पैक्ट' गीत में खिलाफत आन्दोलनजनित क्षणिक
हिन्दू-मुस्लिम एकता पर करारा व्यंग्य कर कहा 'हम ४० करोड़ भारतीय अलग-अलग निवास और विचारधारा में विभाजित होकर आज़ादी खो बैठे
हैं। फिर एक बार संगठित हों, जाति, धर्म आदि के भेद-भाव भुलाकर शांति, साम्य, अन्न, वस्त्र आदि अर्जित करें।' सांप्रदायिक एकता को जी रहे नजरुल ने न केवल
हिन्दू महिला को शरीके-हयात बनाया अपितु अपने चार बेटों के नाम कृष्ण मुहम्मद, अरिंदम(शत्रुजयी), सव्यसाची (अर्जुन) व अनिरुद्ध (जिसे रोका न
जा सके, श्रीकृष्ण का पौत्र) रखे।
स्वतंत्रता
हेतु संघर्षरत लोगों का मनोबल बढ़ाते हुए नजरुल ने लिखा 'हे वीर! बोलो मेरा उन्नत सर देखा? क्या कभी हिमाद्री शिखर ने अपना सर झुकाया?' आशय यह कि अंग्रेजों के सामने तुम भी कभी अपना सर मत झुकाओ। नजरुल ने गाँधी - चिंतन से असहमत होते हुए भी
सत्याग्रह आन्दोलन संबंधी असंख्य गीत व् कवितायेँ रचकर
अपना योगदान किया। 'ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आँगिनाये? तीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए' (बंदी माँ के आँगन में / जाता है कौन पथिक पागल? / तीस करोड़ बन्धु विस्मृत कर / मौत गा रहे गीत साथ मिल)।
नजरुल
कहते है: 'मुझे पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह
के लिए उस ईश्वर का भेजा हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य-रक्षा और
न्याय-प्राप्ति हेतु मैं सैनिक मात्र हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की
हरी-भरी धरती पर जो आजकल किसी वशीकरण से वशीभूत है, भेजा है। मैं साधारण सैनिक मात्र हूँ। मैंने उसी ईश्वर के
निर्देशों की पूर्ति करने यत्न किया है। नजरुल के क्रन्तिकारी विद्रोहात्मक विचार
राष्ट्रीयतापरक गीतों में स्पष्ट हैं। दुर्गम गिरि कांतार, मरू दुस्तर पारावार / लांघिते हाबे रात्रि
निशीथे, यात्रिरा हुँशियार (दुर्गम गिरि-वन, विकट मरुस्थल / सागर का विस्तार / निशा-तिमिर में, हमें लाँघना, पथिक रहें होशियार)। एक छात्र सम्मलेन के
उद्घाटन-अवसर पर नजरुल ने पारायण गीत गाया- आमरा शक्ति, आमरा बल, आमरा छात्र दल (हमारी शक्ति, हमारा बल, हमारा छात्र दल)। एक अन्य अवसर पर नजरुल ने
गाया- चल रे चल चल, ऊर्ध्व गगने बाजे मादल / निम्ने उत्तला धरणि तल, अरुण प्रान्तेर तरुण दल, चल रे चल चल (चलो रे चलो, नभ में ढोल बजे / नीचे धरती कंपित है / उषा-काल में
युवकों, आगे और बढ़ो)। नजरुल के मुख्य कहानी संग्रह ब्याथार
दान १९२२, १९९२, रिक्तेर बेदना १९२५ तथा श्यूलीमाला १९३१ हैं।
नज़रुल राष्ट्रीयता के आंदोलनों में सक्रिय रहने के साथ-साथ
चलचित्रों के माध्यम से जन चेतना जाग्रत करने में भी सफल हुए। सन १९४२ में मात्र ४३ वर्ष की आयु में नजरुल 'मोरबस पिक्स' नामक घातक-विरल लाइलाज रोग से ग्रस्त हुए। सन १९६२ में पत्नी प्रमिला के निधन पश्चात् वे
एकाकी रोग से जूझते रहे पर हार न मानी। सन १९७२ में नवनिर्मित बांग्ला देश सरकार के
आमंत्रण पर भारत सरकार से अनुमति लेकर वे ढाका चले गये। वे २९ अगस्त १९७६ को परलोकवासी हुए।
नजरुल
इस्लाम जैसे व्यक्तित्व और उनका कृतित्व कभी मरता नहीं। वे अपनी रचनाओं, अपनी यादों, अपने शिष्यों और अपने कार्यों के रूप में
अजर-अमर हो जाते हैं। वर्तमान विद्वेष, विखंडन, अविश्वास, आतंक और अजनबियत के दौर में नजरुल का संघर्ष, नजरुल की राष्ट्रीयता, नजरुल की सफलता और नजरुल का सम्मान नयी पीढ़ी
के लिये प्रकाश स्तंभ की तरह है। कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'जगतारिणी पुरस्कार' से सम्मनित कर खुद को धन्य किया। रवीन्द्र भारती संस्था तथा ढाका विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट्. उपाधि समर्पित की। भारत सरकार ने उन्हें १९६० में पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया गया। भारत ने १९९९ में एक स्मृति डाक टिकिट जारी
किया। बांगला देश ने २८ जुलाई २०११ को एक स्मृति डाक टिकिट तथा ३ एकल और एक ४ डाक टिकिटों का सेट उनकी स्मृति में जारी किये।
काजी
नजरुल इस्लाम की एक कविता की निम्न पंक्तियाँ उनके राष्ट्रवाद को विश्ववाद के
रूप में परिभाषित करते हुए ज़ुल्मो-सितम के खात्मे की कामना करती हैं-
"महाविद्रोही रण क्लांत
आमि
शेई दिन होबो क्लांत
जोबे
उतपीड़ितेर क्रंदनरोल
आकाशे बातासे ध्वनिबे ना
अत्याचारीर
खंग-कृपाण
भीम
रणेभूमे रणेबे ना
विद्रोही
ओ रणेक्लांत
आमि
शेई दिन होबो शांत"
(मैं विद्रोही थक लड़ाई से भले गया
पर शांत तभी हो पाऊँगा जब
आह
या चीत्कार दुखी की
आग
न नभ में लगा सकेगी।
और
बंद तलवारें होंगी
चलना
अत्याचारी की जब
तभी
शांत मैं हो पाऊँगा
तभी
शांत मैं हो जाऊँगा।)
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com
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