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रविवार, 3 अप्रैल 2011

एक रचना: बिन तुम्हारे... संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                                

बिन तुम्हारे...

संजीव 'सलिल'

*

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

चहचहाते पखेरू पर डालता कोई न डेरा.



उषा की अरुणाई मोहे, द्वार पर कुंडी खटकती.

भरम मन का जानकर भी, दृष्टि राहों पर अटकती..



अनमने मन चाय की ले चाह जगकर नहीं जगना.

दूध का गंजी में फटना या उफन गिरना-बिखरना..



साथियों से बिना कारण उलझना, कुछ भूल जाना.

अकेले में गीत कोई पुराना फिर गुनगुनाना..



साँझ बोझिल पाँव, तन का श्रांत, मन का क्लांत होना.

याद के बागों में कुछ कलमें लगाना, बीज बोना..



विगत पल्लव के तले, इस आज को फिर-फिर भुलाना.

कान बजना, कभी खुद पर खुद लुभाना-मुस्कुराना..



बि​न तुम्हारे निशा का लगता अँधेरा क्यों घनेरा?

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

नव सम्वतसर-2068 की आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

shar_j_n ekavita ने कहा…

shar_j_n
ekavita

८:२१ अपराह्न (23 घंटों पहले)



आदरणीय आचार्य जी ,

बहुत सुन्दर लिखा है आपने!

ये कविता और जीवन का मिश्रण बहुत ही ख़ूबसूरत है.

आभार आपका !

सादर शार्दुला