मुक्तक सलिला:
संजीव
*
जब गयी रात संग बात गयी
जब सपनों में बारात गयी
जब जीत मिली स्वागत करती
तब-तब मुस्काती मात गयी
*
हर्ष उत्कर्ष का जादू ही हुआ करता है
वही करता है जो अपकर्ष से न डरता है
दिए-बाती की तरह ख्वाब सँग असलियत हो
तब ही संघर्ष 'सलिल' सफल हुआ करता है
*
संजीव
*
जब गयी रात संग बात गयी
जब सपनों में बारात गयी
जब जीत मिली स्वागत करती
तब-तब मुस्काती मात गयी
*
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी
दूर जाना करीब आना है
*
न, अपने आपको खुद से कभी छिपाना मत
न, अपने आपको सब को कभी दिखाना मत
न, धूप-छाँव से दिन-रात से न घबराओ
न अपने सपने जो देखे कभी भुलाना मत
*
वही करता है जो अपकर्ष से न डरता है
दिए-बाती की तरह ख्वाब सँग असलियत हो
तब ही संघर्ष 'सलिल' सफल हुआ करता है
*
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