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सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
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मन की
मत ढीली लगाम कर
.
मन मछली है फिसल जायेगा
मन घोड़ा है मचल जायेगा
मन नादां है भटक जाएगा
मन नाज़ुक है चटक जायेगा
मन के
संयम को सलाम कर
.
तन माटी है लोहा भी है
तन ने तन को मोहा भी है
तन ने पाया - खोया भी है
तन विराग का दोहा भी है
तन की
सीमा को गुलाम कर
.
धन है मैल हाथ का कहते
धन को फिर क्यों गहते रहते?
धनाभाव में जीवन दहते
धनाधिक्य में भी तो ढहते
धन को
जीते जी अनाम कर
.
जीवन तन-मन-धन का स्वामी
रखे समन्वय तो हो नामी
जो साधारण वह ही दामी
का करे पर मत हो कामी
जीवन
जी ले, सुबह-शाम कर
***  
९-२-२०१५  

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