मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
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आराम है
संजीव 'सलिल'
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मुक्तिका:
आराम है
संजीव 'सलिल'
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स्नेह के हाथों बिका बेदाम है.
जो उसी को मिला अल्लाह-राम है.
मन थका, तन चाहता विश्राम है.
मुरझता गुल झर रहा निष्काम है.
अब यहाँ आराम ही आराम है.
गर हुए बदनाम तो भी नाम है..
जग गया मजदूर सूरज भोर में
बिन दिहाड़ी कर रहा चुप काम है..
नग्नता निज लाज का शव धो रही.
मन सिसकता तन बिका बेदाम है..
चन्द्रमा ने चन्द्रिका से हँस कहा
प्यार ही तो प्यार का परिणाम है..
चल 'सलिल' बन नीव का पत्थर कहीं
कलश बनना मौत का पैगाम है..
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6 टिप्पणियां:
विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी 'विनय'
आदरणीय आचार्यवर!पूरी गजल आत्मा से बात करती हुई चल रही है।इन पंक्तियों के लिये विशेष बधाई
नग्नता निज लाज का शव धो रही।
मन सिसकता तन बिका बेदाम है॥
चंद्रमा ने चंद्रिका से हंस कहा।
प्यार ही तो प्यार का परिणाम है॥
उत्साहवर्धन हेतु आभार.
Saurabh Pandey
मन थका, तन चाहता विश्राम है.
मुरझता गुल झर रहा निष्काम है.
जग गया मजदूर सूरज भोर में
बिन दिहाड़ी कर रहा चुप काम है..
चन्द्रमा ने चन्द्रिका से हँस कहा
प्यार ही तो प्यार का परिणाम है..
वाह ! .. ये मनस मंथन के बाद की पंक्तियाँ हैं.
बहुत-बहुत बधाई और सादर शुभकामनाएँ .. आदरणीय आचार्यजी.
आपकी परखी नश का कायल हूँ बंधु!.
जाम छंदों का पिया जिसने तरा.
जहाँ देखा वहीं वह अनाम है..
प्राची जी!
आपको रचना रुची तो मेरा कवि-कर्म सफल हुआ.
मुक्तिका हिंदी की एक काव्य-विधा है. इसका शिल्प ग़ज़ल के आसपास का है. हिंदी में बहर नहीं होती. छंद बंधन या लय खंड हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप होता है. इसमें मात्र गिराने या बढ़ाने की छूट नहीं होती. तुकांत-पदांत ग़ज़ल के लगभग समान होते हैं. नीरज जी, विराट जी आदि ज्येष्ठ कवियों ने बहुत पहले मुक्तिकाएं रची हैं. यह शब्द मैंने दिया नहीं ग्रहण किया है.
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