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रविवार, 17 जून 2018

पिता पर दोहे

पिता पर दोहे:
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पिता कभी वट वृक्ष है, कभी छाँव-आकाश।
कंधा, अँगुली हैं पिता, हुए न कभी हताश
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पूरा कुनबा पालकर, कभी न की उफ़-हाय
दो बच्चों को पालकर, हम क्यों हैं निरुपाय?
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थके, न हारे थे कभी, रहे निभाते फर्ज
पूत चुका सकते नहीं, कभी पिता का कर्ज
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गिरने से रोका नहीं, चुपा; कहा: 'जा घूम'
कर समर्थ सन्तान को, लिया पिता ने चूम
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माँ ममतामय चाँदनी, पिता सूर्य की धूप
दोनों से मिलकर बना, जीवन का शुभ रूप
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पिता न उँगली थामते, होते नहीं सहाय
तो हम चल पाते नहीं, रह जाते असहाय
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माता का सिंदूर थे, बब्बा का अरमान
रक्षा बंधन बुआ का, पिता हमारी शान
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कभी न लगने दी पता, पितृ-ह्रदय ने पीर
दुख सह; सुख बाँटा सदा, चुकी न किंचित धीर
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दीवाली पर दिया थे, होली पर थे रंग
पिता किताबें-फीस थे, रक्षा हित बजरंग
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पिता नमन शत-शत करें, संतानें नत माथ
गये न जाकर भी कहीं, श्वास-श्वास हो साथ
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१७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

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