कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 28 मई 2015

गीत: sanjiv

अभिनव प्रयोग
दोहा-सोरठा गीत
संजीव
*
इतना ही इतिहास,
मनुज, असुर-सुर का रहा
हर्ष शोक संत्रास,
मार-पीट, जय-पराजय
*
अक्षर चुप रह देखते, क्षर करते अभिमान
एक दूसरे को सता, कहते हम मतिमान
सकल सृष्टि का कर रहा, पल-पल अनुसन्धान
किन्तु नहीं खुद को 'सलिल', किंचित पाया जान
अपनापन अनुप्रास,
श्लेष स्नेह हरदम रहा
यमक अधर धर हास,
सत्य सदा कहता अभय
*
शब्द मुखर हो बोलते,  शिव का करिए गान
सुंदर वह जो सनातन, नश्वर तन-मन मान
सत चित में जब बस रहे, भाषा हो रस-खान
पा-देते आनंद तब, छंद न कर अभिमान
जीवन में परिहास,
हो भोजन में नमक सा
जब हो छल-उपहास
साध्य, तभी होती प्रलय
*
मुखड़ा संकेतित करे, रोकें नहीं उड़ान
हठ मत ठानें नापना, क्षण में सकल वितान
अंतर से अंतर मिटा, रच अंतरा सुजान
गति-यति, लय मत भंग कर, तभी सधेगी तान
कुछ कर ले सायास,
अनायास कुछ हो रहा
देखे मौन सहास
अंश पूर्ण में हो विलय
***

कोई टिप्पणी नहीं: