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लघुकथा संग्रह - आदमी ज़िंदा है
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
भूमिका
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी का लघुकथा संग्रह आना लघुकथा की समृद्धि में चार-चाँद लगने जैसा है। आपको साहित्य जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप बेहद समृद्ध पृष्ठभूमि के रचनाकार है। साहित्य आपके रक्त के प्रवाह में है। बचपन से प्रबुद्ध-चिंतनशील परिवार, परिजनों तथा परिवेश में आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आप गत ४ दशकों से हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। देश-विदेश में स्थित पचास से अधिक सस्थाओं ने सौ से अधिक सम्मानों से साहित्य -सेवा में श्रेष्ठ तथा असाधारण योगदान के लिये आपको अलङ्कृत कर स्वयं को सम्मानित किया है।
मैं सदा से आपके लेखन की विविधता पर चकित होती आई हूँ। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्मव साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। ओपन बुक्स ऑनलाइन, युग मानस, ई कविता, अपने ब्लॉगों तथा फेसबुक पृष्ठों के माध्यम से भी आचार्य जी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी भाषा तथा छन्दों के प्रचार-प्रसार व को जोड़ने में प्रचुर योगदान किया है। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी ने विविध विधाओं में सृजन करने के साथ-साथ के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। उन्हें समीक्षा और समालोचना के क्षेत्र में भी महारत हासिल है।
सलिल जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ विविध विधाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार की पुस्तक में अभिमत देने की बात सोचना भी मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। सामान्यतः नयी कलमों की राह में वरिष्ठों द्वारा रोड़े अटकाने, शोषण करने और हतोत्साहित करने के काल में सलिल जी अपवाद हैं जो कनिष्ठों का मार्गदर्शन कर उनकी रचनाओं को लगातार सुधारते हैं, त्रुटियाँ इंगित करते हैं और जटिल प्रकरणों को प्रमाणिकता से स्नेहपूर्वक समझाते हैं। अपने से कनिष्ठों को समय से पूर्व आगे बढ़ने अवसर देने के लिये सतत प्रतिबद्ध सलिल जी ने पात्रता न होने के बाद भी विशेष अनुग्रह कर मुझे अपनी कृति पर सम्मति देने के लिये न केवल प्रोत्साहित किया अपितु पूरी स्वतंत्रता भी दी। उनके स्नेहादेश के परिपालनार्थ ही मैं इस पुस्तक में अपने मनोभाव व्यक्त करने का साहस जुटा रही हूँ। नव लघुकथाकारों के मार्गदर्शन के लिये आपके द्वारा लिखा गया लघुकथा विषयक आलेख एक प्रकाशस्तंभ के समान है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे निरन्तर सलिल जी से बहुत कुछ सीखने मिल रहा है। किसी पुस्तक पर लिखना भी इस प्रशिक्षण की एक कड़ी है। सलिल जी आज भी अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहे है।
गद्य साहित्य में लघुकथा एक तीक्ष्ण विधा है जो इंसान के मन-मस्तिष्क पर ऐसा प्रहार करती है कि पढ़ते ही पाठक तिलमिला उठता है। जीवन और जगत की विसंगतियों पर बौद्धिक आक्रोश और तिक्त अनुभूतियों को तीव्रता से कलमबद्ध कर पाठक को उसकी प्रतीति कराना ही लघुकथा का उद्देश्य है। सलिल जी के अनुसार लघुकथाकार परोक्षतः समाज के चिंतन और चरित्र में परिवर्तन हेतु लघुकथा का लेखन करता है किंतु प्रत्यक्षतः उपचार या सुझाव नहीं सुझाता। सीधे-सीधे उपचार या समाधान सुझाते ही लघुकथा में परिवर्तित हो जाती है। अपने लघुकथा-विषयक दिशादर्शी आलेख में आपके द्वारा जिक्र हुआ है कि “वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है। लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है। लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है। लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, गुप्त-प्रगट, शालीन-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।” आपकी लघुकथाओं में बहुधा यही “लघ्वाकारी मारकता “ अन्तर्निहित है।”
