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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

दिसंबर १३, मुक्तिका, सॉनेट, कामना, व्यंग्य लेख, माया, खाट, हाइकु, कपास, गीत, दोहा, भवानी प्रसाद तिवारी

सलिल सृजन दिसंबर १३
*
पूज्य पापाजी (भवानी प्रसाद तिवारी जी)के जन्म दिवस पर उन्हीं की काव्य पंक्तियों पर आधृत रचना उन्हें सादर समर्पित- तेरा तुझकोअर्पित क्या लागे मेरा?
तेरा तुझको अर्पण
एक लघु कण

'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
विनायक का पूत
रहता मुक्त ही
बँधता नहीं है।
सियासत-साहित्य की
गंगो-जमुन से
लोकहित की सुरसती का
किया संगम।
'प्राण धारा' ने
हमेशा 'प्राण पूजा'
'कथा-वार्ता' से किया
'उत्सर्ग' चंदन।
लोकसेवा, लोकहित
पल-पल समर्पित
लोक-नेता विरुद
जन ने किया वंदन।
निनादित जल
नर्मदा का, बहा तो
रुकता नहीं है।
'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
०००
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'
प्राण-मन में था
नर्मदा निनाद निर्मल
गूँजता अपार।
छायावादी शिल्प
यथार्थवादी गल्प
आत्मबोध नव विहान।
दार्शनिकता साध्य
सत्य-शिव आराध्य
मनोभाव निदान।
सहज-सरल स्वभाव
आम जन से निभाव
अडिग ज्यों चट्टान।
शिक्षा का सूर्य
तरुणाई का तूर्य
देश भक्ति धुआँधार।
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'

'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
परिस्थिति विपरीत में भी
सत्य निष्ठा और आस्था
कभी भी किंचित न खोई।
जागतिक संवेदनाएँ
काव्य-रचना में सुबिंबित
कथ्य-शैली है अनूठी।
उभरता सौंदर्य गति का
भावनाएँ करुण मिश्रित
नहीं उपमा चुनी जूठी।
प्रिय रहे सिद्धांत अपने
फिक्र सत्ता की नहीं की
सोच ठी मौलिक अनूठी।
समर्पण की फसल बोई
भाग ले सत्याग्रहों में
जेल की सलाख गोई।
'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
०००
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'
देश-हित सह कष्ट हँसकर
नित किए संघर्ष डटकर
धैर्य का घट नहीं रीता।
सात बरसों महापौरी
सहजता से-सरलता से
निभाई, पद-मद न व्यापा।
बने सांसद, मिली डी.लिट.,
पद्मश्री से हो अलंकृत
कभी खोया नहीं आपा।
दीन को थे बंधु जैसे
साथियों के पथ-प्रदर्शक
सर्वप्रिय थे जगत-पापा।
हार-जीतों में रहे सम
जन समर्थन मिला अनुपम
रही साथी हृदय गीता।
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'

'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
कथा कीर्ति की छा क्षितिज तक गई
पताका दिगंतित फहरा गई।
चमत्कार लक्षित हुआ उक्ति का नव
कथन में, कहन में रहा आम जन-रव।
नहीं रोक पाया कहीं पग कभी भव
निखरता रहा घोर विपदा में वैभव।
सनातन पुरातन रहा प्रिय हमेशा
नहीं रूढ़, चिंतन प्रगत और अभिनव।
निबंधित-प्रबंधित रुकी थक घड़ी
नियति मौन दुलरा, बुला ले गई।
'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
१३.१२.२०२४
०००
हाइकु कपास पर
कहे कपास
सह लो धूप-छाँव
न हो उदास।
खेत में उगी
पवन संग झूमी
माटी ने पाला।
जड़ें जमाईं
स्नेह सलिल पिया
सिर उठाया।
नीलाभ नभ
ओढ़ लिया आँचल
खिलखिलाई।
अठखेलियाँ
रवि रश्मियों संग
रोके न रुके।
चंद्र किरण
भरकर बाँहों में
नृत्य करती।
करे विद्रोह
न गंध, न भ्रमर
सिर उठाए।
सीखे सबक
विनत हुआ शीश
करे न सोग।
जैसी की तैसी
रखी श्वेत चादर
माँगे बिदाई।
धूप में नहीं
बाल हुए सफेद
करी तपस्या।
अकथनीय
अपनी व्यथा कथा
किससे कहे?
माली ने लूटी
जिंदगी की कमाई
बोली लगाई।
जिसने लिया
जी भरके धुना
छीने बिनौले।
ताना औ' बाना
बना बुने आदम
ढाँके बदन।
रंग दे कान्हा
अपने ही रंग में
बंधन छूटे।
हाय विधाता!
द्रोपदी पुकारती
चीर न घटे।
१३.१२.२४
०००
मुक्तिका
कर नियंत्रित कामनाएँ
हों निमंत्रित भावनाएँ
रब रखे महफूज सबको
मिटाकर सब यातनाएँ
कोशिशें अच्छी न हारें
खूब जूझें जीत जाएँ
स्नेह सुख सम्मान सम पा
खिलखिलाएँ सुत-सुताएँ
रहे निर्झर सा सलिल-मन
नेह नर्मद नित नहाएंँ
भोर अँगना में चिरैया
उतर फुदकें चहचहाएँ
साँस आखिर तक रहे दम
पसीना जमकर बहाएँ
१३.१२.२०२३
•••
सॉनेट
कामना
*
कामना हो साथ हर दम
काम ना छोड़े अधूरा
हाथ जो ले करे पूरा
कामनाएँ हों न कम
का मनाया?; का मिला है?
अनमना है; उन्मना है
क्यों इतै नाहक मुरझना?
का मना! तू कब खिला है?
काम ना- ना काम मोहे
काम ना हो तो परेशां
काम ना या काम चाहे?
भला कामी या अकामी?
बनो नामी या अनामी?
बूझता जो वही सामी
१३-१२-२२
जबलपुर, ७•०४
●●●
***
द्विपदियाँ
फ़िक्र वतन की नहीं तनिक, जुमलेबाजी का शौक
नेता को सत्ता प्यारी, जनहित से उन्हें न काम
*
कुर्सी पाकर रंग बदल, दें गिरगिट को भी मात
काम तमाम तमाम काम का, करते सुबहो-शाम
१३-१२-२०२०
***
मुक्तक
*
कुंज में पाखी कलरव करते हैं
गीत-गगन में नित उड़ान नव भरते हैं
स्नेह सलिल में अवगाहन कर हाथ मिला-
भाव-नर्मदा नहा तारते तरते हैं
*
मनोरमा है हिंदी भावी जगवाणी
सुशोभिता मम उर में शारद कल्याणी
लिपि-उच्चार अभिन्न, अनहद अक्षर है
शब्द ब्रह्म है, रस-गंगा संप्राणी है
*
जैन वही जो अमन-चैन जी-जीने दे
पिए आप संतोष सलिल नित, पीने दे
परिग्रह से हो मुक्त निरंतर बाँट सके-
तपकर सुमन सु-मन जग को रसभीने दे
*
उजाले देख नयना मूँदकर परमात्म दिख जाए नमन कर
तिमिर से प्रगट हो रवि-छवि निरख मन झूमकर गाए नमन कर
मुदित ऊषा, पुलक धरती, हुलस नभ हो रहा हर्षित चमन लख
'सलिल' छवि ले बसा उर में करे भव पार मिट जाए अमन कर
१२-१२-२०२०, ६.४५
***
व्यंग्य लेख::
माया महाठगिनी हम जानी
*
तथाकथित लोकतंत्र का राजनैतिक महापर्व संपन्न हुआ। सत्य नारायण कथा में जिस तरह सत्यनारायण को छोड़कर सब कुछ मिलता है, उसी तरह लोकतंत्र में लोक को छोड़कर सब कुछ प्राप्य है। यहाँ पल-पल 'लोक' का मान-मर्दन करने में निष्णात 'तंत्र की तूती बोलती है। कहा जाता है कि यह 'लोक का, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है लेकिन लोक का प्रतिनिधि 'लोक' नहीं 'दल' का बंधुआ मजदूर होता है। लोकतंत्र के मूल 'लोक मत' को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई मुहावरे की तरह जब-तब अपहृत और रेपित करना हर दल अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। ये दल राजनैतिक ही नहीं धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक भी हो सकते हैं। जो दल जितना अधिक दलदल मचने में माहिर होता है, उसे खबरिया जगत में उतनी ही अधिक जगह मिलती है।
हाँ, तो खबरिया जगत के अनुसार 'लोक' ने 'सेवक' चुन लिए हैं। 'लोक' ने न तो 'रिक्त स्थान की विज्ञप्ति प्रसारित की, न चीन्ह-चीन्ह कर विज्ञापन दिए, न करोड़ों रूपए आवेदन पत्रों के साथ बटोरे, न परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कर वारे-न्यारे किए, न साक्षात्कार में चयन के नाम पर कोमलांगियों के साथ शयन कक्ष को गुलजार किया, न किसी का चयन किया, न किसी को ख़ारिज किया और 'सेवक' चुन लिए। अब ये तथाकथित लोकसेवक-देशसेवक 'लोक' और 'देश' की छाती पर दाल दलते हुए, ऐश-आराम, सत्तारोहण, कमीशन, घपलों, घोटालों की पंचवर्षीय पटकथाएँ लिखेंगे। उनको राह दिखाएँगे खरबूजे को देखकर खरबूजे की तरह रंग बदलने में माहिर प्रशासनिक सेवा के धुरंधर, उनकी रक्षा करेंगा देश का 'सर्वाधिक सुसंगठित खाकी वर्दीधारी गुंडातंत्र (बकौल सर्वोच्च न्यायालय), उनका गुणगान करेगा तवायफ की तरह चंद टकों और सुविधाओं के बदले अस्मत का सौदा करनेवाला खबरॉय संसार और इस सबके बाद भी कोई जेपी या अन्ना सामने आ गया तो उसके आंदोलन को गैर कानूनी बताने में न चूकनेवाला काले कोटधारी बाहुबलियों का समूह।
'लोकतंत्र' को 'लोभतंत्र' में परिवर्तित करने की चिरकालिक प्रक्रिया में चारों स्तंभों में घनघोर स्पर्धा होती रहती है। इस स्पर्धा के प्रति समर्पण और निष्ठां इतनी है की यदि इसे ओलंपिक में सम्मिलित कर लिया जाए तो स्वर्णपदक तो क्या तीनों पदकों में एक भी हमारे सिवा किसी अन्य को मिल ही नहीं सकता। दुनिया के बड़े से बड़े देश के बजट से कहीं अधिक राशि तो हमारे देश में इस अघोषित व्यवसाय में लगी हुई है। लोकतंत्र के चार खंबे ही नहीं हमारे देश के सर्वस्व तीजी साधु-संत भी इस व्यवसाय को भगवदपूजन से अह्दिक महत्व देते हैं। तभी तो घंटो से पंक्तिबद्ध खड़े भक्त खड़े ही रह जाते हैं और पुजारी की अंटी गरम करनेवाले चाट मंगनी और पैट ब्याह से भाई अधिक तेजी से दर्शन कर बाहर पहुँच जाते हैं।
लोकतंत्र में असीम संभावनाएं होती है। इसे 'कोकतंत्र' में भी सहजता से बदला जाता रहा है। टिकिट लेने, काम करने, परीक्षा उत्तीर्ण करने, शोधोपाधि पाने, नियुक्ति पाने, चुनावी टिकिट लेने, मंत्री पद पाने, न्याय पाने या कर्ज लेने में कैसी भी अनियमितता या बाधा हो, बिस्तर गरम करते ही दूर हो जाती है। और तो और नवग्रहों की बाधा, देवताओं का कोप और किस्मत की मार भी पंडित, मुल्ला या पादरी के शयनागार को आबाद कर दूर की जा सकती है। जिस तरह आप के बदले कोई और जाप कर दे तो आपके संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही आप किसी और को भी इस गंगा में डुबकी लगाने भेज सकते हैं। देव लोक में तो एक ही इंद्र है पर इस नर लोक में जितने भी 'काम' करनेवाले हैं वे सब 'काम' करने के बदले 'काम' होने के पहले 'काम की आराधना कर भवसागर पार उतरने का कोी मौका नहीं गँवाते।धर्म हो या दर्शन दोनों में कामिनी के बिना काम नहीं बनता।
हमारी विरासत है कि पहले 'काम' को भस्म कर दो फिर विवाह कर 'काम' के उपासक बन जाओ या 'पहले काम' को साध लो फिर संत कहलाओं। कोई-कोई पुरुषोत्तम आश्रम और मजारों की छाया में माया से ममता करने का पुरुषार्थ करते हुए भी 'रमता जोगी, बहता पानी' की तरह संग रहते हुए भी निस्संग और दागित होते हुए भी बेदाग़ रहा आता है। एक कलिकाल समानता का युग है। यहाँ नर से नारी किसी भी प्रकार पीछे रहना नहीं चाहती। सर्वोच्च न्यायालय और कुछ करे न करे, ७० साल में राम मंदिर पर निर्णय न दे सके किन्तु 'लिव इन' और 'विवाहेतर संबंधों' पर फ़ौरन से पेश्तर फैसलाकुन होने में अतिदक्ष है।
'लोक' भी 'तंत्र' बिना रह नहीं सकता। 'काम' को कामख्या से जोड़े या काम सूत्र से, 'तंत्र' को व्यवस्था से जोड़े या 'मंत्र' से, कमल उठाए या पंजा दिखाए, कही एक को रोकने के लिए, कही दूसरे को साधने के लिए 'माया' की शरण लेना ही होती है, लाख निर्मोही बनने का दवा करो, सत्ता की चौखट पर 'ममता' के दामन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। 'लोभ' के रास्ते 'लोक' को 'तंत्र' के राह पर धकेलना हो या 'तंत्र' के द्वारा 'लोक' को रौंदना हो ममता और माया न तो साथ छोड़ती हैं, न कोई उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है। अति संभ्रांत, संपन्न और भद्र लोक जानता है कि उसका बस अपनों को अपने तक रोकने पर न चले तो वह औरों के अपनों को अपने तक पहुँचने की राह बनाने से क्यों चूके? हवन करते हाथ जले तो खुद को दोषी न मानकर सूर हो या कबीर कहते रहे हैं 'माया महाठगिनी हम जानी।'
१३-१२-२०१८
***
द्विपदी
भय की नाम-पट्टिका पर, लिख दें साहस का नाम.
