मुक्तिका:
सुबह को, शाम को, रातों को
संजीव 'सलिल'
*
सुबह को, शाम को, रातों को कैसे तू सुहाया है?
सितारे पूछते, सूरज ने गुर अपना छिपाया है..
जिसे देखो उसी ने ख्वाब निज हित का सजाया है.
गुलिस्तां को उजाड़ा, फर्श काँटों का बिछाया है..
तेरे घर में जले ईमान का हरदम दिया लेकिन-
मुझे फानूस दौलत के मिलें, सबने मनाया है..
न मन्दिर और न मस्जिद में तुझको मिल सकेगा वह.
उसे लेकर कटोरा राह में तूने बिठाया है..
वो चूहा पूछता है 'एक दाना भी नहीं जब तो-
बता इंसां रसोईघर में चूल्हा क्यों बनाया है?.
दिए सरकार ने पैसे मदरसे खूब बन जाएँ.
मगर अफसर औ' ठेकेदार ने बंगला बनाया है..
रहनुमा हैं गरीबों के मगर उड़ते जहाजों में.
जमूरों ने मदारी और मजमा बेच खाया है..
भ्रमर की, तितलियों की बात सुनते ही नहीं माली.
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है..
वो राधा हो या रज़िया हो, नहीं उसका सगा कोई.
हरेक अपने को उसने घूरते ही 'सलिल' पाया है.
'सलिल' पत्थर की छाती फाड़, हरने प्यास आया है -
इसे भी बेच पत्थर दिलों ने धंधा बनाया है.
सुबह को, शाम को, रातों को
संजीव 'सलिल'
*
सुबह को, शाम को, रातों को कैसे तू सुहाया है?
सितारे पूछते, सूरज ने गुर अपना छिपाया है..
जिसे देखो उसी ने ख्वाब निज हित का सजाया है.
गुलिस्तां को उजाड़ा, फर्श काँटों का बिछाया है..
तेरे घर में जले ईमान का हरदम दिया लेकिन-
मुझे फानूस दौलत के मिलें, सबने मनाया है..
न मन्दिर और न मस्जिद में तुझको मिल सकेगा वह.
उसे लेकर कटोरा राह में तूने बिठाया है..
वो चूहा पूछता है 'एक दाना भी नहीं जब तो-
बता इंसां रसोईघर में चूल्हा क्यों बनाया है?.
दिए सरकार ने पैसे मदरसे खूब बन जाएँ.
मगर अफसर औ' ठेकेदार ने बंगला बनाया है..
रहनुमा हैं गरीबों के मगर उड़ते जहाजों में.
जमूरों ने मदारी और मजमा बेच खाया है..
भ्रमर की, तितलियों की बात सुनते ही नहीं माली.
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है..
वो राधा हो या रज़िया हो, नहीं उसका सगा कोई.
हरेक अपने को उसने घूरते ही 'सलिल' पाया है.
'सलिल' पत्थर की छाती फाड़, हरने प्यास आया है -
इसे भी बेच पत्थर दिलों ने धंधा बनाया है.
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