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शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकि सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे।'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था।'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका और शुरू हो गयी बेमतलब बहस।
*

राजस्थानी मुक्तिका संजीव

राजस्थानी मुक्तिका
संजीव 
*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय 
*
गोरा-गोरा गाल 
मरते दम मुसकाय 
*
नैणा फोटू खैंच 
हिरदै लई मँढाय 
*
तारां छाई रात 
जाग-जगा भरमाय 
*
जनम-जनम रै संग 
ऐसो लाड़ लड़ाय 
*
देवी-देव मनाय  
मरियो साथै जाय 
*
           

लेख : राजस्थानी पर्व : संस्कृति और साहित्य - बुलाकी शर्मा

लेख :
राजस्थानी पर्व : संस्कृति और साहित्य
- बुलाकी शर्मा
*
लेखक परिचय 
जन्म - १ मई, १९५७, बीकानेर ।
राजस्थानी और हिंदी में चार दशकों से अधिक समय से लेखन । ३० के लगभग पुस्तकें प्रकाशित ।
व्यंग्यकार, कहानीकार, स्तम्भलेखक के रूप में खास पहचान । दैनिक भास्कर, बीकानेर सहित कई समाचार पत्रों में  वर्षों से साप्ताहिक व्यंग्य स्तम्भ लेखन ।
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से राजस्थानी कहानी संग्रह - ' मरदजात अर दूजी कहानियां '
को सर्वोच्च राजस्थानी साहित्य पुरस्कार, २०१८। 
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर का शिवचंद्र भरतिया गद्य पुरस्कार राजस्थानी कहानी संग्रह ' हिलोरो ' पर, वर्ष १९९६, राजस्थान साहित्य अकादमी से कन्हैया लाल सहल पुरस्कार हिंदी व्यंग्य संग्रह 'दुर्घटना के इर्दगिर्द ' पर, १९९९।  
अनेकानेक मान- सम्मान- पुरस्कार।  
*
हिंदी के सुपरिचित विद्वान आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के द्वारा संचालित विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर लंबे समय से हिंदी भाषा और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए सराहनीय कार्य कर रही है। इस कार्य में सभी लोगों को जोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने ' हिंदी भाषा और बोलियां ' व्हाट्सएप समूह भी शुरू कर रखा है। इस समय इस समूह के माध्यम से अलग-अलग भाषाओं और बोलियों के पर्व मनाए जा रहे हैं। पहले बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी और छत्तीसगढ़ी भाषा और बोलियों के पर्व मनाए गए और अब ५ अक्टूबर से ' राजस्थानी पर्व ' का शुभारंभ हुआ है जो २  सप्ताह तक चलेगा। इसके अंतर्गत राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति, साहित्य के साथ-साथ यहां के चित्रकला, भित्ति चित्रों सहित अनेक कला रूपों आदि के बारे में भी सहभागी साहित्यकार साथी जानकारी देंगे। इस २  सप्ताह के राजस्थानी पर्व के माध्यम से राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के बारे में हम सभी अपने विचार साझा करेंगे और इन विचारों के माध्यम से अन्य भाषा क्षेत्रों के लोग भी हमारी राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति से पहले से ज्यादा परिचित हो सकेंगे, इसके लिए मैं आचार्य सलिल जी और उन की सक्रिय और समर्पित टीम में शामिल सुषमा सिंह जी, वीना सिंह जी सहित सभी का आभार प्रदर्शित करता हूं ।

राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकारता 

आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी के निर्देश पर सुषमा सिंह जी ने मुझे ' राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकार्यता ' पर अपने विचार साझा करने का आग्रह किया, इसके लिए उनका साधुवाद । हमारी मातृभाषा राजस्थानी बहुत प्राचीन भाषा है ।इसकी एक समृद्ध और सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा रही है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व रहा है । राजस्थानी भाषा के अंकुर अपभ्रंश की कोख से आठवीं शताब्दी के अंदर दिखने लगे थे, जिसका प्रभाव उस समय के जैन कवि उद्योतन सूरि की रचना ' कवलय माला कहा ' में दृष्टिगत होता है । २ लाख से भी अधिक राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियां हैं, जो गुजरात और मध्य प्रदेश की शोध संस्थाओं, प्रतिष्ठानों, म्यूजियमों, निजी पोथी खानों इत्यादि में पड़ी हैं । १५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी के बीच की अनेक प्रसिद्ध पांडुलिपियां सरकारी प्रयासों से प्रकाशित हुई हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान की कई रियासतों और ठिकानों में सरकारी कामकाज की भाषा राजस्थानी ही थी । इसका प्रमाण राजकीय अभिलेखागार और जिला अभिलेखागार के अंदर सुरक्षित पट्टा पोली, फरमान, रुक्का, परवाना आदि दस्तावेज हैं । बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर सहित अनेक रियासतों और ठिकानों में राजस्थानी भाषा में ही कामकाज होता था। इससे स्पष्ट है कि राजस्थानी भाषा आरंभ से ही ग्राह्य और स्वीकार्य थी किंतु आजादी के पश्चात इसको संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाने से वह आज तक अपने वाजिब अधिकार के लिए संघर्षरत है । आज भी राजस्थानी भाषा करोड़ों कण्ठों में बसी है । राजस्थानी का वाशिंदा देश- विदेश के किसी भी कोने में रहता हो, वह अपनी मातृभाषा राजस्थानी में ही अपनों के बीच संवाद करता रहा है । हम राजस्थानी भाषियों को यह दर्द सालता रहता है कि इतनी समृद्ध और सम्पन्न राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता अब तक नहीं मिल पायी है किंतु यह सच्चाई है कि यह राजस्थान के जन-जन की भाषा है । यहां के जन नेता भी इस सच को स्वीकारते रहे हैं। चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से सम्बद्ध हों । जब भी वे वोटों के लिए आमजन से संवाद करते हैं, जब सार्वजनिक सभाएं करते हैं, तब अपनी बात राजस्थानी भाषा में ही करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि राजस्थानी में बात किए बिना उनकी बात का असर नहीं पड़ेगा। 

हमारी राजस्थानी भाषा और साहित्य की सामर्थ्य का गुणगान विश्वकवि रविंद्र नाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय, विदेशी विद्वान डॉक्टर ग्रियर्सन, डॉक्टर एल पी टेसीटोरी, मैकलिस्टर, भारतीय भाषाविद सुनीति कुमार चातुरज्या सहित अनेकानेक विभूतियों ने किया है ।साहित्य अकादमी नई दिल्ली वर्षों से अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राजस्थानी भाषाओं की पुस्तकों को भी प्रतिवर्ष पुरस्कृत करती रही है । राजस्थान में राज्य सरकार ने स्वायत्तशासी राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का गठन वर्षों पहले किया था । राजस्थानी भाषा की सामर्थ्य पूरा विश्व मानता है और इस की ग्राह्यता और स्वीकार्यता में किसी को कोई संदेह नहीं है किंतु एक चिंता सब को परेशान किए है । वह चाहे राजस्थानी भाषा हो या हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाएँ, हम शनै: शनै: अपनी मातृ भाषाओं और संस्कृति से कटते जा रहे हैं । बच्चों के भविष्य बनाने के सपनों में उलझे हम उन्हें अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढ़ाने को प्राथमिकता देने लगे हैं और चाहते हैं कि बच्चे घर में भी अंग्रेजी में ही हमसे बात करे । मैं सभी भाषाओं का पूरा सम्मान करता हूँ क्योंकि भाषाएं हमें एक-दूसरे को जोड़ने का पुल हैं। हमें अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए किन्तु अपनी भाषा और संस्कृति को अपनी जन्मदात्री माँ की तरह सर्वोच्च आदर और सम्मान देना कभी नहीं भूलें । 

- संपर्क : सीताराम द्वार के सामने, जस्सूसर गेट के बाहर, बीकानेर -334004 राजस्थान
*
*
हिंदी के सुपरिचित विद्वान आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के द्वारा संचालित विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर लंबे समय से हिंदी भाषा और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए सराहनीय कार्य कर रही है। इस कार्य में सभी लोगों को जोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने ' हिंदी भाषा और बोलियां ' व्हाट्सएप समूह भी शुरू कर रखा है। इस समय इस समूह के माध्यम से अलग-अलग भाषाओं और बोलियों के पर्व मनाए जा रहे हैं। पहले बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी और छत्तीसगढ़ी भाषा और बोलियों के पर्व मनाए गए और अब ५ अक्टूबर से ' राजस्थानी पर्व ' का शुभारंभ हुआ है जो २  सप्ताह तक चलेगा। इसके अंतर्गत राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति, साहित्य के साथ-साथ यहां के चित्रकला, भित्ति चित्रों सहित अनेक कला रूपों आदि के बारे में भी सहभागी साहित्यकार साथी जानकारी देंगे। इस २  सप्ताह के राजस्थानी पर्व के माध्यम से राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के बारे में हम सभी अपने विचार साझा करेंगे और इन विचारों के माध्यम से अन्य भाषा क्षेत्रों के लोग भी हमारी राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति से पहले से ज्यादा परिचित हो सकेंगे, इसके लिए मैं आचार्य सलिल जी और उन की सक्रिय और समर्पित टीम में शामिल सुषमा सिंह जी, वीना सिंह जी सहित सभी का आभार प्रदर्शित करता हूं ।

राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकारता 

आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी के निर्देश पर सुषमा सिंह जी ने मुझे ' राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकार्यता ' पर अपने विचार साझा करने का आग्रह किया, इसके लिए उनका साधुवाद । हमारी मातृभाषा राजस्थानी बहुत प्राचीन भाषा है ।इसकी एक समृद्ध और सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा रही है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व रहा है । राजस्थानी भाषा के अंकुर अपभ्रंश की कोख से आठवीं शताब्दी के अंदर दिखने लगे थे, जिसका प्रभाव उस समय के जैन कवि उद्योतन सूरि की रचना ' कवलय माला कहा ' में दृष्टिगत होता है । २ लाख से भी अधिक राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियां हैं, जो गुजरात और मध्य प्रदेश की शोध संस्थाओं, प्रतिष्ठानों, म्यूजियमों, निजी पोथी खानों इत्यादि में पड़ी हैं । १५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी के बीच की अनेक प्रसिद्ध पांडुलिपियां सरकारी प्रयासों से प्रकाशित हुई हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान की कई रियासतों और ठिकानों में सरकारी कामकाज की भाषा राजस्थानी ही थी । इसका प्रमाण राजकीय अभिलेखागार और जिला अभिलेखागार के अंदर सुरक्षित पट्टा पोली, फरमान, रुक्का, परवाना आदि दस्तावेज हैं । बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर सहित अनेक रियासतों और ठिकानों में राजस्थानी भाषा में ही कामकाज होता था। इससे स्पष्ट है कि राजस्थानी भाषा आरंभ से ही ग्राह्य और स्वीकार्य थी किंतु आजादी के पश्चात इसको संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाने से वह आज तक अपने वाजिब अधिकार के लिए संघर्षरत है । आज भी राजस्थानी भाषा करोड़ों कण्ठों में बसी है । राजस्थानी का वाशिंदा देश- विदेश के किसी भी कोने में रहता हो, वह अपनी मातृभाषा राजस्थानी में ही अपनों के बीच संवाद करता रहा है । हम राजस्थानी भाषियों को यह दर्द सालता रहता है कि इतनी समृद्ध और सम्पन्न राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता अब तक नहीं मिल पायी है किंतु यह सच्चाई है कि यह राजस्थान के जन-जन की भाषा है । यहां के जन नेता भी इस सच को स्वीकारते रहे हैं। चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से सम्बद्ध हों । जब भी वे वोटों के लिए आमजन से संवाद करते हैं, जब सार्वजनिक सभाएं करते हैं, तब अपनी बात राजस्थानी भाषा में ही करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि राजस्थानी में बात किए बिना उनकी बात का असर नहीं पड़ेगा। 

हमारी राजस्थानी भाषा और साहित्य की सामर्थ्य का गुणगान विश्वकवि रविंद्र नाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय, विदेशी विद्वान डॉक्टर ग्रियर्सन, डॉक्टर एल पी टेसीटोरी, मैकलिस्टर, भारतीय भाषाविद सुनीति कुमार चातुरज्या सहित अनेकानेक विभूतियों ने किया है ।साहित्य अकादमी नई दिल्ली वर्षों से अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राजस्थानी भाषाओं की पुस्तकों को भी प्रतिवर्ष पुरस्कृत करती रही है । राजस्थान में राज्य सरकार ने स्वायत्तशासी राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का गठन वर्षों पहले किया था । राजस्थानी भाषा की सामर्थ्य पूरा विश्व मानता है और इस की ग्राह्यता और स्वीकार्यता में किसी को कोई संदेह नहीं है किंतु एक चिंता सब को परेशान किए है । वह चाहे राजस्थानी भाषा हो या हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाएँ, हम शनै: शनै: अपनी मातृ भाषाओं और संस्कृति से कटते जा रहे हैं । बच्चों के भविष्य बनाने के सपनों में उलझे हम उन्हें अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढ़ाने को प्राथमिकता देने लगे हैं और चाहते हैं कि बच्चे घर में भी अंग्रेजी में ही हमसे बात करे । मैं सभी भाषाओं का पूरा सम्मान करता हूँ क्योंकि भाषाएं हमें एक-दूसरे को जोड़ने का पुल हैं। हमें अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए किन्तु अपनी भाषा और संस्कृति को अपनी जन्मदात्री माँ की तरह सर्वोच्च आदर और सम्मान देना कभी नहीं भूलें । 

- संपर्क : सीताराम द्वार के सामने, जस्सूसर गेट के बाहर, बीकानेर -334004 राजस्थान
*

दोहा सलिला

 दोहा सलिला :

*
सृजन कुञ्ज में खिल रहे, शत-शत दोहा फूल। 
अनिल धूप गति यति सदृश, भू नभ दो पद कूल।।
*
पाखी के दो पर चरण, चंचु पदादि समान। 
पैर पदांत गतिज रहें, नयन कहन ज्यों बान।।
*
पद्म सदृश पुष्पा रहे, विश्वबंधु बन कथ्य।   
मधुरस्मृति रवि किरण की,ममता सम युग सत्य।।
*
विपुल भाव; रस अश्क़ हैं, चिर अनुराग सुधीर। 
 अमृत सागर पा उषा, भू उतरी नभ चीर।।
*
हिंदुस्तानी हम सभी, निर्मल सलिल प्रशांत। 
मत निर्जीव समझ जगत, हम संजीव सुशांत।।
*  
१०-१०-२०२०

दोहा सलिला

दोहा सलिला :
*
सृजन कुञ्ज में खिल रहे, शत-शत दोहा फूल।
अनिल धूप गति यति सदृश, भू नभ दो पद कूल।।
*
पाखी के दो पर चरण, चंचु पदादि समान। 
पैर पदांत गतिज रहें, नयन कहन ज्यों बान।।
*
पद्म सदृश पुष्पा रहे, विश्वबंधु बन कथ्य।   
मधुरस्मृति रवि किरण की,ममता सम युग सत्य।।
*
विपुल भाव; रस अश्क़ हैं, चिर अनुराग सुधीर। 
 अमृत सागर पा उषा, भू उतरी नभ चीर।।
*
हिंदुस्तानी हम सभी, निर्मल सलिल प्रशांत। 
मत निर्जीव समझ जगत, हम संजीव सुशांत।।
*  
१०-१०-२०२०                                                                                                                                                     

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

हाइकु

 हाइकु

*
शेरपा शिखर
सफलता पखेरू
आकर गया
*
शेरपा हौसला
जिंदगी है चढ़ाई
कोशिश जयी
*
सिर हो ऊँचा
हमेशा पहाड़ सा
आकाश छुए
*
नदी बनिए
औरों की प्यास बुझा
खुश रहिए
*
आशा-विश्वास
खुद पर भरोसा
शेरपा धनी
***
संजीव
८-१०-१९
९४२५१८३२४४

सरस्वती-वन्दना' -देवकीनन्दन'शान्त'

 'सरस्वती-वन्दना'

-देवकीनन्दन'शान्त',साहित्यभूषण

* * * *
मां,मुझे गुनगुनाने का वर दे !
मेरी सांसों में संगीत भर दे !!

