२५. विवाह गीतों में छंद वैविध्य
पुष्पा सक्सेना-सविता वर्मा 'गजल'
*
संपर्क: पुष्पासक्सेना, द्वारा डॉ, ओ. पी, सक्सेना, साकेत नगर ग्वालियर।
सविता वर्मा "ग़ज़ल" संपर्क: 230,कृष्णापुरी मुजफ़्फ़र नगर २५१००१ उ. प्र. चलभाष: ०८७५५३१५५५।
*
हमारी सभ्यता और संस्कृति प्रथाओं-लोक नृत्यों, परंपराओं और परंपरागत विश्वासों और लोक गीतों में रची-बसी है। मानव समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान उसकी प्रथाओं, लोक-विधाओं और गीतों से सहज ही लगाया जा सकता है। जन-समुदायों में जी रही अमूर्त संस्कृति महान संपदा है, जिसकी झलक उनके त्यौहारों और उत्सवों सबंधी गीतों में है। पौराणिक और परंपरागत कथाओं से गुँथे हुए भारतीय लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते हैं। ये लोकगीत सुख-दु:ख, ऐतिहासिक घटनाओं व पौराणिक कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है। उत्तर-प्रदेश मॆं लोकगीत प्रत्येक मौसम मॆं आने वाले तीज-त्योहारों जैसे सावन , होली, दीवाली, दशहरा और रक्षाबंधन आदि पर गाए जाते हैं। ग्रामीण अँँचल मॆं नृत्य भी लोकगीतों पर ही किया जाता है। कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ व्यक्ति भी इनकी सादगी, भोलेपन और माधुर्य को समझ सकता है। इन लोकगीतों के माध्यम से भावी पीढ़ी अपनी लोक संस्कृति से भली-भाँति परिचित हो कर एकता भाव से जुडी रह सकती है। लोकगीतों में सामान्यत: अनपढ़ अथवा अल्प शिक्षित लोक मानस अपनी भावाभिव्यक्ति कर मन की बात कह पाता है। ये लोकगीत मन की कुंठाओं और आक्रोश की अभिव्यक्ति हास्य-व्यंग्य की आड़ में अभिव्यक्त कर पाते हैं। युवा-मन लोकगीत और उनके छंदों को पढ़-समझकर खुद को अभिव्यक्त कर सकें अपराध की और जाने से बच सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्य मांगलिक अवसरों पर गाये जानेवाले कुछ लोकगीत यहाँ प्रस्तुत हैं जिनके कथ्य तथा छंद गीतकार तथा गायक के मन की बानगी हैं।
निम्न बन्ना गीत में तीन छंदों का मिश्रण है। मुखड़े में १५-१४, २९ मात्रिक महायौगिक जातीय धारा छंद का प्रयोग है जबकि अंतरे की पंक्तियों में क्रमश: १८ व १६ मात्रिक पौराणिक तथा संस्कारी जातीय छंद का प्रयोग किया गया है।
"बन्ना है चाँद पूनो का / निकल आया, निकल आया॥ १५- १४ मात्रा
बन्ना अपने बाबा का प्यारा, / दादी की आँखों का तारा १८-१६=३४ मात्रा
जगत का है ये उजियारा, / निकल आया, निकल आया॥ १५-१४ मात्रा
ऐसे लोकगीतों मॆं दादा,दादी के बाद फूफा-फूफी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भैया-भाभी आदि रिश्तों को लेकर गया जाता है।
एक और बन्ना गीत का आनंद लें जिसमें १८ मात्रिक पौराणिक जातीय छंद निहित है:
"बन्ने काला कोट सिलाना रे, नाइलोन के बटन लगाना रे! १८-१८
पहन के कालिज चले जाना रे, बाबा जी को संग ले जाना रे!
बन्ने! रोम-रोम से रंग बरसे, कॉलेज की सब लडकियाँ तरसे!
