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बुधवार, 28 सितंबर 2016

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नवगीत:
संजीव 
*
समय-समय की बलिहारी है 
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
*

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