छन्द को भाव रसखान का दे !
गीत को दर्द इन्सान का दे !!
मेरी ग़ज़लें मुहब्बत भरी हों ;
दें मुझे ध्यान भगवान का दे ,
काव्य को कुछ तो अपना असर दे

सत्य बोलूं लिखूं शब्द स्वर दे !
या न बोलें जो ऐसे अधर दे !!
झूठ कैसा भी हो झूठ ही है ;
झूठ के पंख सच से क़तर दे !!
हौसले से भरी हर डगर दे

राष्ट्र-हित से जुड़ी भावना दे !
विश्व कल्याण की कामना दे !!
धर्म मज़हब समा जाएं जिसमें ;
योग जप-तप पगी साधना दे
जग को सुख-शान्तिआठोंपहर दे

'शान्त'शब्दों को चिंगारियां दे !
जग की पीड़ा को अमराइयां दे!!
कल्पना दे गरुड़ पंख जैसी ;
मेरे अनुभव को गहराइयां दे!!
मुझ पे इतनी कृपा और कर दे

मां मुझे गुनगुनाने का वर दे !
मेरी सांसों में संगीत भर दे !!

*
10/302,Indiranagar, लखनऊ-226016(UP)
9935217841, shantdeokin@gmail.com

दोहा सलिला

दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
*



दोहा शतक- मञ्जूषा 'मन'

दोहा शतक-२
मञ्जूषा 'मन'
*
९-९-१९७३।
सृजन विधा- गीत, दोहा, मुक्तक, ग़ज़ल आदि।
कार्यक्रम अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन।
बलोदा बाज़ार, छतीसगढ़।
१.
अब हमको लगने लगे, प्यारे अपने गीत।
सपने नैनन में सजे, आप बने जो मीत।।
२.
कागज़ के टुकड़े हुए, उनके सारे नोट।
कर्मों से ज्यादा रही, क्यों नीयत में खोट।
३.
कहाँ छुपाकर हम रखें, तेरी ये तस्वीर।
भीग न जाये तू सनम, आँखों में है नीर।।
४.
ज़ख्मों पर मरहम नहीं, रखना तुम अंगार।
अनदेखी के दर्द पर, काम न आता प्यार।।
५.
दीप-शिखा बन हम जले, पाकर तेरा प्यार।
जान लुटाकर जी गए, यह जीवन का सार।।
६.
मन भीतर रखते छुपा, हमदम की तस्वीर।
बस ये ही तस्वीर है, जीने की तदबीर।।
७.
करी बागबानी बहुत, पर न खिल सके फूल।
क्या कोशिश में कमी, या कुदरत की भूल??
८.
करते शोषण मर्द तो, औरत क्यों बदनाम?
किसने मर्यादा लिखी, औरत के ही नाम??
९.
सबके अपने रंग है, अपने अपने रूप।
अपने-अपने सूर्य हैं, अपनी-अपनी धूप।।
११.
महँगाई के दौर में, सबसे सस्ती जान।
दो रोटी की चाह में, बिक जाता इंसान।।
११.
आँसू पलकों में लिए, हम बैठे चुपचाप।
मेरे दुख को भूल कर, रास रचाते आप।।
१२.
हमने तो बिन स्वार्थ के, किये सभी के काम।
हाथ न आया सुयश हम, मुफ़्त हुए बदनाम।।
१३.
मन को सींचा अश्रु से, पर मुरझाई बेल।
बहुत कठिन लगने लगा, जीवन का कटु खेल।।
१४.
बोलो कैसे निभ सके, पानी के सँग आग?
सुख सँग नाता है यही, डंसते बन कर नाग।
१५.
सूख गए आँसू सभी, आँखों में है प्यास।
बादल भी रूठे हुए, कौन बँधाए आस??
१६.
दुख-धागे चादर बुनी, पकड़े श्वांसें छोर।
सुख से कब सुलझी कहो, उलझी जीवन डोर??
१७..
हम सच बोलें तो उन्हें, क्यों आता है रोष?
अपने कर्मों का सदा, हमको देते दोष।।
१८.
अगिन शिकारी हैं छिपे, यहाँ लगाकर घात।
मन घबराता है बहुत, कौन बचाए तात??
१९.
अपने-गैरों की कहें, कैसे हो पहचान?
अपने धोखा कर रहे, मिले भले अनजान।।
२०.
ज़हर बुझे प्रिय के वचन, चुभते जैसे बाण।
इतनी पीड़ा सह हुए, हाय! प्राण निष्प्राण।।
२१.
चतुर समझता किंतु है, मन मूरख-नादान।
झूठे सारे रूप हैं, झूठी है सब शान।।
२२.
सूखे पोखर-ताल हैं, कहें किसे ये पीर?
और कहीं मिलता नहीं, आँखों में है नीर।।
२३.
फिर आएगी भोर कल, रखें जगाए आस।
बदलेंगे दिन ये कभी, बना रहे विश्वास।।
२४.
छिप न सके पंछी विवश, झरे पेड़ के पात।
निर्दय मौसम दे रहा, बड़े-बड़े आघात।।
२५.
सिर को पकड़े सोचता, बैठा एक गरीब।
कड़ी धूप से बच सकें, करे कौन तरकीब??
२६.
वसुधा तरसे नीर को, खो कर सब सिंगार।
मेघ नज़र आते नहीं, अम्बर के भी पार।।
२७.
थाम लिया पतवार खुद, चले सिंधु के पार।
मन में दृढ़ विश्वास ले, उतर गए मझधार।।
२८.
नीयत कब बदली कहो, बदले कपड़े रोज।
प्रेम हृदय में था नहीं, देखा हमने खोज।।
२९.
दुखे नहीं दिल आपसे, करी ऐसे कर्म।
कर्मों का फल भोगना, पड़ता समझो मर्म।।
३०.
दूजों को देखो नहीं, देखो अपने कर्म।
कुछ भी ऐसा मत करो, खुद पर आये शर्म।।
३१.
चंचल मन कब मानता, पल-पल उड़ता जाय।
छल से जब हो सामना, तब केवल पछताय।।
३२.
चंचलता अभिशाप है, रखना इसका ध्यान।
सोच-समझ कर चल सदा, सच को ले अनुमान।।
३३.
अब तक हमने था रखा, अपने मन पर धीर।
आँखों ने कह दी मगर, तुम से मन की पीर।।
३४.
सबके अपने दर्द हैं, कौन बँधाए धीर?
अपने-अपने दर्द हैं, अपनी-अपनी पीर।।
३५.
जाने क्या-क्या कह गया, बह नयनों से नीर।
हमने कब तुमसे कही, अपने मन की पीर।।
३६.
दिल को छलनी कर गए, कटु वचनों के तीर।
चुप रहकर हम सह गए, फिर भी सारी पीर।।
३७.
सोचा कब परिणाम को, चढ़ा प्रेम का जोश।
अपना सब कुछ खो दिया, जब तक आया होश।।
३८.
दिन भर छत पर पकड़ते, धूपों के खरगोश।
बचपन जैसा अब नहीं, बचा किसी में जोश।।
३९.
सीखो मुझसे तुम जरा, कहता है इतिहास।
अनुभव से मैं हूँ भरा, कल को कर दूँ खास।।
४०.
आनेवाला कल अगर, करना चाहो खास।
एक बार देखो पलट, तुम अपना इतिहास।।
४१.
सौंपा हमने आपको, अपने मन का साज।
मन वीणा में देखिये, सरगम बजती आज।
४२.
गली -गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कुरुक्षेत्र में अब कहो, कहाँ मिलेगी छाँव।।
४३.
युद्ध छिड़ा चारों तरफ, मचा सब तरफ क्लेश।
कुरुक्षेत्र सा दिख रहा, अपना प्यारा देश।।
४४.
मन ने चिट्ठी लिख रखी, गुपचुप अपने पास।
फिर भी हर पल कर रहा, है उत्तर की आस।।
४५.
पाती ही बाँची गई, पढ़े न मन के भाव।
बीच भँवर में डूबती, रही प्रेम की नाव।।
४६.
साथ मिला जो आपका, महक उठे जज़्बात।
होठों तक आई नहीं, लेकिन मन की बात।।
४७.
मन-पंछी नादान है, उड़ने को तैयार।
जब-जब भी कोशिश करी, पंख कटे हर बार।।
४८.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीँ चुभे हैं शूल।।
४९.
महक रहा मन-मोगरा, तन बगिया के बीच।
समय निठुर माली न क्यों, सलिल रहा है सींच??
५०.
वर्षा बरसी प्रेम की, भीगे तन-मन आज।
धीरे-धीरे आज सब, खुले प्रेम के राज।।
५१.
थाम हाथ मन का चलो, राहें हो खुशहाल।
जीवन जीना चाह लें, हम तो सालों साल।।
५२.
सूने मन में खिल रहे, आशाओं के फूल।
बीच भँवर में पात ज्यों, मिल लगते हैं कूल।।
५३.
बैठा था बहुरूपिया, डाले अपना जाल।
भोला मन समझा नहीं, उसकी गहरी चाल।
५४.
प्रेम संग मीठी लगे, सूखी रोटी-प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम ही राज।।
५५.
प्रेम सहित मीठी लगे, सूखी रोटी प्याज।
