एक रचना
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मात्र मेला मत कहो
जनगण हुआ साकार है।
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'लोक' का है 'तंत्र' अद्भुत
पर्व, तिथि कब कौन सी है?
कब-कहाँ, किस तरह जाना-नहाना है?
बताता कोई नहीं पर
सूचना सब तक पहुँचती।
बुलाता कोई नहीं पर
कामना मन में पुलकती
चलें, डुबकी लगा लें
यह मुक्ति का त्यौहार है।
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'प्रजा' का है 'पर्व' पावन
सियासत को लगे भावन
कहीं पण्डे, कहीं झंडे- दुकाने हैं
टिकाता कोई नहीं पर
आस्था कब है अटकती?
बुझाता कोई नहीं पर
भावना मन में सुलगती
करें अर्पित, पुण्य पा लें
भक्ति का व्यापार है।
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'देश' का है 'चित्र' अनुपम
दृष्ट केवल एकता है।
भिन्नताएँ भुला, पग मिल साथ बढ़ते
भुनाता कोई नहीं पर
स्नेह के सिक्के खनकते।
स्नान क्षिप्रा-नर्मदा में
करे, मानें पाप धुलते
पान अमृत का करे
मन आस्था-आगार है।
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