गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
5 टिप्पणियां:
sn Sharma द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ0 आचार्य जी,
दीप-पर्व के गीत का प्रतेक बंद सराहनीय है । विशेष --
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
सादर
कमल
deepti gupta द्वारा yahoogroups.com
शानदार !
सादर,
दीप्ति
salil.sanjiv@gmail.com
माननीय कमल जी एवं दीप्ति जी
आपकी कद्रदानी का शुक्रिया।
dks poet
आदरणीय आचार्य जी,
सुंदर नवगीत के लिए बधाई स्वीकारें।
सादर
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
Yograj Prabhakar
waah ...ati sundar geet
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