एक कविता
उत्केंद्रित
कुँवर नारायण०
मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
उससे जुड़ना चाहता हूँ। -
उसे झकझोरना चाहता हूँ
उसके काल्पनिक अक्ष पर
ठीक उस जगह जहाँ वह
सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा।
उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
सधे हुए प्रहारों द्वारा
पहले तो विचलित कर
फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
पराक्रम की धुरी पर
एक प्रगति-बिन्दु
यांत्रिकता की अपेक्षा
मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ
०
1 टिप्पणी:
kunwar narain has picked up the pivot of philosophical thought and moulded it in poetic imagery with rare creative genius.it is a classic poem.
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