बन्ने तरसी को और तरसाना रे॥
लड़की की शादी में गाए जाने वाले लोकगीतों को बन्नी या लाडो कहते हैं। इस लोकगीत मॆं अल्हड लाडो यानि बन्नी अपने बाबा से पूछ रही है कि मैं कैसे जाऊँ बाग मॆं खेलने क्योंकि वहाँ पर रंगीले (उसके ससुराल वाले) आ गये हैं। बाबा कहते हैं फूलों की डलिया लेकर मालिन का वेश रख ले।
"लाडो पूछे बाबा से, हे बाबा! मै किस विध खेलन जाऊँ?
रंगीले आये गये बागों मॆं ?!
बाबा अपनी लाडो को समझाते हुये कहते हैं
"हाथ मॆं डलिया फूल की लाडो, धर मालिन का भेष
रंगीले आये गये बागो मॆं ॥
देख गये दिखलाये गये बागोँ मॆं ! मेरी रंगभरी लाडो को
नज़र लगाये गये बागोँ मॆं ॥
मामा द्वारा भांजे-भांजी के विवाह में बहन-बहनोई, उनकी संतानों तथा स्वजनों को उपहार देने की परंपरा को भात चढ़ाना कहा जाता है। बहिन द्वारा भात लेकर आने के लिए भाई को न्योता भेजा जाता है। इस वस्र पर भात गीत गाए जाते हैं:
'अरे भैया रघुवीर, भात सबेरे लइयौ! (१२-१२) /मेरे माथे को बिंदी लइयौ, झूमर पे रत्न जडइयो (१८-१४) / गले को लइयौ जंजीर, भात सबेरे लइयौ॥' (१४-१२)
एक और भात गीत का आनंद लें: ' भैया तोरी भांजी का ब्याह, भात ले के अइयो रे! (१७ -१३) शेष गीत में बहिन किसके लिए क्या लाना है बताती है। इस मध्य हँसी-मजाक, चुहुल होती है। भाई कहता है: 'बहन क्या घर को बेचूँगा? / बहन क्या खुद बिक जाऊँगा? १५-१५
इसके विपरीत एक उत्साही भाई बहिन उसके ससुरालियों सहित भात पहनने के लिए मंडप में आमंत्रित करता है: 'बहिना! चल मंडप के बीच, अनोखा भात पिन्हाऊँगा (१५-१५) / सास तुम्हारी को पैंट-कोट और टाई चढ़ाऊँगा (१६- १४=३०) / ससुर तुम्हारे को साडी-ब्लाउज लौंग पहनाऊँगा (१८-११ =२९) इसी तरह शेष संबंधियों के नाम लेकर महातैथिक जातीय ताटंक छंद में शेष गीत गया जाता है।
बच्चे का जन्म होने पर जो लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ब्याही या जच्चा कहते हैं: 'जच्चा झुक-झुक देखे पलना / तू चाँद जैसा किस पे हुआ / मेरे ललना ! (१६-१६-८) / तेरे बाबा काले-काले / तू गोरा नाना पे हुआ / मेरे ललना॥
इसके विपरीत एक उत्साही भाई बहिन उसके ससुरालियों सहित भात पहनने के लिए मंडप में आमंत्रित करता है: 'बहिना! चल मंडप के बीच, अनोखा भात पिन्हाऊँगा (१५-१५) / सास तुम्हारी को पैंट-कोट और टाई चढ़ाऊँगा (१६- १४=३०) / ससुर तुम्हारे को साडी-ब्लाउज लौंग पहनाऊँगा (१८-११ =२९) इसी तरह शेष संबंधियों के नाम लेकर महातैथिक जातीय ताटंक छंद में शेष गीत गया जाता है।
बच्चे का जन्म होने पर जो लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ब्याही या जच्चा कहते हैं: 'जच्चा झुक-झुक देखे पलना / तू चाँद जैसा किस पे हुआ / मेरे ललना ! (१६-१६-८) / तेरे बाबा काले-काले / तू गोरा नाना पे हुआ / मेरे ललना॥
शिशु जन्म पर बधाई गीत भी गाये जाते हैं। स्व. शांति देवी वर्मा रचित बधाई गीत में गणेश जन्म पर पार्वती जी को बधाई दी गयी है। इसका मुखड़ा नाक्षत्रिक जातीय छंद में है जबकि अंतरे में यौगिक जातीय छंद का प्रयोग हुआ है: ' मंगल बेला आई / भोले घर बाजे बधाई (१२-१५) / गौरा मैया ने लालन जन्में /गणपति नाम धराई (१६-१२) । अन्य बधाई गीत 'धूम-धाम भोले के गाँव, चलो पाँव-पाँव सखी' में शांति देवी जी ने मुखड़े में नाक्षत्रिक जातीय छंद का प्रयोग किया है।
सावन मॆं गाये जाने वाले गीतों को उत्तर-प्रदेश मॆं कजरी गीत कहते हैं: " आया तो री सासू यौ सावन मास। / बेड (झूल) बटा दे पीले पाट की जी। / म्हारे तो री बहुवड यौ बेडो की आन।/ जायें बटाइयो अपने बाप के जी / म्हारे तो री सासू हैं छोटे-छोटे बीर / बटनी न जाने सन की जेवडी जी / सुन-सुन रे बेटा तू लच्छो के बोल / लच्छौ तो बोले हमसे बोलने जी !
सावन मॆं गाये जाने वाले गीतों को उत्तर-प्रदेश मॆं कजरी गीत कहते हैं: " आया तो री सासू यौ सावन मास। / बेड (झूल) बटा दे पीले पाट की जी। / म्हारे तो री बहुवड यौ बेडो की आन।/ जायें बटाइयो अपने बाप के जी / म्हारे तो री सासू हैं छोटे-छोटे बीर / बटनी न जाने सन की जेवडी जी / सुन-सुन रे बेटा तू लच्छो के बोल / लच्छौ तो बोले हमसे बोलने जी !
एक और सावन-गीत देखिये: अरी सखी सावन महीना आया / हम तो बैठ गये मन मार के॥ / रो-रो कह रही कंवल निहाल दे॥ बीबी ऐसा ख़त भीजवाइयो /
हमरे बालम पास पुचाईयो / सुनते ही आवें नर सुल्तान जी॥ यह गीत बारामासी कहा जाता है क्योंकि इसमें बारहों महीनों के नाम लिये जाते हैं।
होली पर फाग कहे जाते है जो उत्साह और उल्लास लिये होते हैं और रिश्तों को अनेक प्रेम के रंगो से सराबोर करते हैं। महातैथिक ज्तीय १४-१६ मात्रिक छंद में फाग का आनंद लें: 'मै होली कैसे खेलूँ जी, साँवरियाजी के सँग-रँग (१६-१४) / कोरे-कोरे कलश मँगाये, उनमें घोला केसर रँग (१६-१४) / भर पिचकारी माथे मारी, टीका हो गया रंग-रंग / मैं होली कैसे खेलूं जी,सांवरिया जी संग-रंग॥'
देश के हर प्रदेश मॆं जो हमारी संस्कृति से परिचय कराते हुए, मांगलिक अवसरों पर नृत्य-गीत हमारी स्वस्थ्य परंपरा है। आइए, एक प्रसिद्ध लोक नृत्य गीत के साथ नाचें-झूमें:: 'छन कंगन के तीन घुँघरू तीनों मेल मिला दूँगी। / जो मेरी सासू राजी बोले रोटी पौ के खिला दूँगी। / जो मेरी सासू करे लड़ाई चूल्हा बाहर भगा दूँगी॥"
एक और नृत्य गीत देखिए: 'जरा धीरे-धीरे बाँसुरी बजाना / श्याम रे! , बजाना श्याम रे! / श्याम रे मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / उड जारे कौउये पूरब दिशा को, / सुध ले आ मेरे प्रियतम की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / कौआ बेचारा उड़ने ना पाया / घर आये मेरे परदेशी। / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुम तो प्रभु जी मेरे फुल गुलाबी / हम कलियाँ सुखदर्शन की॥ / मैं ग्वालन इस पनघट की॥ / तुमको लाज प्रभु अपने मुकुट की / हमें लाज इस घूंघट की॥ मैं ग्वालन इस पनघट की॥
आज बहुत आवश्यक है कि हमारी युवा पीढी भी हमारी संस्कृति ,हमारे लोकगीतों और लोककलाओं से परिचित हो।
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें