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सोमवार, 2 मई 2011

एक दूरलेखवार्ता (चैट): वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल' विषय: भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग

एक दूरलेखवार्ता (चैट):
वार्ताकार: नवीन चतुर्वेदी-संजीव 'सलिल'
विषय: हिंदी भाषा में अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग:
 
 
 
 
 
 
नवीन
नमस्कार
सुप्रभात 
सलिल:  नमन.
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं अधुनातन का हिस्सा हूँ.
बिना कहे जो कहा गया, वह सुना-अनसुना किस्सा हूँ..
- नवीन: वाह वाह 
सलिल: निवेदन आप तक पहुँच गया है.
नवीन: बिलकुल, मैंने भी एक निवेदन किया है आपसे.
सलिल: कौन सा?
नवीन: भाषा-व्याकरण में बंध के रहना मेरे लिए सच में बहुत ही कठिन है. मैंने आपको जी मेल पर मेसेज दिया था कल. नवगीत पर भी ये निवेदन कर चुका हूँ , ओबीओ, ठाले बैठे, समस्या पूर्ति और फेसबुक पर भी.
सलिल: कठिन को सरल करना ही तो नवीन होना है. 
नवीन: मैं खुले गगन का उन्मुक्त विहग हूँ, आचार्य जी!
सलिल: आप जैसा समर्थ रचनाकार भाषिक शब्दों, पिंगलीय लयात्मकता और व्याकरणिक अनुशासन को साध सकता है बशर्ते तीनों को समान महत्त्व दे. कम ही रचनाकार हैं जिनसे यह आशा है.उन्मुक्त तो भाव और विचार होता है, शिल्प के साथ नियम तो होते ही हैं.
नवीन: क्षमा चाहता हूँ आदरणीय. जहाँ तक मैं समझता हूँ, जिनके लिए हम लिख रहे हैं, उन्हें समझ जरुर आना चाहिए और साहित्यिक बंधनों की मूलभूत बातों का सम्मान अवश्य जरूरी होता है. हमें स्तर अलग-अलग कर लेने चाहिए. एक वो स्तर जहाँ आप जैसे विद्वानों से हमें सीखने को मिल सके और एक वो स्तर जहाँ नए लोगों को काव्य में रूचि जगाने का मौका मिल सके, नहीं तो बचे-खुचे भी भाग खड़े होंगे.
सलिल: आप शब्दों का भंडार रखते हुए भी उसमें से चुनते नहीं जो जब हाथ में आया रख देते हैं. गाड़ी के दोनों चकों में बराबर हवा जरूरी है. शिल्प में सख्ती और शब्द चयन में ढील क्यों? अर्थ तो पाद टिप्पणी में दिए जा सकते हैं. इससे शब्द का प्रसार और प्रचलन बढ़ता है और भाषा समृद्ध होती है.
अलग-अलग कर देंगे तो हम बच्चों से कैसे सीखेंगे? बच्चों के पास बदलते समय के अनेक शब्द हैं जो शब्द कोष में सम्मिलित किये जाने हैं. उन्हें अतीत में प्रयोग हुए शब्दों को भी समझना है, नहीं तो अब तक रचा गया सब व्यर्थ होगा.
नवीन: हमें दो अलग-अलग मंच रखने चाहिए. एक विद्वानों वाला मंच, एक नए बच्चों का मंच. दोनों को मिक्स नहीं करना चाहिए.विद्वत्ता की प्रतियोगिता देखने के लिए काफी लोग लालायित हैं.
सलिल: नहीं, विद्वान कोई नहीं है और हर कोई विद्वान् है. यह केवल आदत की बात है. जैसे अभी अपने 'मिक्स' शब्द का प्रयोग किया मैं 'मिलाना' लिखता. लगभग सभी पाठक दोनों शब्दों को जानते हैं. तत्सम और तद्भव शब्द वहीं प्रयोग हों जहाँ वे विशेष प्रभाव उत्पन्न करें अन्यथा वे भाषा को नकली और कमजोर बनाते हैं.
नवीन: मुझे लगता है, हमारे करीब 20 अग्रजों को एक जुट होकर एक अलग प्रतियोगिता [खास कर उनके लिए ही] शुरू करनी चाहिए. हम सब उससे प्रेरणा लेंगे और समझाने का प्रयास भी करेंगे.
सलिल: हम साधक हैं पहलवान नहीं. साधकों में कोई प्रतियोगिता नहीं होती. आप लड़ाने नहीं मिलाने की बात करें. मैं एक विद्यार्थी था, हूँ और सदा विद्यार्थी ही रहूँगा. सबसे कम जानता हूँ... नए रचनाकारों से बहुत कुछ सीखता हूँ. बात भाषा में समुचित शब्द होते हुए और रचनाकार को ज्ञात होते हुए भी अन्य भाषा के शब्द के उपयोग पर है. आरक्षण या जमातें नहीं चाहिए. सब एक हैं. सबको एक दूसरे को सहना, समझना और एक दूसरे से सीखना है.मतभेद हों मनभेद न हों.
नवीन: इसीलिए तो २० अग्रजों को मिलाने की बात कर रहा हूँ आदरणीय. इसकी लम्बे अरसे से ज़रूरत है .
मथुरा का चौबे हूँ, लिपि-पुती बातें करने को वरीयता नहीं देता, जो दिल में आता है- अधिकार के साथ अपने स्नेही अग्रजों से निवेदन कर देता हूँ. मनभेद की नौबत न आये इसीलिए आगे बढ़कर संवाद के मौके तलाश किये हैं.अब ऑफिस की तयारी करता हूँ .
सलिल: मुझे आवश्यक होने पर अन्य भाषा के शब्द लेने से परहेज़ नहीं है पर वह आवश्यक होने पर, जब भाषा में समुचित शब्द न हो तब या कथ्य की माँग पर... मात्र यह निवेदन है. शेष अपनी-अपनी पसंद है. रचनाकार की शैली उसे स्वयं ही तय करना है, समीक्षक मूल्यांकन मानकों के आधार पर ही करते हैं. अस्तु नमन...
नवीन: प्रणाम आदरणीय.
सलिल: सदा प्रसन्न रहिये.
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1 टिप्पणी:

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

मान्यवर आप तो चेट [आप के अनुसार दूरलेख] के बातों को भी ब्लॉग पर डाल देते हो| खैर, इसे पढ़ कर तसल्ली हुई कि मैं अनौपचारिक चर्चा के दौरान भी संतुलित और सार्थक बातें ही करता हूँ| अब तो आप से बातें करते वक्त ज़्यादा चौकन्ना रहना होगा|