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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक :
संजीव
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जो हुआ अनमोल है बहुमूल्य, कैसे मोल दूँ मैं ?
प्रेम नद में वासना-विषज्वाल कैसे घोल दूँ  मैं?
तान सकता हूँ नहीं मैं तार, संयम भंग होगा-
बजाना वीणा मुझे है कहो  कैसे झोल दूँ मैं ??

मानकर पूजा कलम उठायी है 
मंत्र गायन की तरह चलायी है 
कुछ  न बोले मौन हैं गोपाल मगर 
जानता हूँ कविता उन्हें भायी है   

बेरुखी ज्यों-ज्यों बढ़ी ज़माने की
करी हिम्मत मैंने आजमाने की 
मिटेंगे वे सब मुझे भरोसा है-
करें जो कोशिश मुझे मिटाने की 

सर्द रातें भी कहीं सोती हैं?
हार वो जान नहीं खोती हैं  
गर्म जो जेब उसे क्या मालुम 
भूख ऊसर में बीज बोती हैं 

बताओ तो कौन है वह, कहो मैं किस सा नहीं हूँ 
खोजता हूँ मैं उसे, मैं तनिक भी जिस सा नहीं हूँ 
हर किसी से कुछ न कुछ मिल साम्यता जाती है  मुझको-
इसलिए हूँ सत्य, माने झूठ मैं उस सा नहीं हूँ
.    
राह कितनी भी कठिन हो, पग न रुकना अग्रसर हो  
लाख ठोकर लगें, काँटें चुभें, ना तुझ पर असर हो 
स्वेद से श्लथ गात होगा तर-ब-तर लेकिन न रुकना 
सफल-असफल छोड़ चिंता श्वास से जब भी समर हो  
.  
  

1 टिप्पणी:

​Sitaram Chandawarkar chandawarkarsm@gmail.com ने कहा…

​Sitaram Chandawarkar chandawarkarsm@gmail.com

आदरणीय ’सलिल’ जी,
अति सुन्दर!
"तान सकता हूं नहीं मैं तार, संयम भंग होगा
बजाना वीणा मुझे है, कहो कैसे झोल दूं मैं"
...
"इसलिये हूं सत्य, माने झूठ मैं उससा नहीं हूं"
वाह!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर!