छंद की आधार भूमि काव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
परिचय: अन्यत्र पृष्ठ ३ पर
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छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
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शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
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