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तकनीकों को लेकर कई भ्रान्तियाँ हैं। वरिष्ठ-लेखकों में परस्पर मतान्तर की स्थिति के कारण इस विधा में नवोदितों का लेखन अपने कलेवर से भटकता हुआ प्रतीत होता है। विधा कोई भी हो उसमें कुछ अनुशासन है किन्तु नव प्रयोगों के लिये कुछ स्वतंत्रता होना भी आवश्यक है। नये प्रयोग मानकों का विस्तार कर उनके इर्द-गिर्द ही किये जाने चाहिए जाना चाहिए, मानकों की उपेक्षा कर या मानकों को ध्वस्त कर नहीं। नामानुसार एक क्षण विशेष में घटित घटना को लघुतम कथ्य के रूप में अधिकतम क्षिप्रता के साथ पाठक तक संप्रेषित करना ही सार्थक लघुकथा लेखन का उद्देश्य होता है। लघुकथा समाज, परिवार व देशकाल की असहज परिस्थितियों को सहज भाव में संप्रेषित करने की अति विशिष्ट विधा है अर्थात कलात्मक-भाव में सहज बातों के असाधारण सम्प्रेषण से पाठक को चौकाने का माध्यम है लघुतामय लघुकथा।
“आदमी जिंदा है“ लघुकथा संग्रह वास्तव में पुस्तक के रूप में आज के समाज का आईना है। अपने देश ,समाज और पारिवारिक विसंगतियों को सलिल जी ने पैनी दृष्टि से देखा है, वक्र दृष्टि से नहीं। सलिल जी की परिष्कृत-दार्शनिक दृष्टि ने समाज में निहित अच्छाइयों को भी सकारात्मक सोच के साथ प्रेरणा देते सार्थक जीवन-सन्देश को आवश्यकतानुसार इंगित किया है, परिभाषित नहीं। वे देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रशासनिक विसंगतियों पर सधी हुई भाषा में चौकानेवाले तथ्यों को उजागर करते हैं। इस लघुकथा संग्रह से लघुकथा- विधा मजबूती के साथ एक कदम और आगे बढ़ी है। यह बात मैं गर्व और विश्वास साथ कह सकती हूँ। सलिल जी जैसे वरिष्ठ -साहित्यकार का लघुकथा संग्रह इस विधा को एक सार्थक और मजबूत आधार देगा।
लघुकथाओं में सर्जनात्मकता समेटता कथात्मकता का आत्मीय परिवेश सलिल जी का वैशिष्ट्य है। उनका लघुकथाकार सत्य के प्रति समर्पित-निष्ठावान है, यही निष्ठां आपकी समस्त रचनाओं और पाठकों के मध्य संवेदना- सेतु का सृजन कर मन को मन से जोड़ता है। इन लघुकथाओं का वाचन आप-बीती का सा भान कराता है। पाठक की चेतना पात्रों और घटना के साथ-साथ ठिठकती-बढ़ती है और पाठक का मन भावुक होकर तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
'आदमी जिंदा है' शीर्षकीय लघुकथा इस संग्रह को परिभाषित कर अपने कथ्य को विशेष तौर पर उत्कृष्ट बनाती है। “साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है। “ एक साहित्य सेवी द्वारा लिपिबद्ध ये पंक्तियाँ मन को मुग्ध करती है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक कथ्य समाविष्ट है इस लघुकथा में।
“एकलव्य“ लघुकथा में कथाकार ने एकलव्य द्वारा भोंकते कुत्तों का मुँह तीरों से बंद करने को बिम्बित कर सार्थक सृजन किया है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य का उभार पाठक के मन में विचलन तथा सहमति एक्स उत्पन्न करता है। लघुकथा का शिल्प चकित करनेवाला है।
'बदलाव का मतलब' में मतदाताओं के साथ जनप्रतिनिधि द्वारा ठगी को जबर्दस्त उभार दिया गया है। 'भयानक सपना' में हिंदी भाषा को लेकर एक विशिष्ट कथा का सशक्त सम्प्रेषण हुआ है। 'मन का दर्पण' में लेखक के मन की बात राजनैतिक उथल–पुथल को कथ्य के रूप में उभार सकी है। 'दिया' में विजातीय विवाह से उपजी घरेलू विसंगति और पदों का छोटापन दर्शित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सास को अपने आखिरी समय में बहू की अच्छाई दिखाई देती है जो मार्मिक और मननीय बन पड़ी है। 'करनी-भरनी' में शिक्षा नीति की धॉँधली और 'गुलामी' में देश के झंडे की अपने ही तंत्र से शिकायत और दुःख को मुखर किया गया है। 'तिरंगा' में राष्ट्रीय ध्वज के प्रति बालक के अबोध मन में शृद्धा का भाव, तिरंगे को रखने के लिये सम्मानित जगह का न मिलना और सीने से लगाकर सो जाना गज़ब का प्रभाव छोड़ता है। इस लघुकथा का रंग शेष लघुकथाओं से अलग उभरा है।
'अँगूठा' में बेरोजगारी, मँहगाई और प्रशासनिक आडम्बर पर निशाना साधा गया है। 'विक्षिप्तता', 'प्यार का संसार', 'वेदना का मूल' आदि लघुकथाएँ विशेष मारक बन पड़ी हैं। 'सनसनाते हुए तीर' तथा 'नारी विमर्श' लघुकथाओं में स्त्री विमर्श पर बतौर पुरुष आपकी कलम का बेख़ौफ़ चलना चकित करता है। सामान्यतः स्त्री विमर्शात्मक लघुकथाओं में पुरुष को कठघरे में खड़ा किया जाता है किन्तु सलिल जी ने इन लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श पर स्त्री-पाखण्ड को भी इंगित किया है।
आपकी कई लघुकथाएँ लघुकथाओं संबंधी पारम्परिक-रूरक मानकों में हस्तक्षेप कर अपनी स्वतंत्र शैली गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। कहावत है 'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह सपूत'। प्रचलित ”चलन” या रूढ़ियों से इतर चलना आप जैसे समर्थ साहित्यकार के ही बूते की बात है। आप जैसे छंद-शास्त्री, हिंदी-ज्ञाता, भाषा-विज्ञानी द्वारा गद्य साहित्य की इस लघु विधा में प्रयोग पाठकों के मन में गहराई तक उतर कर उसे झकझोरते हैं। आपकी लघुकथाओं का मर्म पाठको के चितन को आंदोलित करता है। ये लघुकथाएँ यथा तथ्यता, सांकेतिकता, बिम्बात्मकता एवं आंचलिकता के गुणों को अवरेखित करती है। अपनी विशिष्ट शैली में आपने वैज्ञानिकता का परिवेश बड़ी सहजता से जीवंत किया है। इन दृष्टियों से अब तक मैंने जो पूर्व प्रकाशित संग्रह पढ़े हैं में अपेक्षा इस संग्रह को पर्याप्त अधिक समृद्ध और मौलिक पाया है।
मुझे जीने दो, गुणग्राहक, निर्माण, चित्रगुप्त पूजन, अखबार, अंधमोह, सहिष्णुता इत्यादि कथाओं में भावों का आरोपण विस्मित करता है। यहाँ विभिन्न स्तरों पर कथ्य की अभिव्यंजना हुई है। शब्दों की विशिष्ट प्रयुक्ति से अभिप्रेत को बड़ी सघनता में उतारा गया है। इस संग्रह में कथाकार द्वारा अपने विशिष्ट कथ्य प्रयोजनों की सिद्धि हुई है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं ने भी एक नया आयाम गढ़ा है।
लघुकथा 'शेष है' सकारात्मक भाव में एक जीवन्त रचना की प्रस्तुति है। यहाँ आपने 'कुछ अच्छा भी होता है, भले उसकी संख्या कम है' को बहुत सुन्दर कथ्य दिया है। 'समाज का प्रायश्चित्य' में समर्थ को दोष नहीं लगता है यानि उनके लिए नियमों को ताक पर रखा जा सकता है, को कथा-रूप में ढाला गया है। 'क्या खाप पंचायत इस स्वागत के बाद अपने नियम में बदलाव करेगी ? शायद नहीं!' बहुत ही बढ़िया कथ्य उभरकर आया है इस कथा में। गम्भीर और नूतन विषय चयन है। 'फल' में 'अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है, उजाला होता नहीं ,करना पड़ता है' सनातन सत्य की सूक्ति रूप में अभिव्यक्ति है।
लघुतम रचनाओं में कथ्य का श्रेष्ठ-संतुलित संवहन देखते ही बनता है। ये लघुकथाएँ जीवन-सत्यों तथा सामाजिक-तथ्यों से पाठकों साक्षात्कार कराती है।
'वेदना का मूल' में मनुष्य की सब वेदना का मूल विभाजन जनित द्वेष को इंगित किया जाना चिंतन हेतु प्रेरित करता है। 'उलझी हुई डोर' में कथ्य की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। 'सम्मान की दृष्टि' शीर्षक लघुकथा अपने लिए सम्मान कमाना हमारे ही हाथ में है, यह सत्य प्रतिपादित करता है। लोग हमें कुछ भी समझे, लेकिन हमें स्वयं को पहले अपनी नजर में सम्मानित बनाना होगा। चिंतन के लिये प्रेरित कर मन को मनन-गुनन की ओर ले जाती हुई, शीर्षक को परिभाषित करती, बहुत ही सार्थक लघुकथा है यह।
'स्थानान्तरण' में दृश्यात्मक कथ्य खूबसूरत काव्यात्मकता के साथ विचारों का परिवर्तन दिखाई देता है। 'जैसे को तैसा' में पिता के अंधे प्यार के साये में संतान को गलत परवरिश देने की विसंगति चित्रित है। 'सफ़ेद झूठ' में सटीक कथ्य को ऊभारा है आपने। आपके द्वीरा रचित लघुकथायें अक्सर प्रजातंत्र व नीतियों पर सार्थक कटाक्ष कर स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करती है।
'चैन की सांस' में इंसानों के विविध रूप, सबकी अपनी-अपनी गाथा और चाह, भगवान भी किस-किसकी सुनें? उनको भी चैन से बाँसुरी बजाने के लिए समय चाहिए। एक नये कलेवर में, इस लघुकथा का अनुपम सौंदर्य है।
'भारतीय' लघुकथा में चंद शब्दों में कथ्य का महा-विस्तार चकित करता है। 'ताना-बाना' हास्य का पुट लिये भिन्न प्रकृति की रचना है जिसे सामान्य मान्यता के अनुसार लघुकथा नहीं भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयोग सिद्धहस्त सकती हैं।'संक्रांति' हमारी भारतीय संस्कृति की सुकोमल मिठास को अभिव्यक्ति देती एक बहुत ही खूबसूरत कथा है।
'चेतना शून्य' में दो नारी व्यक्तित्वों को उकेरा गया है, एक माँ है जो अंतर्मुखी है और उसी भाव से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ बेटी के परवरिश में अपने जीवन की आहुति देती है । यहाँ माँ से इतर बेटी का उन्मुक्त जीवन देख घरेलू माँ का चेतना शून्य होना स्वभाविक है । चंद पंक्तियों में यह स्त्री-विमर्श से जुड़ा हुआ बहुत बडा मुद्दा है। चिंतन-मनन के लिए परिदृश्य का वृहत विस्तार है। 'हवा का रुख' में 'सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख' को झकझोरता है। इस सकारात्मक कथा पाठकों को अभिभूत करती है। 'प्यार का संसार' में भाईचारे का ऐसा मार्मिक-जिवंत दृश्य है कि पाठक का मन भीतर तक भीग जाता है।
'अविश्वासी मन' में रुपयों का घर में और और सास पर शक करने को इतनी सहजता से आपने वर्णित किया है कि सच में अपने अविश्वासी मन पर ग्लानी होती है। 'अनुभूति' में आपने अंगदान की महत्ता दर्शाता कथ्य दिया है।
'कल का छोकरा' में बच्चे की संवेदनशीलता वर्णित है। बच्चे जिन पर यकीन करने में हम बड़े अकारण हिचकिचाते है, को सकारात्मक सन्देश के साथ शब्दित किया गया है।
निष्कर्षतः, 'आदमी ज़िंदा है' की लघुकथाओं में संकेत व अभिव्यंजनाओं के सहारे गहरा व्यंग्य छिपा मिलता है जिसका प्रहार बहुत तीखा होता है। सार्थकता से परिपूर्ण सलिल जी की इन लघुकथाओं में मैंने हरिशंकर परसाई खलील जिब्रान, मंटो, कन्हैया लाल मिश्र, हरिशंकर प्रसाद, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ तथा जयशंकर प्रसाद की लघुकथाओं की तरह दार्शनिक व यथार्थवादी छवि को आभासित पाया है। बुन्देली-माटी की सौंधी खुशबू रचनाओं में अपनत्व की तरावट को घोलती है। सलिल जी के इस लघुकथा संग्रह में वर्तमान समाज की धड़कनें स्पंदित हैं। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस लघुकथा संग्रह पूर्ण अपनत्व के साथ स्वागत होगा तथा सलिल जी भविष्य में भी लघुकथा विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
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पुरोवाक-
कथा : उद्भव और विकास
कथा क्या है?
कथा : उद्भव और विकास
कथा क्या है?
कथा मनुष्य जीवन के अनुभवों और विचारों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का आख्यानात्मक संवाद, बोल-चाल या कथ्य है, जो मौखिक या वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित हुए हैं। प्रकार विषयवस्तु, श्रोता वर्ग अथवा उद्देश्य के आधार पर पर हैं। जैसे आदिवासियों की कथाएँ, सृष्टि संबंधी कथाएँ, खेती की कथाएँ, पर्वों संबंधी कथाएँ, व्यक्ति (देव, असुर, राजा, नायक, सती, नायिका, रानी) परक कथाएँ, शिक्षाप्रद कथाएँ, बाल कथाएँ, विज्ञान कथाएँ, लोक कथाएँ, बोध कथाएँ, व्यंग्य कथाएँ, शौर्य कथाएँ, लघुकथाएँ आदि।
कुछ कथाएँ चिरकाल तक कही-सुनी जाने के पश्चात पुस्तकाकार रूप में प्रचलित हुई। जैसे सिंहासन बत्तीसी, वेताल पच्चीसी, पंचतंत्र, दास्ताने अलिफ़ लैला, किस्सा हातिमताई, अलीबाबा चालीस चोर, सिंदबाद की कहानी आदि।
भारत में कथाएँ
कथाओं का उत्स ऋग्वेद में कथोपकथन के माध्यम से कहे गए "संवाद-सूक्त", ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद आदि हैं किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा-कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पंचतंत्र की कई कथाएँ लोक-कथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। जितनी कथाएँ लोकजीवन में मिलती हैं उतनी पुस्तकों भी नहीं मिलतीं। विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित कुछ कथाओं को व्यवस्थित रूप से लिखकर पंचतंत्र रचा होगा। हितोपदेश, बृहदश्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन है। अत्यधिक प्राचीन जातक कथाओं की संख्या ५५० के लगभग है किंतु लोककथाएँ असंख्य हैं। प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रंथ हैं। पैशाची में लिखित "बहुकहा" के बाद कथा सरित्सागर, बृहत्कथा आदि का विकास हुआ। उसकी कुछ कथाएँ संस्कृत में रूपांतरित हुई। अपभ्रंश के "पउम चरिअ" और "भवियत्त कहा"तथा लिखित रूप में वैदिक संवाद सूक्तों में कथाधारा निरंतर प्रवाहित है किंतु इन सबका योग भी लोकजीवन में प्रचलित कहानियों तक नहीं पहुँच सकता।
मनुष्य चिरकाल से अमरत्व,सुख-समृद्धि तथा भोग है। सुख के दो प्रकार लौकिक व पारलौकिक हैं। भारतीय परंपरा लौकिक से पारलौकिक को श्रेष्ठ मानती है। "अंत भला तो सब भला" के अनुसार हमारी लोककथाएँ प्राय: सुखांत होती है। इसका प्रभाव चलचित्रों (फिल्मों) तथा धारावाहिकों में भी देखा जा सकता है। इसलिए लोककथाओं के नायक व अन्य पात्र अनेक साहसिक एवं रोमांचकारी कारनामे कर सुख-सफलता पाते हैं। संस्कृत नाटकों का भी अंत प्राय: संयोग में ही होता है।
कथाओं का विषय / कथ्य-
आदिवासियों की कथाएँ- इनमें आदिवासियों की उत्पत्ति, रीति-रिवाज़, जीवन संघर्ष आदि का समावेश मिलता है।
सृष्टि संबंधी कथाएँ- इन कथाओं में सृष्टि की उत्पत्ति, जीवों का विकास, मानव का जन्म और विकास, अन्य ग्रहों सम्बन्धी कथाएँ तथा प्रलय का वर्णन होता है।
खेती की कथाएँ- इस वर्ग की कथाओं में खेती-किसानी, ग्रामीण संस्कृति, मौसम, ऋतुचक्र आदि का वर्णन होता है।
पर्वों संबंधी कथाएँ- मानव सामान्यत: उत्सवधर्मी है। वह ऋतु परिवर्तन, फसल आगमन, जन्म, धार्मिक महत्त्व तिथियों, देव पूजन आदि को पर्व-त्यौहार मनाकर उससे जुडी जानकारी इन कथाओं में पिरोता है।
व्यक्ति (देव, असुर, राजा, नायक, सती, नायिका, रानी) परक कथाएँ- व्यक्तिपरक कथाओं में कथा नायक /नायिका के रूप, गुण, कार्यों, अवदान, मूल्यांकन आदि की चर्चा की जाती है।
शिक्षाप्रद कथाएँ- इन कथाओं की रचना बच्चों तथा अबोधों को ज्ञान देने, जीवनमूल्यों की सीख देने के लिये की जाती है।
बाल कथाएँ- बाल कथाओं का उद्देश्य बच्चों का मनोरंजन, ज्ञानवर्धन तथा बौद्धिक सामर्थ्य का विकास होता है।
विज्ञान कथाएँ- इन कथाओं में विज्ञान परक परिकल्पनाओं, भविष्य में संभावित अविष्कारों, भावी विकास, संकट तथा उसका निदान वर्णित होता है।
लोक कथाएँ- लोक जीवन तथा संस्कृति का वर्णन लोक कथाओं में सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की अलख जगाई जाती है। लोक मानस इनसे अभिन्न होता है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी कही-सुनी जाती हैं।