सुख से जीने का सुनो, एक प्रेम है राज।।
५६.
गली-गली चलने लगे, महाभारती दाँव।
कहाँ मिले कुरुक्षेत्र में, पहले जैसी छाँव??
५७.
बहा रक्त कुरुक्षेत्र में, मचा भयंकर क्लेश।
मरघट जैसा हो गय , सारा भारत देश।।
५८.
कह दें मन की बात हम, पर समझेगा कौन?
बस इतना ही सोच कर, रह जाते हैं मौन।।
५९.
करो विदा हँस कर मुझे, जाऊँ मथुरा धाम।
राधा रूठोगी अगर, कैसे होगा काम??
६०.
कान्हा तुम छलिया बड़े, छलते हो हर बार।
भोली राधा का कभी, समझ सकोगे प्यार??
६१.
जो तुम यूँ चलते रहे, प्रेम डोर को थाम?
फिर इस जीवन में कहो, दुख का क्या है काम??
६२.
धुँआ-धुँआ सा दिख रहा, अब तो चारों ओर।
जीवन की इस राह का, दिखे न कोई छोर।
६३.
कह पाते हम किस तरह, हैं कितने हैं मजबूर?
जन्मों का है फासला, इसीलिए हैं दूर।।
६४.
चीरहरण होता यहाँ, देखा हर इक द्वार।
बहन बेटियों का सुनो, हो जाता व्यापार।।
६५.
बे-मतलब लेता यहाँ, कौन किसी का नाम।
दरवाज़े पर तब दिखे, जब पड़ता है काम।।
६६.
बोलो! कैसे सौंप दें, मन जब पाया श्राप?
मन से मन को जोड़कर, सुख पायेंगे आप??
६७.
कोई अब रखता नहीं, मन दरवाजे दीप।
गहन अँधेरा छा गया, टूटी मन की सीप।।
६८.
भूखा पेट न देखता, दिवस हुआ या रात?
आँतों को रोटी मिले, तब समझे वह बात।।
६९.
कड़वी यादें आज सब, नदिया दिये सिराय।
अच्छा-अच्छा गह चलो, यही बड़ों की राय।।
७०.
अपनी-अपनी ढपलियाँ, अपने-अपने राग।
अँधियारी दीवालियाँ, गूँगे होली-फ़ाग।
७१.
बौराया सावन फिरे, बाँट रहा सन्देश।
प्रेम लुटाता फिर रहा, धर प्रेमी का भेष।।
७२.
बूँदों की बौछार से, तन-मन जाता भीज।
कर सोलह श्रृंगार 'मन', आई सावन तीज।।
७३.
जग के छल सहते रहे, फिर भी देखे ख्वाब।
काँटों पर ही देखिये, खिलते सदा गुलाब।।
७४.
प्रेम बीज बोए बहुत, खिला नहीं पर फूल।
जिस बगिया को सींचते, वहीं चुभे हैं शूल।।
७५.
जीवन विष का है असर, नीले सारे अंग।
जिन जिनको अपना कहा, निकले सभी भुजंग।।
७६.
कागज पर लिखते रहे, अंतर्मनबात।
जग जिसको कविता कहे, पीड़ा की सौगात।।
७७.
ढलती बेरा में यहाँ, कब ले कोई नाम?
उगते सूरज को रहे, करते सभी सलाम।
७८.
ढूँढें बोलो किस तरह, कहाँ मिले आनन्द?
सब ही रखते हैं यहाँ, मन के द्वारे बन्द।।
७९.
दुख अपना देता रहा, जीवन का आनन्द।
सुख छलिया ठगता रहा, आया नहीं पसन्द।।
८०.
मुरझाये से हैं सभी, साथी फूल गुलाब।
पलकों में चुभने लगे, टूटे रूठे ख्वाब।।
८१ .
मेरे ग़म का आप 'मन', सुन लें ज़रा हिसाब।
जीने को कब चाहिए, जमजम वाला आब।।
८२.
जंगल-जंगल देखिये, बहका फिरे बसन्त।
टेसू दहके आग सा, जागी चाह अनन्त।।
८३.
जागो लो फिर आ गई, प्यारी सी इक भोर।
फूला-महका मोगरा, पंछी करते शोर।।
८४.
नस-नस में बहने लगा, अब वो बनकर पीर।
होंठो पर कुछ गीत हैं, आँखों में है नीर।।
८५.
रोजी-रोटी के लिए, तज आए थे गाँव।
कहाँ छुपाकर अब रखें, छालों वाले पाँव??
८६.
छाँव नहीं पाई कहीं, ऐसे मिले पड़ाव।
बीच भँवर में डोलती, जीवन की यह नाव।।
८७.
कैसी है यह ज़िन्दगी, पल-पल बदले रूप।
पल-दो पल की छाँव है, शेष समूची धूप।।
८८.
एक जुलाहा बैठ कर, स्वप्न बुने दिन-रैन।
मन बाहर झाँके नहीं, पाए कहीं न चैन।।
८९.
मिले नहीं हम आप से, मिले नहीं हैं नैन।
जब से मन में तुम बसे, कहीं न मन को चैन।
९०.
वारेंगे हम ज़िन्दगी, तुम पर सौ-सौ बार।
तेरी खातिर जी रहे, साँसे लिए उधार।
९१.
द्वारे पर बैठे लिए, अपने मन का दीप।
यादों के मोती सजे, नैनों की है सीप।।
९२.
बुझ जाएगा देखिये, आँखों का यह नूर।
मन दीपक बुझने लगा, होकर तुमसे दूर।।
९३.
मिलकर ही रौशन हुए, दीपक-बाती तेल।
जग उजियारा कर सके, तेरा-मेरा मेल।।
९४.
मैली तन-चादर हुई, सौ-सौ मन पर दाग।
तुझको कुछ अर्पित करूँ, मिला न ऐसा भाग।।
९५.
मालाएँ फेरीं बहुत, खूब जपा था नाम।
मन-भीतर छुपकर रहे, बड़ा अजब है श्याम।।
९६.
चिंगारी बाकी न थी, खूब कुरेदी राख।
मुरझाया हर पात था, मुरझाई थी शाख।।
९७.
गरल रोककर कण्ठ में, बाँट रहे मुस्कान।
ठोकर खा सीखे बहुत, जीवन का हम ज्ञान।।
९८.
उड़ अम्बर की ओर तू, ऐ मन! पंख पसार।
बैठे से मिलता नहीं, इस जीवन का सार।
९९.
चलने से थकना नहीं, चलना अच्छी बात।
बीतेंगे तू देखना, दुख के ये हालात।
१००.
आँखों ने पाई बहुत, आँसू की बरसात।
मेघों ने भी खूब दी, पीड़ा की सौगात।।
१०१.
मन की पीड़ा को मिली, मेघों से सौगात।
आँखों से बरसी बहुत, आँसू की बरसात।।
१०२.
बहा पसीना गाइये, आशाओं के गीत।
हो जाएगी एक दिन, उजियारे की जीत।।
१०३.
वाणी भी मीठी नहीं, कहे न मीठे बोल।
कड़वे इस संसार में, रे मन! मिसरी घोल।।
१०४.
सारा दिन खटती रहे, मिले नहीं आराम।
नारी जीवन में लिखा, काम काम बस काम।।
१०५.
पत्थर को पूजा बहुत, मिले नहीं भगवान।
मन-भीतर झाँका ज़रा, प्रभु के मिले निशान।।
१०६.
भूखे किसी गरीब घर, मने नहीं त्यौहार।
और अमीरों के यहाँ, हर दिन सजे बहार।।
१०७.
तन कोमल मिट्टी रचे, मन पाषाण कठोर।
ऊपर से भोले दिखें, अंदर बैठा चोर।।
१०८.
लोग मिले जो दोगले, रखना मत कुछ आस।
जो दो-दो सूरत रखें, उनका क्या विश्वास।।
१०९.
तेरह किसको चाहिए, कब चाहें हम तीन?
अपने साहस से करें, जीवन को रंगीन।।
११०.
पाँवों के छाले कहें, हमें न देखो आप।
बाकी है लम्बी डगर, झटपट लो 'मन' नाप।।
१११.
रिश्ते-नाते दे भुला, पद-कुर्सी का प्यार।
होता पद की आड़ में, रिश्तों का व्यापार।।
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भाषा सेतु

भाषा सेतु 
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी  
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।

यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***

भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल

શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .

***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***

छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
***

चित्रगुप्त रहस्य

लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:

परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '

चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.

आत्मा क्या है?

सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।

चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:

सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।

चित्रगुप्त पूर्ण हैं:

अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।

चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:

चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।

परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।

कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'

अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।

स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?

श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।

चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:

सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।

यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।

बहुदेववाद की परंपरा:

इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।

सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।

'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.

आदि शक्ति वंदना

आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
*
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
*
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
*
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
*
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
*
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
*
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
**************

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

दुर्गा-पूजा में सरस्वती

........... दुर्गा-पूजा में सरस्वती ...........
दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव,गणेशजी,लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और कार्तिक जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है।
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ(स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर)के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल,हल,शंख,मूसल,चक्र,धनुष और बाण धारण करती है।शरद ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कांति है,जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है तथा गौरी के शरीर से प्राकट्य हुआ है।पंचम अध्याय के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित एक श्लोक के द्वारा इस बात का ध्यान किया गया है।
श्लोक
योगी,दिव्यदर्शी,युगदृष्टा सद्गुरुजी के अनुसार ईश्वर की स्त्री प्रकृति के तीन आयाम,दुर्गा(तमस-निष्क्रियता),लक्ष्मी(रजस-जुनून,क्रिया),सरस्वती(सत्व-सीमाओं को तोड़ना,विलीन हो जाना)है।जो ज्ञान की वृद्धि के परे जाने की इच्छा रखते हैं,नश्वर शरीर से परे जाना चाहते हैं,वे सरस्वती की पूजा करते हैं।जीवन के हर पहलू को उत्सव के रूप में मनाना महत्वपूर्ण है।हर अच्छे चीज़ से जुड़े रहना अच्छी बात है।(स्रोत-यूट्यूब,गूगल)
इन बातों के अलाबा लोगों के विभिन्न मत हैं पर उनमें कहीं न कहीं कुछ समानताएं हैं और उपरोक्त तथ्यों से कुछ न कुछ मेल खाते हैं।एक अधिवक्ता मित्र श्री संजय चक्रवर्ती के अनुसार दुर्गापूजा में माँ के साथ उनके सभी सन्तान और पति की पूजा होती है क्योंकि दैत्यों के विनाश में इन देवी-देवताओं का भी साथ था।सभी देवताओं के एक साथ पूजा होने के कारण ही इस पूजा को महापूजा कहा गया है और साधारणतः महाषष्ठी, महासप्तमी,महाष्टमी,महानवमी,महादशमी के नाम से जाना जाता है।
पूजा पंडाल के एक पुजारी श्री काली पदो चटर्जी जी के अनुसार भगवान राम ने सिर्फ माँ दुर्गा की पूजा की थी।परन्तु कालांतर में ऐसा माना गया कि माँ दुर्गा अपने मायके आती हैं तो साथ में अपने संतान और पति को भी लातीं हैं या संतान उनसे मिलने आते हैं,इसलिए सबकी पूजा एक साथ की जाने लगी।
एक अनुभवी व्यक्ति श्री ठाकुर के अनुसार यह पूजा बहुत बड़ी पूजा है और इतने बड़े पूजा में देवी-देवताओं के आवाहन के लिए बुद्धि,ज्ञान,वाकशक्ति की आवश्यकता होती है इसलिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
अतः उपरोक्त सभी बातों को समग्र रूप से मिलाकर समझा जाये तो यह स्पष्ट होता है कि माँ दुर्गा की पूजा में अन्य देवी-देवताओं के साथ सरस्वती जी की पूजा बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक है।

