भारतीय साहित्य में पर्यावरण
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प्रकृति ईश्वर का सर्वोत्तम उपहार और मनुष्य उसकी सर्वोत्तम रचना है। शास्त्रानुसार परमात्मा एकमात्र पुरुष और प्रकृति उसकी लीला सहचरी है। दोनों के मिल से ही जीव का जन्म होता है- 'जगन्माता च प्रकृति पुरुषश्च जगत्पिता'। मानव के तन का संगठन पाँच तत्वों से हुआ है और अंत में वह पंच तत्वों में ही विलीन भी हो जाता है।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
माटी में माटी मिले, आत्म अगेह विदेह।।
नागर सभ्यता के पूर्व मनुष्य ग्राम्य जीवन जीत हुआ प्रकृति के समीप था। एक ग्रामीण बाल सावन में होती घनघोर बारिश में चंदा पर खेती करने और सूरज पर खलिहान बनाने की कल्पना लोकगीत में करती है, आज से सदियों पूर्व उसे क्या पता था कि कभी मनुष्य उसकी कल्पना को साकार कर लेगा। लोक गीत की कुछ पंक्तियों का आनंद लें-
चंदा पे खेती करौं, सूरज पै करौं खरयान
जोबन के बदरा करौं, मोरे पिया बखर खों जांय
झमक झम लाग रही साहुन की
इन लोक गीतों में भगवान भी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। आदिवासियों के निंगा देव जो कालांतर में बड़ा देव, महादेव और शंकर हो गए, वनवासी बैरागी हैं। वे नाग गले में लपेटे हैं, वृषभ की सवारी करते हैं।
भवानी को प्रसन्न करने के लिए भगतें गाने का रिवाज बुंदेलखंड में चिर काल से है। भगतें गाते समय वाद्य यंत्रों का प्रयोग वर्जित होता है। एक भगत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
मोरी मैया पत रखियों बारे जन की
मैया के मठ में चम्पो घनेरों, वास भई फुलवन की
मैया के मठ में गौएँ घनेरी, वास भई लरकन की
मैया के मठ में बहुएँ भौत हैं, वास भई लरकन की
मैया के मठ में घाम लगी है हैं, वास भई घी-गुर की
अयोध्या में राम लला और लखन लाल महलों में नहीं, वृक्ष की छाँव में थकान उतारते हैं-
नगर अजुध्या की गैल में इक महुआ इक आम
जे तरे बैठे दो जनें, इक लछमन दूजे राम
गोकुल के कान्हा और राधा का प्रकृति के साथ पल-पल का साथ है। गौ चराने, गोवर्धन उठाने, रास रचाने, कालिया वधकर जल प्रदूषण मिटाने आदि सभी प्रसंग पर्यावरण चेतना से परिपूर्ण हैं। लोकगीतों में इस चेतन के दर्शन कीजिए-
गिरधारी तोर बारो गिर नै परै
एक हात हरि मुकुट सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े
एक हात हरि खौर सँवारे, एक हात पर्बत लंय ठाँड़े
मानव प्रकृति की क्रोड़ में जन्मता, सहवास लेता, अन्न-जल का पान करता हुई अंत में उसे में विलीन हो जाता है। गो. तुलसी दास लिखते हैं-
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा।। - राम चरित मानस
चेतना, मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं। मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है किंतु मानव द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण के विनाश से हमें भविष्य की चिंता सताने लगी है। हमारे प्राचीन वेदों (ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद एवं अथर्ववेद) में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। वेदों में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। 'अथर्ववेद' के एक श्लोक 'पृथ्वी सूक्त' में वर्णित है कि 'पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ'। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के कई घटकों जैसे वृक्षों को पूज्य माना जाता है. पीपल के वृक्ष को पवित्र माना जाता है. वट के वृक्ष की भी पूजा होती है. जल, वायु, अग्नि को भी देव मानकर उनकी पूजा की जाती है। शकुंतला खरे द्वारा संपादित गारी संग्रह सुहानों लागे अँगना में संकलित 'बारहमासी' इस लोकगीत में मनुष्य और प्रकृति का नैकट्य देखिए-
लगे अगहन पूस मास / पिया प्यारे की आस
देख देख भई उदास / माघ मास जाड़ों में नींद नहीं आई / मैं कैसी करूँ भाई
आई फागुन की बहार / नहीं आए पिया भरतार
सौत रंग खेलें रंग भार / चिंता भई, अकती बैसकहें आई / मैं कैसी करूँ भाई
जेठ गर्मी न भाए / उतै अषढ़ा लग जाए
झेली गर्मी न जाए / सावन के झूले पै छा रही पुरवाई / मैं कैसी करूँ भाई
दिए भादों हमें भुलाए / क्वांर कुआंरा हमें न भाए
पिया कार्तिक गए न आए / कहें बाथम-मलखान खुशी लौंद में मनाई / मैं कैसी करूँ भाई
भोजपुरी गारी गीतों में पर्यावरण और प्रकृति का रसमय चित्रण अद्भुत है। हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' द्वारा संपादित लोकगंधी भोजपुरी के संस्कार गीत में विरहिणी बदल में छिपे चंदा को देखकर आह भरती है-
चंदा छीपी गइल / चंदा छीपी गइल / कारी बदरिया में
रोवेला कवन / मरदा धुनेला कपार / चंदा छीपी गइल
एक और चित्रण देखिए-
राजा जी के बाग में / छयल जी के बाग में
ए मोर लाल फुलवा/ एगो फुलेला गुलाब
लोक साहित्य में जीवन की हर परिस्थिति का चित्रण है। पर्यावरण को सजग दृष्टि से निहारते हुए छत्तीसगढ़ की युवतियों द्वारा धान कूटते समय गाया जानेवाला एक लोक गीत की कुछ पंक्तियाँ डॉ. अनीता शुक्ला की कृति 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन से प्रस्तुत है-
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म / सूपा ऊपर नाचे लछममी छुम्म-छुम्म
कोंढ़ा कनकी भूँसा चाँउर जममो ला निमारय
कुकुरा बासत लीपय-पोतय घर-अँगना सँवारय
बेर ऊवत तरिया जावय करय रपज असनान
पीपर तेरी देवता पूजय, मन मा धरम के धियान
गधरी ऊपर कलसा बोहय रेंगय झुम्मा-झुम्म
अधरतिया ढेंकी बाजय भुकुड़ धुम्म
प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े पर्व त्योहारों में कजलिया, भजलिया या भोजली का अपना स्थान है। यह पर्व उत्पादक गाँवों और भोक्ता नगरों के मध्य सामाजिक संवेदना सेतु का निर्माण करता है। खेद है कि शासन-प्रशासन इं लोक पर्वों की अनदेखी और उपेक्षा कर रहे हैं जिस कारण ये लुप्त होते जा रहे हैं। एक भोजली गीत का रस लें-
रेवा मैया! हो रेवा मैया!! लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा
तूँहरों लहर म भोजली, भींजे आठों अंगा / अ sss हो रेवा मैया
आए ल पूरा बोहाय ल मलगी, बोहाय ल मलगी
हमरो भोजली दाई के सोने-सोने के कलगी / अ sss हो रेवा मैया
लोक चेतना में प्राण फूंकता है प्रकृति का संसर्ग। एक अवधी फाग में प्रकृति का मनोरम चित्रण देखिए आद्या प्रसाद सिंह 'प्रदीप की पुस्तक 'लोक स्वर' से-
अमवन मा भँवर भुलाने, खेत पियराने
आजु वसंत नवेली नागरि जिय धीरे धीरे सयाने
मादक मदिर सुगंध सुहावनि आवति अपने मनमाने
फूल माल गरवा महँ डारति आरति भाउ लुभाने
रसुक हृदय रस-रस होइ भीजत, रस में सब आजु भुलाने
कोइलि केलि करत डरिया पइ, पपिहा पिउ रागि भुलाने
करवन तरु मँह मँह मँहकारति खोलत रस प्रीति पुराने
आदिकालीन कवि विद्यापति की रचित पदावली प्रकृति वर्णन की दृष्टि से अद्वितीय है-
मौली रसाल मुकुल भेल ताब समुखहिं कोकिल पंचम गाय।
भक्तिकालीन कवियों में कबीर सूर तुलसी जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थलों पर रहस्यात्मक- वर्णन हुआ है। तुलसी ने रामचरितमानस में सीता और लक्ष्मण को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है -
तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुँ सीता कहुँ लखन लगाए
रीतिकालीन कवियों में बिहारी, पद्माकर, देव, सेनापति ने प्रकृति में सौंदर्य को देखा-परखा है। बिहारी के एक दोहे का लालित्य देखिए-
चुवत स्वेद मकरंद कन, तरु तरु तरु विरमाय।
आवत दक्षिण देश ते, थक्यों बटोही बाय।।
आधुनिक काल में प्रकृति के सौंदर्य का उपादान क्रूर दृष्टि का शिकार होना प्रारंभ हो जाता है मैथिलीशरण गुप्त कृत पंचवटी में चंद्र ज्योत्सना में रात्रि कालीन बेला की प्राकृतिक छटा का मोहक वर्णन है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।।
पुलक प्रगट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तृ भी एमएनएस पवन क्व झोंकों से।।
छायावादी काव्य के चारों चितेरों प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी के काव्य में में प्रकृति का सूक्ष्म और उत्कट और पर्यावरण चेतना यत्र-तत्र पाई जाती है। महाकवि ने प्रकृति को ही सौंदर्य और सौंदर्य को ही प्रकृति माना है। कामायनी का पहला पद पर्यावरण और मनुष्य की सन्निकटता का उत्कृष्ट उदाहरण है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।।
