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बुधवार, 18 मई 2011

मुक्तिका: अपना सपना --संजीव 'सलिल

मुक्तिका
अपना सपना
संजीव 'सलिल'
*
अपना सपना सबको सदा सुहाना लगता है.
धूप-छाँव का अच्छा आना-जाना लगता है..

भरे पेट मिष्ठान्न न भाता, मान बिना पकवान.
स्नेह सहित रूखी रोटी भी खाना लगता है..

करने काम चलो तो पथ में सौ बाधाएँ हैं.
काम न करना हो तो महज बहाना लगता है..

जिसको देखो उसको अपना दर्द लगे सच्चा.
दर्द दूसरों का बस एक फसाना लगता है..

शूल एक को चुभे, न पीड़ा सबको क्यों होती?
पूछ रहा जो वह जग को दीवाना लगता है..

पद-मद, स्वार्थों में डूबे मक्कारों का जमघट.
जनगण को पूरा संसद मयखाना लगता है..

निज घर में हो सती, पड़ोसी के घर में कुलटा
यह जीवन दर्शन सचमुच बेगाना लगता है..

ढाई आकार लिख-पढ़, रखकर ज्यों की त्यों चादर.
'सलिल' सभी को प्यारा, ठौर-ठिकाना लगता है.
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