नवगीत :
संजीव
.
हवाओं में
घुल गये हैं
बंद मादक
छंद के.
.
भोर का मुखड़ा
गुलाबी
हो गया है.
उषा का नखरा
शराबी
हो गया है.
कूकती कोयल
न दिखती
छिप बुलाती.
मदिर महुआ
तंग
काहे तू छकाती?
फिज़ाओं में
कस गये हैं
फंद मारक
द्वन्द के.
.
साँझ का दुखड़ा
अँधेरा
बो रहा है.
रात का बिरवा
अकेला
रो रहा है.
कसमसाती
चाँदनी भी
राह देखे.
चाँद कब आ
बाँह में ले
करे लेखे?
बुलावों को
डँस गये हैं
व्यंग्य मारक
नंद के.
*
संजीव
.
हवाओं में
घुल गये हैं
बंद मादक
छंद के.
.
भोर का मुखड़ा
गुलाबी
हो गया है.
उषा का नखरा
शराबी
हो गया है.
कूकती कोयल
न दिखती
छिप बुलाती.
मदिर महुआ
तंग
काहे तू छकाती?
फिज़ाओं में
कस गये हैं
फंद मारक
द्वन्द के.
.
साँझ का दुखड़ा
अँधेरा
बो रहा है.
रात का बिरवा
अकेला
रो रहा है.
कसमसाती
चाँदनी भी
राह देखे.
चाँद कब आ
बाँह में ले
करे लेखे?
बुलावों को
डँस गये हैं
व्यंग्य मारक
नंद के.
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