कोशिश कभी न हारेगी, बाधा को दें पैगाम.
१३-१२-२०१७
***
मुक्तिका
*
मैं समय हूँ, सत्य बोलूँगा.
जो छिपा है राज खोलूँगा.
*
अनतुले अब तक रहे हैं जो
बिना हिचके उन्हें तोलूँगा.
*
कालिया है नाग काला धन
नाच फन पर नहीं डोलूँगा.
*
रूपए नकली हैं गरल उसको
मिटा, अमृत आज घोलूँगा
*
कमीशनखोरी न बच पाए
मिटाकर मैं हाथ धो लूँगा
*
क्यों अकेली रहे सच्चाई?
सत्य के मैं साथ हो लूँगा
*
ध्वजा भारत की उठाये मैं
हिन्द की जय 'सलिल' बोलूँगा
***
गीत
खाट खड़ी है
*
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा
है बिन पेंदी के लोटों का.
*
नकली नोट छपे थे जितने
पल भर में बेकार हो गए.
आम आदमी को डँसने से
पहले विषधर क्षार हो गए.
ऐसी हवा चली है यारो!
उतर गया है मुँह खोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
नाग कालिया काले धन का
बिन मारे बेमौत मर गया.
जला, बहा, फेंका घबराकर
जन-धन खाता कहीं भर गया.
करचोरो! हर दिन होना है
वार धर-पकड़ के सोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
बिना परिश्रम जोड़ लिया धन
रिश्वत और कमीशन खाकर
सेठों के हित साधे मिलकर
निज चुनाव हित चंदे पाकर
अब हर राज उजागर होगा
नेता-अफसर की ओटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
१३-१२-२०१६
***
नवगीत:
*
लेटा हूँ
मखमल गादी पर
लेकिन
नींद नहीं आती है
.
इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तनवाली बाई
देह सांवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन
खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है
मुझ जैसे
लक्ष्मी पुत्र को
बना भिखारी वह जाती है
.
उस करवट ने साफ़-सफाई
करनेवाली छवि दिखलाई
आहा! उलझी लट नागिन सी
नर्तित कटि ने नींद उड़ाई
कर ने झाड़ू जरा उठाई
धक-धक धड़कन
बढ़ जाती है
मुझ अफसर को
भुला अफसरी
अपना दास बना जाती है
.
चित सोया क्यों नींद उड़ाई?
ओ पाकीज़ा! तू क्यों आई?
राधे-राधे रास रचाने
प्रवचन में लीला करवाई
करदे अर्पित
सब कुछ
गुरु को
जो
वह शिष्या
मन भाती है
.
हुआ परेशां नींद गँवाई
जहँ बैठूँ तहँ थी मुस्काई
मलिन भिखारिन, युवा, किशोरी
कवयित्री, नेत्री तरुणाई
संसद में
चलभाष देखकर
आत्मा तृप्त न हो पाती है
मुझ नेता को
भुला सियासत
गले लगाना सिखलाती है
१३-१२-२०१४
***
गीत
क्षितिज-फलक पर...
*
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.
धरती कब धरती कुछ बोलो-
माँ खाती खुद मालपुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रमता जोगी, बहता पानी.
पवन विचरता कर मनमानी.
लगन अगन बन बाधाओं का
दहन करे अनछुआ-छुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
चित्र गुप्त ढाई आखर का,
आदि-अंत बिन अजरामर का.
तन पिंजरे से मुक्ति चाहता
रुके 'सलिल' मन-प्राण सुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
१३-१२-२०१२
***

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