प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध कौसानी निवासी, प्रकृति का सुकुमार कवि कहे गए पंत कहते हैं-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन
निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका बादल के समान गम्भीर और विद्रोही व्यक्तित्व उनके प्रकृति वर्णन में भली-भाँति निखरा है। निराला प्रारम्भ से ही प्रकृति वर्णन के गीत लिखते रहे और परवर्ती कल में भी यह धारा अबाध गति से प्रवाहित होती रही। फूलों पर आधारित उनकी कविता 'जूही की कली' एक प्रभावोत्पादक रचना है। इसमे जूही की कली नायिका और मलयानिल नायक के रूप में चित्रित है। इसमें वर्णित प्रकृति का नवीन रूपक आश्चर्यचकित करता है निद्रामग्न नायिका के रूप में जूही की कली का प्रकृति के माध्यम से मानवीकरण किया गया है -
विजन - वन - वल्लरी पर / सोती थी सुहाग -भरी -
स्नेह -स्वपन -मग्न -अमल -कोमल -तनु -तरुणी / जूही की कली।
महादेवी जी ने जड़ प्रकृति को चेतन रूप में प्रस्तुत किया है। बसंत की रजनी का मन मुग्ध करता चित्रण देखिए-
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी / तारकमय नव वेणी बंधन
शीश फूल शशि का कर नूतन / रश्मि वलय सित घन अवगुंठन
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे / चितवन से अपनी / पुलकती आ वसंत रजनी
महादेवी जी नायक-नायिका के प्रथम मिलन का चित्रण भी प्रकृति से जोड़कर करती हैं-
निशा को धो देता राकेश / चाँदनी में जब अलकें खोल
कली से कहता था मधु मास / बता दो मधु-मदिरा का मोल
प्रख्यात समीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' में लिखते हैं- 'यह धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ इसलिए मैं इसका सदैव सम्मान करता हूँ और इसके प्रति नतमस्तक हूँ।' आधुनिक समय में पर्यावरण विषय को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ लिखी जा रही हैं। बुंदेली के वरिष्ठ कवि पूरन चंद श्रीवास्तव लिखते हैं-
बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ
ढील ढाल हे धरौ धरी पर / पोंछों माथ पसीना
तपी दुपहरिया देह झाँवरी / कर्रो क्वांर महिना
भैंसें परीं डबरियन लोरें / नदी तीर गईं गइयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू / झपरे महुआ की छैयाँ
काशीनाथ सिंह की कहानी 'जंगल जातकम्' पर्यावरण संरक्षण की अच्छी कोशिश है। 'चिपको आंदोलन' के समय लिखी गई इस कहानी में लेखक ने संवेदनात्मक धरातल पर जंगल का मानवीकरण कर बरगद, बांस, पीपल आदि वृक्षों की भूमिका को दिशा दी है।
राजस्थानी कवि शिव मृदुल पर्यावरण चिंता को लेकर मुखर हैं-
रूख लगाया राख्या कोणी / मीठा फल भी चाख्या कोणी
सवारथ री लै हाथ कुल्हाड़ी / काटण हुआ उतावला
बोलो किणरा काम सरावां । किणनै बोलां बावला
कुँवर कुसुमेश वृक्षों को भगवान का वरदान कहते हैं-
खुद पर न सही लेकिन पेड़ों पर भरोसा रख
नायाब जमीं पर ये भगवान का तोहफा रख
मन कि गरीबी में मुश्किल है बागवानी
गमले में मगर छोटा तुलसी का पौधा ही रख
पर्यावरण चिंतन के क्रम में प्रस्तुत है एक स्वरचित पर्यावरण गीत-
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
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खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
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किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
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कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
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नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
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पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
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अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
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पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
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मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
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