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सोमवार, 10 जनवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, हिंदी,

सॉनेट 
हिंदी
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जगवाणी हिंदी का वंदन, इसका वैभव अनुपम अक्षय।
हिंदी है कृषकों की भाषा, श्रमिकों को हिंदी प्यारी है। 
मध्यम वर्ग कॉंवेंटी है, रंग बदलता व्यापारी है।। 
जनवाणी, हैं तंत्र विरोधी, न्यायपालिका अंग्रेजीमय।। 

बच्चों से जब भी बतियाएँ, केवल हिंदी में बतियाएँ। 
अन्य बोलिओं-भाषाओँ को, सिखा-पढ़ाएँ साथ-साथ ही।  
ह्रदय-दिमाग न हिंदी भूले, हिंदी पुस्तक लिए हाथ भी।। 
हिंदी में प्रार्थना कराएँ, भजन-कीर्तन नित करवाएँ।।
 
शिक्षा का माध्यम हिंदी हो, हिंदी में हो काम-काज भी। 
क्यों अंग्रेजी के चारण हैं,  तनिक न आती हया-लाज भी। 
हिंदी है सहमी गौरैया, अंग्रेजी है निठुर बाज सी। 

शिवा कह रहे हैं शिव जी को, कैसे आए राम राज जी?
हो जब निज भाषा में शिक्षा, तभी सधेंगे, सभी काज जी।
देवनागरी में लिखिए हर भाषा, होगा तब सुराज जी।। 
***
सॉनेट 
जात को अपनी कभी मरने न दीजिए।
बात से फिरिए नहीं, तभी तो बात है।
ऐब को यह जिस्म-जां चरने न दीजिए।।
करें फरेब जीत मिले तो भी मात है।।

फायदा हो कायदे से तभी लीजिए। 
छीनिए मत और से, न छीनने ही दें।
वायदा टूटे नहीं हर जतन कीजिए।।
पंछियों को अन्न कभी बीनने भी दें।।

दुर्दशा लोगों की देखकर पसीजिए। 
तंत्र रौंद लोक को गर्रा रहा हुज़ूर।  
आईने में देख शकल नहीं रीझिए।।
लोग मरे जा रहे हैं; देखिए जरूर।।

सचाई से आखें कभी चार कीजिए।
औरों की सुन; तनिक ख़ुशी कभी दीजिए।। 
१०-१-२०२२ 
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नवगीत:
संजीव
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छोडो हाहाकार मियाँ!
.
दुनिया अपनी राह चलेगी
खुदको खुद ही रोज छ्लेगी
साया बनकर साथ चलेगी
छुरा पीठ में मार हँसेगी
आँख करो दो-चार मियाँ!
.
आगे आकर प्यार करेगी
फिर पीछे तकरार करेगी
कहे मिलन बिन झुलस मरेगी
जीत भरोसा हँसे-ठगेगी
करो न फिर भी रार मियाँ!
.
मंदिर में मस्जिद रच देगी
गिरजे को पल में तज देगी
लज्जा हया शरम बेचेगी
इंसां को बेघर कर देगी
पोंछो आँसू-धार मियाँ!
***
नवगीत:
.
रब की मर्ज़ी
डुबा नाखुदा
गीत गा रहा
.
किया करिश्मा कोशिश ने कब?
काम न आयी किस्मत, ना रब
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब
है खुदगर्ज़ी
बुला, ना बुला
मीत भा रहा
.
तदबीरों ने पाया धोखा
तकरीरों में मिला न चोखा
तस्वीरों का खाली खोखा
नाता फ़र्ज़ी
रहा, ना रहा
जीत जा रहा
.
बादल गरजा दिया न पानी
बिगड़ी लड़की राह भुलानी
बिजली तड़की गिरी हिरानी
अर्श फर्श को
मिला, ना मिला
रीत आ रहा
***
नवगीत:
संजीव
.
उम्मीदों की फसल
उगना बाकी है
.
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं?
मत मुगालता रखें जरूरी खाकी है
सत्ता साध्य नहीं है
केवल साकी है
.
जिसको नेता चुना उसीसे आशा है
लेकिन उसकी संगत तोला-माशा है
जनप्रतिनिधि की मर्यादा नापाकी है
किससे आशा करें
मलिन हर झाँकी है?
.
केंद्रीकरण न करें विकेन्द्रित हो सत्ता
सके फूल-फल धरती पर लत्ता-पत्ता
नदी-गाय-भू-भाषा माँ, आशा काकी है
आँख मिलाकर
तजना ताका-ताकी है
***
नवगीत:
संजीव
.
लोकतंत्र का
पंछी बेबस
.
नेता पहले डालें दाना
फिर लेते पर नोच
अफसर रिश्वत गोली मारें
करें न किंचित सोच
व्यापारी दे
नशा रहा डँस
.
आम आदमी खुद में उलझा
दे-लेता उत्कोच
न्यायपालिका अंधी-लूली
पैरों में है मोच
ठेकेदार-
दलालों को जस
.
राजनीति नफरत की मारी
लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूँगा खो दी
निज निर्णय की लोच
एकलव्य का
कहीं न वारिस
१०-१-२०१५

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