सलिल सृजन जून ३०
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भारत जीता विश्व कप,
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रोहित राहुल हार्दिक ने कर दिया कमाल।
विराट पंत जसप्रीत, चहल ने किया धमाल।।
अर्शदीप अक्षर संजू भी डटे रहे।
सिराज संग कुलदीप जड़ेजा अडिग रहे।।
सबने होकर एक तिरंगा फहराया।
सबसे ऊपर भारत का ध्वज फहराया।।
* क्षुद्र ग्रह (ऐस्टरॉइड) दिवस
क्षुद्रग्रह खगोलीय पिंड होते है जो ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते है। यह अपने आकार में ग्रहों से छोटे और उल्का पिंडों से बड़े होते हैं। खोजा जाने वाला पहला क्षुद्रग्रह, सेरेस, १८१९ में ग्यूसेप पियाज़ी द्वारा पाया गया था और इसे मूल रूप से एक नया ग्रह माना जाता था।
* १९०५ आइंस्टीन ने सापेक्षता सिद्धांत प्रकाशित किया।
३० जून, १९०५ को अल्बर्ट आइंस्टीन ने जर्मन भौतिकी पत्रिका एनालेन डेर फिजिक में "ज़ूर इलेक्ट्रोडायनामिक बेवेग्टर कोर्पर (चलती वस्तुओं के इलेक्ट्रोडायनामिक्स पर)" नामक एक पेपर प्रकाशित किया, जो उनके विशेष सापेक्षता के सिद्धांत को प्रस्तुत करता है। आइंस्टीन के इस अभूतपूर्व कार्य ने भौतिकी की नींव हिला दी।
स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में फेडरल पॉलिटेक्निक स्कूल में पढ़ने के बाद, आइंस्टीन ने १९०२ से १९०९ तक बर्न में स्विस पेटेंट कार्यालय में काम किया। उन्हें "तृतीय श्रेणी के तकनीकी विशेषज्ञ" के रूप में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे आविष्कारों की पेटेंट योग्यता की जाँच करते थे, संभवतः उनमें बजरी छाँटने की मशीन और मौसम संकेतक शामिल थे। अपने मित्र मिशेल बेसो को लिखे एक पत्र में, आइंस्टीन ने पेटेंट कार्यालय को " वह धर्मनिरपेक्ष मठ माना जहाँ मैंने अपने सबसे सुंदर विचारों को जन्म दिया ।"
इनमें से सबसे गहन विचार ९१०५ में एक के बाद एक लिखे गए पाँच सैद्धांतिक शोधपत्रों में उभरे, जिन्होंने 20 वीं सदी के वैज्ञानिक विचारों में क्रांति ला दी। इतिहासकारों ने बाद में इस अवधि को आइंस्टीन के एनस मिराबिलिस या "चमत्कार वर्ष" के रूप में संदर्भित किया। उनके पहले शोधपत्र में प्रकाश के कण सिद्धांत का वर्णन किया गया था, जिसके लिए उन्हें बाद में १९२१ में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। उनके दूसरे शोधपत्र ने आणविक आकार निर्धारित करने के लिए एक नई विधि बनाई, और उनके तीसरे शोधपत्र ने ब्राउनियन गति की जांच की, जिसमें द्रव में निलंबित कणों की गति के लिए गणितीय व्याख्या प्रस्तुत की गई।
आइंस्टीन का चौथा पेपर, जिसे अक्सर भौतिकी के क्षेत्र में प्रकाशित सबसे महत्वपूर्ण पेपरों में से एक माना जाता है, ने सापेक्षता के अपने विशेष सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जिसने ब्रह्मांड के लंबे समय से स्थापित विचारों को पलट दिया जो आइजैक न्यूटन द्वारा गति के नियमों को पेश करने के बाद से प्रचलित थे। न्यूटन ने लिखा, "समय, किसी भी बाहरी चीज़ से संबंध के बिना समान रूप से बहता है," जबकि अंतरिक्ष "हमेशा समान और अचल रहता है।" हालाँकि, आइंस्टीन के कट्टरपंथी सिद्धांत ने माना कि समय और स्थान निरपेक्ष नहीं हैं, बल्कि पर्यवेक्षक की गति के सापेक्ष हैं।
मान लीजिए कि दो पर्यवेक्षक हैं; एक ट्रेन की पटरी पर स्थिर खड़ा है, जबकि दूसरा ट्रेन के बीच में बैठकर एक समान गति से ट्रेन से यात्रा कर रहा है। यदि ट्रेन के दोनों छोर पर बिजली गिरती है, ठीक उसी समय जब ट्रेन का मध्य बिंदु स्थिर पर्यवेक्षक से गुजरता है, तो प्रत्येक बिजली के झटके से प्रकाश को पर्यवेक्षक तक पहुंचने में समान समय लगेगा। वह सही ढंग से मान लेगा कि बिजली के झटके एक साथ हुए थे। हालाँकि, ट्रेन यात्री घटनाओं को अलग तरह से देखेगा। प्रकाश की गति स्थिर रहने पर, पीछे से आने वाला प्रकाश सामने से आने वाले प्रकाश की तुलना में बाद में दिखाई देगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि पीछे से आने वाले प्रकाश को यात्री तक पहुँचने के लिए अधिक दूरी तय करनी पड़ती है क्योंकि वह पीछे से आने वाले बिजली के झटके से दूर जा रही थी और सामने से आने वाले बिजली के झटके की ओर जा रही थी। इसलिए, यात्री को लगेगा कि बिजली के दो झटके एक साथ नहीं हुए हैं, और यह सही भी होगा।
सितंबर में, आइंस्टीन ने विशेष सापेक्षता के गणितीय अन्वेषण के साथ पांचवां पेपर प्रकाशित किया: E=mc 2 , जिसमें ऊर्जा (E) द्रव्यमान (m) गुणा प्रकाश की गति (c) वर्ग ( 2 ) के बराबर है। दुनिया में सबसे प्रसिद्ध समीकरण यह माना गया कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं और एक ही चीज़ को मापने के अलग-अलग तरीके हैं। इस खोज के दूरगामी परिणाम हुए और इसने परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम के अंतिम विकास के लिए मंच तैयार किया, जिसमें आइंस्टीन की कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी। वास्तव में, शुरुआत में अमेरिका द्वारा परमाणु बम विकसित करने के समर्थक होने के बावजूद, आइंस्टीन ने उस समर्थन को पूरी तरह से त्याग दिया।
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सॉनेट
सरकार
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जाको ईंटा, बाको रोड़ो
आई बहुरिया, मैया बिसरी
जा पसरी, बा एड़ी घिस रई
पल मा पाला बदल ऐंठ रए
खाल ओढ़ लई रे गर्दभ की
धोबी के हो सेर रेंक रए
बारी बंदर के करतब की
मूँड़ मुड़ाओ, सीस झुकाओ
बदलो पाला, लै लो माला
राजा जी की जै-जै गाओ
करो रात-दिन गड़बड़झाला
मनमानी कर लो हर बार
जोड़-तोड़ कर, बन सरकार
३०-६-२०२२
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बुंदेली लोकगीत
काए टेरो
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काए टेरो?, मैया काए टेरो?
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दोरा की कुंडी बज रई खटखट
कौना पाहुना हेरो झटपट?
कौना लगा रओ पगफेरो?
काय टेरो?, मैया काए टेरो?...
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हांत पाँव मों तुरतई धुलाओ
भुज नें भेंटियो, दूरई बिठाओ
मों पै लेओ गमछा घेरो
काय टेरो?, मैया काए टेरो?
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बिन धोए सामान नें लइयो
बिन कारज बाहर नें जइयो
घरई डार रइओ डेरो
काए टेरो?, मैया काए टेरो
३०-६-२०२०
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दोहा सलिला
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नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत।
माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
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आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग।
जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
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अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह।
करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल।
विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
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जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर।
हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
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मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम।
देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन।
किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त।
निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
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चित्रकार वह; दृश्य वह, वही चित्र है मित्र।
जीव समझता स्वयं को, माया यही विचित्र।।
*
बिंब प्रदीपा ज्योति का, सलिल-धार में देख।
निज प्रकाश मत समझ रे!, चित्त तनिक सच लेख।।
३०.६.२०१८
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आज की कार्यशाला:
रचना-प्रतिरचना
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर-संजीव वर्मा सलिल जबलपुर
*
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
३०-६-२०१७
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प्रतिरचना:
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए।
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए।
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,
सिया-उमा, भोले- हनुमान संग विराजिए।
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा 'सलिल' सँग आ पंजीरी फाँकिये।
***
मुक्तक
मतभेदों की नींव पर खड़े कर मतैक्य के महल अगर हम
मनभेदों को भुला सकें तो घट जायेंगे निश्चय ही गम
मानव दुविधा में सुविधा की खोज करे, कुछ पाएगा ही
कुछ कोशिश करना ही होगी, फहराना ही है यदि परचम
*
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन लगा कि केवल सपना है
बारिश ठंडी ग्रीष्म न ठहरे, आए आकर चले गए-
सलिल तुम्हारा भाग्य न बदला, नाहक माला जपना है
***
गीत
तुलसी
*
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
सहिष्णुता का
पौधा सूखा
घर-घर तनातनी।
*
सदा सुहागन मुरझाई है
खुशियाँ दूर हुईं।
सम्बन्धों की नदियाँ सूखीं
या फिर पूर हुईं।
आसों-श्वासों में
आपस में
बातें नहीं बनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
जुही-चमेली पर
चंपा ने
क्या जादू फेरा।
मगरमस्त संग
'लिव इन' में
हैं कैद, कसा घेरा।
चार दिनों में
म्यारी टूटी
लकड़ी रही घुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
*
झुके न कोई तो कैसे
हो तालमेल मुमकिन।
बर्तन रहें खटकते फिर भी
गा-नाचें ता-धिन।
तृप्ति चाहते
प्यासों ने ध्वनि
कलकल नहीं सुनी।
तुलसी को
अपदस्थ कर गयी
आकर नागफनी।
***
पुस्तक सलिला-
'लोकल विद्वान' व्यंग्य का रोचक वितान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- लोकल विद्वान, व्यंग्य लेख संगर्ह, अशोक भाटिया, प्रथम संस्करण, ISBN ९७८-९३-८५९४२-१०-५, २०.५ से. मी. x १४ से. मी., पृष्ठ ९६, मूल्य ८०/-, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, व्यंग्यकार संपर्क बसेरा, सेक़्टर १३, करनाल १३२००१ चलभाष ९४१६११५२१००, ahsokbhatiahes@gmail.com]
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हिंदी गद्य के लोकप्रय विधाओं में व्यंग्य लेख प्रमुख है। व्यंञकार समसामयिक घटनाओं और समस्याओं की नब्ज़ पर हाथ रखकर उनके कारन और निदान की सीढ़ी चर्चा न कर इंगितों, व्यंगोक्तियों और वक्रोक्तियों के माध्यम से गुदगुदाने, चिकोटी काटने या तीखे व्यंग्य के तिलमिलाते हुए पाठक को चिंतन हेतु प्रेरित करता है। वह उपचार न कर, उपचार हेतु चेतना उत्पन्न करता है
हिंदी व्यंग्य लेखन को हाशिये से मुख्य धारा में लाने में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्री लाल शुक्ल आदि की परंपरा को समृद्ध करनेवाले वर्तमान व्यंग्यकारों में अशोक भाटिया उल्लेखनीय हैं। भाटिया जी हिंदी प्राध्यापक हैं इसलिए उनमें विधा के उद्भव, विकास तथा वर्तमान की चेतना और विकास के प्रति संवेदनशील दृष्टि है। स्पष्ट समझ उन्हें हास्य औेर व्यंग्य के मध्य बारीक सीमा रख का उल्लंघन नहीं करने देती। वे व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में चर्चित रहे हैं।
विवेच्य कृति लोकल विद्वान में २१ व्यंग्य लेख तथा १४ व्यंग्यात्मक लघुकथाएँ हैं। कुत्ता न हो पाने का दुःख में लोभवृत्ति, लोकल विद्वान में बुद्धिजीवियों के पाखण्ड, महान बनने के नुस्खे में आत्म प्रचार, चलते-चलते में प्रदर्शन वृत्ति , कुत्ता चिंतन सार में स्वार्थपरता, नेता और अभिनेता में राजनैतिक विद्रूप , साड़ीवाद में महिलाओं की सौंदर्यप्रियता, मेले का ग्रहण में मेलों की आड़ में होते कदाचार, असंतोष धन में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पारम्परिक मुहावरों के नए अर्थ, तेरा क्या होगा? में आचरण के दोमुंहेपन, निठल्ले के बोल में राजनैतिक नेता के मिथ्या प्रलाप, फाल करने का सुख में अंग्रेजी शब्द के प्रति मोह, विलास राम शामिल के कारनामे में साहित्यकारों के प्रपंचों, रबड़श्री भारतीय खेल दल में क्रीड़ा क्षेत्र व्याप्त विसंगतियों, किस्म-किस्म की समीक्षा में विषय पर विश्लेषणपरक विवेचन, इम्तहान एक सभ्य फ्राड में शिक्षा जगत की कमियों, साहित्य के ओवरसियर में लेखका का आत्ममोह, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर में धन-लोभ, पीड़ा हरण समारोह में साहित्य क्षेत्र में व्याप्त कुप्रवृत्तियों, नौ सौ चूहे बिल्ली और हज में राजनीति तथा नई प्रेम कथा में प्रेम के नाम पर हो रहे दुराचार पर अशोक जी ने कटाक्ष किये हैं।
इन व्यंग्य लेखों में प्रायः आकारगत संतुलन, वैचारिक मौलिकता, शैलीगत सहजता, वर्णनात्मक रोचकता और विषयगत है जो पाठक को बाँधे रखने के साथ सोचने के लिए प्रवृत्त करता है। अशोक जी विषयों का चयन सामान्य जन के परिवेश को देखकर करते हैं इसलिए पाठक की उनमें रूचि होना स्वाभाविक है। वे आम बोलचाल की भाषा के पक्षधर हैं, इसलिए अंग्रेजी-उर्दी के शब्दों का स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं।
लघु कथाओं में अशोक जी किसी न किसी मानवीय प्रवृत्ति के इर्द-गिर्द कथानक बुनते हुए गंभीर चुटकी लेते हैं। रोग और इलाज में नेताओं की बयानबाजी, क्या मथुरा क्या द्वारका में अफसर की बीबी की ठसक, सच्चा प्यार में नयी पीढ़ी में व्याप्त प्रेम-रोग, दोहरी समझ में वैचारिक प्रतिबद्धता के भाव, अच्छा घर में प्रच्छन्न दहेज़, वीटो में पति-पत्नी में अविश्वास, अंतहीन में बेसिर पैर की गुफ्तगू, साहब में अधिकारियों के काम न करने, दर्शन में स्वार्थ भाव से मंदिर जाने, एस एम एस में व्यक्तिगत संपर्क के स्थान पर संदेश भेजने, पहचान में आदमी को किसी न किसी आधार पर बाँटने तथा दान में स्वार्थपरता को केंद्र में रखकर अशोक जी ने पैने व्यंग्य किये हैं।
सम सामायिक पर सहज, सुबोध, रोचक शैली में तीखे व्यंग्य पाठक को चिंतन दृष्टि देने समर्थ हैं। अशोक जी की १२ पुस्तकें पूर्व प्रकाशित हैं। उनकी सूक्ष्म अवलोकन वृत्ति उन्हें दैनन्दिन जीवन के प्रसंगों पर नए कोण से देखने, सोचने और लिखने सक्षम बनाती है। इस व्यंग्य संग्रह का स्वागत होगा।
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***
मुक्तक
मतभेदों की नींव पर खड़े कर मतैक्य के महल अगर हम
मनभेदों को भुला सकें तो घट जायेंगे निश्चय ही गम
मानव दुविधा में सुविधा की खोज करे, कुछ पाएगा ही
कुछ कोशिश करना ही होगी, फहराना ही है यदि परचम
३०-६-२०१६
दो पदी
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन लगा कि केवल सपना है
३०-६-२०१५
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ॐ
छंद सलिला:
दण्डकला छंद
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत लघुगुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध।
लक्षण छंद: यति दण्डकला दस / आठ आठ छह / लघु गुरु सदैव / पदांत हो
जाति लाक्षणिक गिन / रखें हर पंक्ति / बत्तिस मात्रा / सुखांत हो
उदाहरण:
१. कल कल कल प्रवहित / नर्तित प्रमुदित / रेवा मैया / मन मोहे
निर्मल जलधारा / भय-दुःख हारा / शीतल छैयां / सम सोहे
कूदे पर्वत से / छप-छपाक् से / जलप्रपात रच / हँस नाचे
चुप मंथर गति बह / पीर-व्यथा दह / सत-शिव-सुंदर / नित बाँचे
२. जय जय छत्रसाल / योद्धा-मराल / शत वंदन नर / नाहर हे!
'बुन्देलखंडपति / यवननाथ अरि / अभिनन्दन असि / साधक हे
बल-वीर्य पराक्रम / विजय-वरण क्षम / दुश्मन नाशक / रण-जेता
थी जाती बाजी / लाकर बाजी / भव-सागर नौ/का खेता
३. संध्या मन मोहे / गाल गुलाबी / चाल शराबी / हिरणी सी
शशि देख झूमता / लपक चूमता / सिहर उठे वह / घरनी सी
कुण्डी खड़काये / ननद दुपहरी / सास निशा खों-/खों खांसे
देवर तारे ससु/र आसमां बह/ला मन फेंके / छिप पांसे
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
नवगीत
*
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
२४-९-२०१४
***
भोजपुरी हाइकु:
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आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
३०-६-२०१४
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