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बुधवार, 11 मई 2011

रचना-प्रतिरचना: मैने दर्द कहा -- मैत्रेयी-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रतिरचना: मैत्रेयी-संजीव 'सलिल'

कभी-कभी कोइ रचना मन को छू जाती है और कलम उसी पृष्ठभूमि पर खुद-ब-खुद चल पड़ती है. ऐसी रचना को रचते हुए भी रचनाकार गौड़ हो जाता है. गत दिवस ई-कविता पर माननीया मैत्रेयी जी की एक रचना को पढ़कर खुद को न रोक सका और एक प्रतिराचना कलम ने प्रस्तुतु कर दी. आप भी रचना और प्रतिरचना दोनों का आनंद लें. प्रतिक्रिया देने के लिए रचना के अंत में टिप्पणी comment वाले चौखटे पर चटखा लगाइए. 

मूल रचना :
मैत्रयी
*
मैने दर्द कहा जब दिल का, तुमने कहा बधाई हो
तुम्हें सुकूँ मिलता है शायद,जब मेरी रुसवाई हो
अश्कों को लफ़्ज़ों में जब भी ढाला तब ही शेर हुये
ऐसा कहाँ हुआ,खुशियों ने कोई गज़ल सुनाई हो
तन्हाई के राही का तो सफ़र रहा है तन्हा ही
कोई साथ नहीं देता,चाहे अपनी परछाई हो
नावाकिफ़ रह गई रिवायत मुझसे गज़लों नज़्मों की
पर ऐसा भी नहीं इन्ही की खातिर कलम उठाई हो
और मान्य घनश्याम जी के कहे के बाद
लम्हा कोई मिलता भी तो कह देता अनुरूपा से
ख्वाहिश है बस पीर तुम्हारी चाची,मामी ताई हो.
*
वाह... वाह...
दिल को छू गयी आपकी यह रचना.
पेशे नज़र चंद सतरें-

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
गुप-चुप दर्द कहा जब दिल का, जगने कहा बधाई हो
साँसों के आंगन में दुःख संग सुख की भी पहुनाई हो..

छिपी वाह में आह, मिला सुख, दुःख की निष्ठुर छाया में.
अश्रु-बिंदु में श्याम सांवरे की छवि सदा समाई हो..

सुख-दुःख दोनों गीत-ग़ज़ल में धूप-छाँव सम साथ रहें.
नहीं एक बिन दूजा ज्यों दिल में धड़कन बस पाई हो..

कलम उठाते कहाँ कभी हम, खुद उठती चल जाती है.
भाव बिम्ब लय शब्द छंद ने, ज्यों बरखा बरसाई हो..

जब एकाकी हुए, तभी अंतर मुखरित हो बोल उठा-
दुनियादारी बहुत हुई अब खुद से आँख मिलाई हो..

माई को खो यही मनाता 'सलिल' दैव से रहो सदय
ममतामयी बहिन देना प्रभु, साथ एक भौजाई हो..

*** 



2 टिप्‍पणियां:

महेश चन्द्र द्विवेदी ने कहा…

अति सुन्दर भाव एवं अभिव्यक्ति, सलिल जी. बधाई.
नीरजा द्विवेदी भी बधाई कह रही हैं .
महेश चन्द्र द्विवेदी

sanjiv 'salil' ने कहा…

अहोभाग्य. पहली बार मेरी कोई रचना माननीया नीरजा जी को रुची... आशीष पाकर कृतकृत्य हुआ... कवि-कर्म सार्थक हो गया.