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सोमवार, 8 जुलाई 2013

navgeet: champa --sanjiv

नवगीत
चंपा
संजीव
*
​बढ़े सियासत के बबूल
सूखा है चम्पा सद्भावों का,
चलन गाँव में घुस आया है-
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*
पानी भरा टपरिया में,
रिसती तली गगरिया में.
बहू सो रही ए. सी. में-
खटती बऊ दुपहरिया में. 

शासन ने आदेश दिया है
मरुथल खातिर नावों का,​
चलन गाँव में घुस आया है
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*

जंग चरित्री-सरिया में,
बिल्डिंग तन गयी तरिया में.
जंगल जला, पहाड़ खुदे-
आग लगी है झिरिया में.​


​तन ने मन नीलाम किया
है ऊँचा भाव अभावों का,​
चलन गाँव में घुस आया है
शहरी जड़विहीन छाँवों का...
*

6 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बढ़िया.....

सादर
अनु

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta wrote:
> ढेर सराहना स्वीकारे !
>
> सादर,
> दीप्ति

Mahipal Tomar via yahoogroups.com ने कहा…

Mahipal Tomar

> ' सलिल ' जी आपकी कलम से निकला यह नवगीत मीठी बुन्देली ,चुटीले संदेश से सजा
> सार्थक सृजन ,हार्दिक बधाई ।
> सादर ,शुभेच्छु ,
> महिपाल

manjumahimab8@gmail.com ने कहा…

बहुत खूब सलिल जी,
सामायिक वातावरण पर तीखा कटाक्ष है.
'बढ़े सियासत के बबूल
सूखा है चम्पा सद्भावों का'
'तन ने मन नीलाम किया
है ऊँचा भाव अभावों का,​'
नवगीत में नव-विचार, बधाई स्वीकारें..
सादर
मंजु

indira pratap ने कहा…

आदरणीय संजीव जी ,
बढ़िया बुन्देल खंडी की रचना ,मुझे भी समझ में आ गई| सत्यता भी ख़ूब उभर कर सामने आई है| सराहना स्वीकार करें | इंदिरा

परमेश्वर फुंकवाल ने कहा…

परमेश्वर फुंकवाल

आत्मावलोकन करने को मजबूर करता गीत..