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शनिवार, 17 नवंबर 2012

गीत: दीप, ऐसे जलें... संजीव 'सलिल'

गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
 
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।

नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
 

दीप, ऐसे जलें... 
  
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।

इंद्र के भोग, निज कर मलें-

दीप, ऐसे जलें...


जानकी जान की 
 खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।

दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-

दीप, ऐसे जलें...

5 टिप्‍पणियां:

sn Sharma द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

sn Sharma द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara


आ0 आचार्य जी,
दीप-पर्व के गीत का प्रतेक बंद सराहनीय है । विशेष --
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
सादर
कमल

deepti gupta द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

deepti gupta द्वारा yahoogroups.com

शानदार !

सादर,
दीप्ति

sanjiv verma salil ने कहा…

salil.sanjiv@gmail.com

माननीय कमल जी एवं दीप्ति जी

आपकी कद्रदानी का शुक्रिया।

dks poet ने कहा…

dks poet

आदरणीय आचार्य जी,
सुंदर नवगीत के लिए बधाई स्वीकारें।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

Yograj Prabhakar ने कहा…

Yograj Prabhakar

waah ...ati sundar geet