कविता:मन गीली मिट्टी सा
कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह
सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस
उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख
प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
फूलेंगी नई बालियाँ
मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम
मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
शंकाओं के पीले पात
ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी
दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर
वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ
भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना
मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
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कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह
सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस
उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख
प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
फूलेंगी नई बालियाँ
मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम
मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
शंकाओं के पीले पात
ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी
दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर
वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ
भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना
मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
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