पिता पर दोहे:
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पिता कभी वट वृक्ष है, कभी छाँव-आकाश।
कंधा, अँगुली हैं पिता, हुए न कभी हताश।।
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पूरा कुनबा पालकर, कभी न की उफ़-हाय।
दो बच्चों को पालकर, हम क्यों हैं निरुपाय?
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थके, न हारे थे कभी, रहे निभाते फर्ज।
पूत चुका सकते नहीं, कभी पिता का कर्ज।।
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गिरने से रोका नहीं, चुपा; कहा: 'जा घूम'।
कर समर्थ सन्तान को, लिया पिता ने चूम।।
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माँ ममतामय चाँदनी, पिता सूर्य की धूप।
दोनों से मिलकर बना, जीवन का शुभ रूप।।
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पिता न उँगली थामते, होते नहीं सहाय।
तो हम चल पाते नहीं, रह जाते असहाय।।
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माता का सिंदूर थे, बब्बा का अरमान।
रक्षा बंधन बुआ का, पिता हमारी शान।।
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कभी न लगने दी पता, पितृ-ह्रदय ने पीर।
दुख सह; सुख बाँटा सदा, चुकी न किंचित धीर।।
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कभी न लगने दी पता, पितृ-ह्रदय ने पीर।
दुख सह; सुख बाँटा सदा, चुकी न किंचित धीर।।
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दीवाली पर दिया थे, होली पर थे रंग।
पिता किताबें-फीस थे, रक्षा हित बजरंग।।
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पिता नमन शत-शत करें, संतानें नत माथ।
गये न जाकर भी कहीं, श्वास-श्वास हो साथ।।
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१७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
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