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रविवार, 15 जुलाई 2018

सामयिक दोहे:

दोहा सलिला:
धरती का मंगल न कर
संजीव वर्मा 'सलिल'
इधर भुखमरी; पेट में 
लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे,
इतना पाया भाग.

खूं के आँसू रोय हम, 
वे ले लाल गुलाब.
कहते हुआ विकास अब,
हँस लो जरा जनाब.

धरती का मंगल न कर,
मंगल भेजें यान.
करें अमंगल लड़-झगड़ 
दंगल कर इंसान.


पत्ता-पत्ता चीखकर 
कहता: काट न वृक्ष.
निज पैरों पर कुल्हाड़ी 
चला रहे हम दक्ष.

टिप्पणियाँ

आवश्यकता से अधिक 
पा न कहें: पर्याप्त
जो वे दनुज, मनुज नहीं 
सत्य वचन है आप्त
सादा जीवन अब नहीं
रहा हमारा साध्य.
उच्च विचार न रुच रहे 
स्वार्थ कर रहा बाध्य.

पौध लगा मत; पेड़ जो 
काट सके तो काट.
मानव कर ले तू खड़ी
खुद ही अपनी खाट.
दूब नहीं असली बची,
नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही,
धरती से इंसान.
नाले सँकरे कर दिए,
जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी,
खाक उगेगी दूब.
चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी,
बाँटें अंधे रोज.
देते सिर्फ अपात्र को,
क्यों इसकी हो खोज.
नित्य नई कर घोषणा,
जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा,
सकता तंत्र अभाव.
नहीं पेंशनर को मिले,
सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो,
पीड़ा से अनजान.
गगरी कहीं उलट रहे,
कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम,
बादल करें प्रमाद.
मन में क्या है!; क्यों कहें?,
आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें.
पता नहीं श्रीमान
    झलक दिखा बादल गए,
    दूर क्षितिज के पार.
    जैसे अच्छे दिन हमें ,
    दिखा रही सरकार.

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