दोहा सलिला:
जान जान की जान है
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जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
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पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
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निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
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देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
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है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
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गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
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नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
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जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
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कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
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जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
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जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
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जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
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कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
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९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
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