मुक्तक सलिला :
संजीव
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
संजीव
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हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
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