एक रचना
*
समझती है चतुर खुद को
नकचढ़ी लड़की
बिगड़ती बिन बात के भी
नासमझ लड़की।
.
छींकती है, खाँसती है
आंग्ल भाषा में
खुली आँखों पाल सपने
नवल आशा के
नहीं शृद्धा, तर्क की जय
बोलती हरदम
भड़कती है, अकड़ती है
नासमझ लड़की
.
जानती निज मोल वह
अभिमान करती है
जो न हों सहमत उन्हें
नादान कहती है
अंधविश्वासी बताती
बऊ-दद्दा को
लाँघ सीमा घुडकती है
नासमझ लड़की
.
देह दर्शन कराती है
कहे 'हूँ बिंदास'
रहे 'लिव इन' में बताती
दोस्ती है ख़ास
दोष जग को दे, न अपनी
त्रुटि कभी माने
पटाती पटकर किसे यह
नासमझ लड़की
*
पेट पाले बारबाला
इसे आये शर्म
खुद परोसे नग्नता कह
यही अभिनय-कर्म
'शो रहे जारी' बताती
ज़िंदगी का मर्म
बिखर फाँसी से लटकती
नासमझ लड़की
***
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