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सोमवार, 2 मई 2011

मुक्तिका: मैं -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मैं
संजीव 'सलिल'
*
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..

क्षणभंगुरता मेरा लक्षण, लेकिन चिर स्थाई हूँ.
निराकार साकार हुआ मैं वस्तु बिम्ब परछाईं हूँ.

परे पराजय-जय के हूँ मैं, भिन्न-अभिन्न न यह भूलो.
जड़ें जमाये हुए ज़मीन में, मैं कहता नभ को छूलो..

मैं को खुद से अलग सिर्फ, तू ही तू दिखता रहा सदा. 
यह-वह केवल ध्यान हटाते, करता-मिलता रहा बदा..

क्या बतलाऊँ? किसे छिपाऊँ?, मेरा मैं भी नहीं यहाँ.
गैर न कोई, कोई न अपना, जोडूँ-छोडूँ किसे-कहाँ??

अब तब जब भी आँखें खोलीं, सब में रब मैं देख रहा.
फिर भी अपना और पराया, जाने क्यों मैं लेख रहा?

ढाई आखर जान न जानूँ, मैली कर्म चदरिया की.
मर्म धर्म का बिसर, बिसारीं राहें नर्म नगरिया की..

मातु वर्मदा, मातु शर्मदा, मातु नर्मदा 'मैं' हर लो.
तन-मन-प्राण परे जा उसको भज तज दूँ 'मैं' यह वर दो..

बिंदु सिंधु हो 'सलिल', इंदु का बिम्ब बसा हो निज मन में.
ममतामय मैया 'मैं' ले लो, 'सलिल' समेटो दामन में..
********

6 टिप्‍पणियां:

- chandawarkarsm@gmail.com ने कहा…

अति सुन्दर!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर

Arun kumar Pandey 'Abhinav' ने कहा…

pranaam achaarvar!
bahut sundar sashakt rachna !!

Saurabh Pandey ने कहा…

//क्या बतलाऊँ? किसे छिपाऊँ?, मेरा मैं भी नहीं यहाँ.
गैर न कोई, कोई न अपना, जोडूँ-छोडूँ किसे-कहाँ??//

इस ब्रह्म स्वरूप के सकल भान को मेरा नमन.

अधोलिखित विशिष्टद्वैत स्वरूप भारत नहीं तो और क्या है? यही स्व है, यही मैं है, यही स्व में स्थ हो पूर्ण स्वस्थ होते जाने का निर्मल उद्घोष. ..

//पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..//
आपके सद्विचारों से आप्लावित हुआ.. . सादर.

बेनामी ने कहा…

ऐसी रचनाओं के भाव और अर्थ को ग्रहण करनेवाले पाठक कम ही मिलते हैं. आप को साधुवाद.

sheesh Yadav ने कहा…

Ashish yadav 1
इस महान कृति की रचना आप ही कर सकते है आचार्य जी| आप को कोटिशः नमन|
आप की बात भी सही है की इन रचनाओं के अर्थ ग्रहण करने वाले कम है| सबसे बड़ी बात तो यह है की शब्दों की बहुत कमी है हम लोगो को| फिर भी अर्थ ग्रहण करने की कोशिह्स करते रहते है|

sanjiv 'salil' ने कहा…

आशीष जी!
वंदे मातरम.
इस रचना में ऐसे शब्द कम ही होंगे जिन्हें आप न जानते हों. साहित्य को गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ लेनेवाले कम हैं. नव पीढ़ी के सामने पुरातन की थाती को समझने, उसमें से सार-सार ग्रहण करने, अपने समय की अनुभूतियों और स्थितियों को जोड़ने और भावी पीढ़े एके लिए सरता रच जाने की चुनौती है. यह हर युग में होती है. कठिनाई इस शिक्षा पद्धति ने पैदा की है. पूर्व प्राथमिक से अंगरेजी के शिशु गीत याद करने और अतिथियों को सुनवाने की कुरीति ने बच्चों को हिंदी से दूर किया है. आगे विषयों की पढ़ाई के सामने भाषा गौड़ रह जाती है. यदि हिंदी का अनिवार्य प्रश्न पत्र न हो तो शायद युवा छात्र हिंदी बोल लिख भी न पायें. हम-आप जैसे सजग पाठक / कवि पढ़कर भी बहुत कुछ ग्रहण करते हैं. आपने रचना को समझा... सराहा... आभारी हूँ. संपर्क बना रहे.