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शनिवार, 28 मई 2011

मुक्तिका: नहीं समझे -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
नहीं समझे
संजीव 'सलिल'
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..

कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..

सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..

कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे.. 

'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..

****************

2 टिप्‍पणियां:

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी,
मुक्तिका भी आपकी रचना-रत्नों का विशेष रत्न हैं ,
अंतिम मुक्तिका अति सुन्दर
साधुवाद !
कमल

- drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

- drdeepti25@yahoo.co.in

रुटीन से ज़रा हटकर टिप्पणी -

संजीव जी, पता है - आपके मिसरों में आये - दिल, भंवरे, दर्पण क्योंकर नहीं समझे. शायद वे जानते हैं कि 'दुनिया में समझदार की मौत है' इसलिए कई बार समझ कर भी नासमझ बने रहना अक्लमंदी होती है. (इसलिए ही वे नहीं समझे.. )

आपने उत्तम लिखा है ! ऐसा ही लिखते रहिए....!

शुभकामनाएँ,
दीप्ति