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बुधवार, 31 जुलाई 2013

paryavaran geet: apradhee -SANJIV

पर्यावरण गीत:
अपराधी संजीव
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हम तेरे अपराधी गंगा, हम तेरे अपराधी
ज्यों-ज्यों दवा कर रहे, त्यों-त्यों बढ़ती जाती व्याधी …
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बढ़ती है तादाद हमारी, बढ़ती रोज जरूरत,
मन मंदिर में पूज रहे हैं, तज आस्थाएँ मूरत।
सूरत अपनी करें विरूपित, चाहें सुधरे सूरत-
कथनी-करनी भिन्न, ज़िन्दगी यह कैसी आराधी…
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भू माता की छाती पर, दल दाल नहीं शर्माते,
वन काटें, गिरि खोद, पूर सर करनी पर इतराते।
भू डोले, नभ-वक्ष फटे, हम करते हैं अनदेखी-
निर्माणों का नाम, नाश की कला 'सलिल' ने साधी…
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बिजली गिरती अपनों पर, हम हाहाकार मचाते,
भुला कच्छ-केदार, प्रकृति से तोड़ रहे हैं नाते।
मानव हैं या दानव? सोचें, घटा तनिक आबादी-
घटा मुसीबत की हो पाए तभी गगन में आधी…
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