कुल पेज दृश्य

सोमवार, 23 मई 2016

doha salila

दोहा सलिला 
*
कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव 'साहित्य' 
भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य 
.
मन से मन सेतु बन, 'भाषा' गहती भाव
कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव 
.
भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर 
पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर 
.
किस सा कौन कहाँ-कहाँ, 'किस्सा'-किस्सागोई 
कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई 
.
कहने-सुनने योग्य ही, कहे 'कहानी' बात 
गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात 
.
कथ्य प्रधान 'कथा' कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य 
किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य 
व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह 
सावधान रहना 'सलिल', मत हो लापरवाह 
'गल्प' गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य 
मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य 
.
जब हो देना-पावना, नातों की सौगात 
ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात  
.
कहानी गोष्ठी, २२-५-२०१७ 
कान्हा रेस्टॉरेंट, जबलपुर, १९.३०

कोई टिप्पणी नहीं: