एक रचना
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कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष
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पैर तले से भूमि छिन गयी,
हाथों में आकाश नहीं।
किसे बताऊँ?, कौन कर रहा
मेरा सत्यानाश नहीं?
मानव-हाथ छला जाकर नित
नोंच रहा खुद अपने केश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष।
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छाँह, फूल, पत्ते लकड़ी ले
कभी नहीं आभार किया।
जड़ें खोद मेरे जीवन का
स्वार्थ हेतु व्यापार किया।
मुझको जीने नहीं दिया,
खुद मानव भी कर सका न ऐश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष
*
मेरे आँसू की अनदेखी
करी, काट दी बोटी-बोटी।
निर्मम-निष्ठुर दानव बनकर
मानव जला सेंकता रोटी।
कोई नहीं अदालत जिसमें
'वृक्ष' करूँ मैं अर्जी पेश।
कहते बड़ा हमारा देश
किंतु न कोई आशा शेष।
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१६-५-२०१६
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