बोध कथाएँ- इन कथाओं का उद्देश्य रुचिपूर्ण भाषा में परोक्षत: जीवनमूल्यों का बोध कराना होता है।
शौर्य कथाएँ- इनमें पराक्रमी योद्धा, व्यापारी, शासक या दयालु डाकू आदि की कहानियाँ होती हैं।
व्यंग्य कथाएँ- समाज में व्याप्त युगीन सामायिक विसंगतियों और विडंबनाओं को पहचान कर उन्हें इंगित कर निराकरण का भाव उत्पन्न करना इन कथाओं का उद्देश्य होता है।
हास्य कथाएँ- इनका उद्देश्य श्रोताओं-पाठकों का मनोरंजन करना होता है। विविध समस्याओं के कारण तनाव से ग्रस्त मन के लिये कथाएँ औषधि कार्य करती हैं।
लघुकथाएँ- इन कथाओं का आकार छोटा किंतु मारक क्षमता प्रचुर होती है। इनमें मानव जीवन में व्याप्त विसंगतियों को इंगित किया जाता है।
धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा जातीय कथाएँ अपने नाम के अनुरूप कथ्य की प्रस्तुति करती हैं।
आधुनिक कथा साहित्य-
साहित्य सृजन की हर विधा क्रमशः विकसित होती है। आरंभ में कोई ध्यान नहीं देता, प्रकाशन तथा प्रसार
भी कठिनाई से हो पाता है। कुछ समय लगातार उसी विधा में लिखा जाए तो कुछ अन्य भी उस विधा में लिखने तथा कुछ पाठक / श्रोता प्रतिक्रिया देने लगते है। विधा की सशक्त रचनाओं के गुणों को पहचान कर समक्ष की जाती है तथा मानक निर्धारित होने लगते हैं। अगले दौर में इन्हीं मानकों का पालन करते हुए नयी पीढ़ी लिखती है। स्थान तथा पाठक दिनों-दिन बढ़ते हैं. विधा का क्रमशः विकास होता है।
तीसरे दौर में समय के साथ परिवेश और परिस्थितियाँ बदलतीं हैं, एक वर्ग मानकों को कडाई से मानना आवश्यक बताता है दूसरा वर्ग मानकों में लचीलापन चाहता है। आजकल लघुकथा और नवगीत दोनों इसी दौर में हैं।
आधुनिक लघुकथा-
आधुनिक हिंदी में
लघुकथा
का उद्भव लोक भाषाओँ के 'किस्सा', बांग्ला के 'गल्प', आंग्ल के 'सैटायर', 'शॉर्ट स्टोरी' तथा 'शॉर्ट फिक्शन' के सम्मिश्रण से हुआ
।
'किस्सा' ने इसमें कहे-सुने/पढ़े जाने का गुण अर्थात रोचकता दी, 'गल्प' ने इसे गप्प अर्थात कल्पनाशीलता दी
।
'सैटायर' ने व्यंग्यात्मक शैली अलंकृत किया
।
'शॉर्ट स्टोरी' ने कम शब्दों में अधिक मर्म अभिव्यक्त करने प्रवृत्ति पैदा की
तो '
शॉर्ट फिक्शन' ने कथ्य को प्रत्यक्षत: सीधे-सीधे न कहकर परोक्षतः इंगित से कहने का कौशल दिया
।
भारतीय लघ्वाकारी कथाओं में उदाहरण देकर (दृष्टांत कथा), परिणाम का भय दिखाकर ( बोध कथा), धर्म और रीति सहारा लेकर (नीति कथा) अपनी बात कहने का चलन था
।
आधुनिक हिंदी के जन्म और तत्काल बाद के कालखण्ड में पराधीनता से संघर्ष की प्रवृृत्ति उभार पर थी
।
शत्रु का शत्रु मित्र की नीति के अनुसार क्रांतिकारियों और परिवर्तनकामियों दोनों को अंग्रेजों के शत्रु साम्यवादी अपने मित्र प्रतीत हुए
।
इसी मुगालते में जापान के आत्मसमर्पण के बाद नेताजी सुभाषा चन्द्र बोस सहायता पाने के उद्देश्य से रूस गए और कैद कर लिये गये
।
विश्व में अप्रासंगिक होती साम्यवादी विचारधारा साहित्य के पिछले दरवाजे से शिक्षा संस्थानों में पैठ गयी
।
साहित्य में समीक्षा पर एकाधिकार कर विविध विधाओं में सृजन का लक्ष्य विसंगति और विडम्बना का शब्दांकन मात्र बताया गया, उसका निदान या समाधान वर्ज्य मान लिया गया
।
यहाँ तक कि उत्सव धर्मी भारतीय जन मानस का चित्रण करते समय उत्सवधर्मिता की अनदेखी कर रुदन, निराशा, आक्रोश और आव्हान को साध्य कहा गया
।
इस पृष्ठभूमि में लघुकथा भी विचारों में टकराव का वाहक बनी है
।
साम्यवादी चिंतन के पक्षधर
कहते हैं कि
लघुकथा में
विसंगति को इंगित करना ही पर्याप्त है, परिवर्तन के पक्षधर कहते हैं कि इससे उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ। बीमारी बताने के साथ इलाज का संकेत हो तो कोइ हर्ज़ नहीं।
यथास्थितिवादी
संवाद की मनाही करते हैं किन्तु परिवर्तनकामी संवा
दात्मक
लघुकथा लिखते हैं।
एक वर्ग कथाओं, दृष्टांत कथाओं और नीति कथाओं को अस्पर्श्य मानता है तो दूसरा आवश्यकतानुसार पारम्परिक शैली को अपनाने में दोष नहीं देखता
।
यही स्थिति बिम्ब, प्रतीकों और शब्द चयन को लेकर है
।
मेरा मत है कि
-
रचनाकार के नाते कथ्य की माँग के अनुसार रचना करना चाहिए। संवाद तथा समाधान न तो जबरदस्ती ठूँसना चाहिए, न ही उसके बहिष्कार की कसम खानी चाहिए। रचना अपने श्रेष्ठ
स्वाभाविक
रूप में हो तो पाठक
उसके मर्म को ग्रहणकर उसे
सराहता ही है।
समीक्षक परंपरावादी हुआ तो मानक से हटने को दोष कहेगा, उदारताप्रेमी हुआ तो उपयुक्त होने पर सराह सकता है। खास बात यह है कि रचना पाठक के लि
ये
लिखी जाती है, समीक्षक के लि
ये
नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि मानक या समीक्षक बेमानी हैं। सामान्यतः दोनों महत्वपूर्ण होते हैं किन्तु विशिष्ट स्थिति में कुछ
लचीलापन त्याज्य नहीं हो सकता
।
विधागत मानक किसी खाप आदेश, फतवे या तानाशाह के हुक्म की तरह अनुल्लंघनीय नहीं हो सकते, वे पारिवारिक जीवनमूल्यों की तरह लचीले होते हैं जिन्हें देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदल लिया जाता है ताकि मुख्य लक्ष्य
पारिवारिक तालमेल तथा सुख मिले
।
साहित्य समन्वयवादी होता है कट्टरतावादी नहीं।
लघुकथा में विषयवस्तु से अधिक महत्त्व प्रस्तुति का होता है. विषयवस्तु पहले से उपस्थित और पाठक को विदित होने पर भी उसकी प्रस्तुति की रीति ही पाठक को उद्वेलित करती है
। प्रस्तुति को विशिष्ट बनाती है लघुकथाकार की शैली और कथ्य का शिल्प। लघुकथा की रचना में शीर्षक भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। शीर्षक ही पाठक के मन में कौतूहल उत्पन्न करता है. शिल्प को प्लेटो ने संरचना, कथ्य और कार्य के चरित का योग (total of structure, meaning and character of the work as a whole) कहा है।
सामान्यतः लघुकथा विसंगति को पहचानती-इंगित करती है, उसका उपचार नहीं करती। समस्या का समाधान या निदान सुझाना लघुकथा का लक्ष्य या प्राथमिकता न होने पर भी यदि सहज संयोगवश समाधान अन्तर्निहित हो जाए तो वैशिष्ट्य ही कहा जाना चाहिए। कहानी के आवश्यक तत्व कथोपकथन, चरित्रचित्रण, पृष्भूमि आदि लघुकथा में आवश्यक नहीं होते।अनायास तथा कथ्य के लिये आवश्यक होने पर इनमें एक या एकाधिक तत्व का संकेत अग्राह्य नहीं माना जाना चाहिए। हिंदी की लघुकथा में अंग्रेजी की 'शॉर्ट स्टोरी' और 'सैटायर' के तत्व देखे जा सकते हैं किन्तु उसे 'कहानी का सार तत्व' नहीं कहा जा सकता। लघुकथा अपने आप में पूर्ण कहानी या घटनाक्रम है।
लघुकथा एक प्रयोगधर्मी विधा है किन्तु असामाजिक अनुभवों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं। लघुकथा किसी के उपहास या अपमान का माध्यम भी नहीं है। लघुकथा सामाजिक वैषम्य को इंगित कर उसके निदान की परोक्ष प्रेरणा जगाने की विधा है। लघुकथा में समाधान या निदान विस्तार से अपेक्षित किन्तु पूर्णतः अस्पृश्य भी नहीं है।
लघुकथा लेखन प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग
१. लघुकथा लेखन का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण कथानक या विषय का चयन है।
१. लघुकथा लेखन का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण कथानक या विषय का चयन है।
२. विषय चयन के पश्चात कारण या उद्देश्य का विनिश्चयन होना चाहिए।
३. कारण या उद्देश्य से पाठक को अवगत कराती है भाषा जो शब्दों व्यवस्थित समुच्चय होती है। लघुकथा के विषय, उद्देश्य तथा पाठक को ध्यान में रखकर शब्द-चयन किया जाना चाहिए। भाषा सरल, बोधगम्य, प्रवाहमयी, सरस तथा सारगर्भित हो। अनावश्यक विस्तार, कठिन शब्द, विशद वर्णन तथा पाण्डित्यपूर्ण शैली लघुकथा हेतु अनुपयुक्त है।
४. लघुकथा सामान्यत: एक घटना या एकल क्रिया-कलाप पर आधारित होती है। इसमें घटनाक्रम या घटनाओं की आवृत्ति नहीं होती तथापि वर्ण्य घटना की प्रस्तुति हेतु अपरिहार्य होने पर पूर्व घटना या परिस्थिति का संक्षिप्त संकेतन स्वीकार्य हो सकता है।
५. लघुकथा में पात्र परिचय या चरित्र चित्रण का स्थान नहीं होता। आवश्यक होने पर घटना के वर्णन के साथ ही विशेषण शब्दों से पात्रों के व्यक्तित्व आदि का संकेतन हो सकता है।
६. लघुकथा में संवाद अपरिहार्य होने पर ही प्रयोग में लाने चाहिए। संवाद का प्रयोग लघुकथाकार से अधिक सजगता चाहता है। संवाद मर्मस्पर्शी, छोटे से छोटे, कम से कम, घटना, पात्र, काल खण्ड व परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए।
७. लघुकथा के आकार में कोई स्पष्ट नियम न तो है, न बनना संभव है। वास्तव में आकार कथ्य की माँग के अनुसार होता है। मैंने एक वाक्य से लेकर ३-४ पृष्ठ तक की लघुकथा देखी है। लघुकथाकार को अपनी बात कम से कम शब्दों में स्पष्टतः कहना चाहिए। इस दृष्टि से मंटो की कुछ लघुकथाएँ चर्चित रही हैं।
८. लघुकथा का अंत चौंकानेवाला, समाधान देनेवाला, अनुमान से परे, झकझोर देनेवाला, विचार के लिये प्रवृत्त करनेवाला, क्रियाशक्ति को प्रेरित करनेवाला हो सकता है। कहते हैं "अंत भला सो सब भला" या " आल वैल दैट एंड्स वैल"। पाठक पर लघुकथा का प्रभाव अंत ही डालता है।
९. अंग्रेजी में कहावत है "वैल बिगिन इज हाफ डन" अर्थात "शुभ आरंभ आधी सफलता"। पाठक लघुकथा पढ़ने या न पढ़ने का निर्णय शीर्षक पढ़ कर ही करता है। इसलिए शीर्षक संक्षिप्त, स्पष्ट, सहज समझ आनेवाला तथा कथ्य का संकेत करनेवाला हो।
शीर्षक का निर्धारण लघुकथा लेखन के बाद हो या शीर्षक तयकर लघुकथा लिखी जाए? यह आवश्यकता और अभ्यास पर निर्भर है। मैंने एक आयोजन के लिये एक दिन में १० निर्धारित शीर्षकों पर १५ लघुकथाएँ तक लिखी हैं। किसी घटना से उद्वेलित होने पर लघुकथा खुद को तत्काल लिखा लेती है, शीर्षक बाद में तय किया जाता है। सार यह कि लघुकथा घटना प्रधान, लघ्वाकारी, चुटीली भाषा शैली में, कथयनुरूप शिल्प में लिखी गयी विचारप्रधान कथात्मक रचना है जिसमें पाठक को प्रभावित करने की सामर्थ्य होती है।
प्रस्तुत संग्रह की रचनाएँ सामयिक देश-काल-परिस्थिति और घटनाओं के सन्दर्भ में लघुकथाकार के वैचारिक मन-मंथन का परिणाम हैं। एक भी लघुकथा, एक भी पाठक को अभीष्ट करने की दिशा में प्रेरित कर सके तो यह बालकोचित प्रयास सफल होगा। लघुकथाओं में जो भी अच्छा है उसका श्रेय घटनाओं और पात्रों को है जबकि जो भी न्यूनता या त्रुटियाँ हैं, वह लघुकथाकार के प्रमादवश हैं।
आभारी हूँ डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई का जिन्होंने अस्वस्थ्य और व्यस्त होने के बाद भी अविलम्ब 'दो शब्द' लिखकर अनुग्रहीेत किया।
धन्यवाद श्रीमती कांता चौधरी, भोपाल को जिन्होंने यत्र-तत्र बिखरी लघुकथाओं को संकलित करने, क्रमबद्ध रूप में ज़माने और उन्हें पढ़कर उन पर अपना मंतव्य उपलब्ध कराया है।
कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ उन चरित्रों, घटनाओं, प्रकाशक, आवरण रूपांकक मयंक वर्मा,पाठ्यशुद्धक तथा बाइंडर के प्रति जिन्होंने इस संकलन को यथासमय सुरुचिपूर्ण रूप देकर उपलब्ध कराया है।
जाने-अनजाने पाठक इन लघुकथाओं में अपने आपको और इन घटनाओं व पात्रों को अपने परिवेश में पा सकेंगे। इन लघुकथाओं के लेखन में मानक विधानों का कम और कथ्य का अधिक ध्यान रखा गया है।पाठकों और समीक्षकों के अभिमत सृजन-पथ पर बढ़ने में होंगे, उन सबका हार्दिक अभिवादन।
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