भारत की भाषाएँ

भारत की भाषाएँ
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आधिकारिक भाषाएँ 
संघ-स्तर पर हिन्दी, अंग्रेज़ी 
भारत का संविधान आठवीं अनुसूची 
असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, संथाली,तमिल, तेलुगू, उर्दू
केवल राज्य-स्तर 
गारो, गुरुंग, खासी, कोकबोरोक, लेप्चा, लिंबू, मंगर, मिज़ो, नेवारी, राइ, शेर्पा, सिक्किमी, सुनवार, तमांग
प्रमुख अनौपचारिक भाषाएँ दस लाख से ऊपर बोली जाने वाली 
अवधी, बघेली, बागड़ी, भीली, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तिसगढ़ी, ढूंढाड़ी, गढ़वाली, गोंडी, हाड़ौती, हरियाणवी, हो, कांगडी, खानदेशी, खोरठा, कुमाउनी, कुरुख, लम्बाडी, मगही, मालवी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मुंडारी, निमाड़ी, राजस्थानी, सदरी, सुरुजपुरी, तुलु, वागड़ी, वर्हाड़ी
१ लाख – १० लाख बोली जाने वाली 
आदी, अंगामी, आओ, दिमशा, हाल्बी, कार्बी, खैरिया, कोडावा, कोलामी, कोन्याक, कोरकू, कोया, कुई, कुवी, लद्दाखी, लोथा, माल्टो, मिशिंग, निशी, फोम, राभा, सेमा, सोरा, तांगखुल, ठाडो

2Veena Tanwar और विनाेद कुमार जैन वाग्वर

बंगाल में शारदा पूजा

बंगाल में शारदा पूजा 

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सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है। 
परमेश्वर ही परम ऊर्जा 
सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरित होती है इसलिए उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है, ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है 
'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते' 
अर्थात
पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण ही रहता सदा
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा।
पूर्ण और अंश का नाता ही परमात्मा और आत्मा का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है।
इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करें।
सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है। वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन वन दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है-
सर्वमंगल मांगल्ये शिवा सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें सृष्टि का उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण रे अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है। 
बंगाल में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ का आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड अज द फादर अॉफ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। बंगाल में संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित उसकी मायके में अगवानी करती हैं। हिमवान पर्वतेश्वर हैं। उनकी बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है। 
बुद्धिमान गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ग्यान की देवी शारदा न समृद्धि का देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं। अन्य प्रसंग में सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ धन पर ग्यान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है।
दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहेतर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे सिंहवाहिनी होकर महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपात करती हैं। पराक्रमी होते हुए भी वे लज्जाशील हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर वे मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार ही जीत बन जाती है।
आरंभ में दुर्गा पूजन वासंती नवरात्रि में किया जाता था। कालांतर में विजयादशमी को पर्व रूप में मनाए जाने पर दुर्गा पूजन शारदीय नवरात से संलग्न हो गया ।

हिंदी में चरण

हिंदी में चरण 
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छू लो तो "चरण"
अड़ा दो तो "टाँग"
भारी हो जाए तो "पैर"
आगे बढ़ाना हो तो "क़दम"
राह में चिन्ह छोड़े तो "पद"
फूलने लगें तो "पाँव"
प्रभु के हों तो "पाद"
बाप की हो तो "लात"
गधे की पड़े तो "दुलत्ती"
घुंघरू बाँध दो तो "पग"
खाने के लिए "टंगड़ी"
खेलने के लिए "लंगडी"
हिन्दी शाश्वत है.

मुक्तक

मुक्तक
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चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
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दोहा सलिला

दोहा सलिला 

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माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
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वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत 
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गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण 
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
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ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार 
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार 
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शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद 
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद 
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नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण 
*
७.१०.२०१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला
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भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
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फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान।
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
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कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम।
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
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मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान।
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
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मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव।
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
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प्रणति-गीत

प्रणति-गीत
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शत-शत नमन पूज्य माँ-पापा
यह जीवन है
देन तुम्हारी.
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वसुधा-नभ तुम, सूर्य-धूप तुम
चंद्र-चाँदनी, प्राण-रूप तुम
ममता-छाया, आँचल-गोदी
कंधा-अँगुली, अन्न-सूप तुम
दीप-ज्योति तुम
'मावस हारी
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दीपक-बाती, श्वास-आस तुम
पैर-कदम सम, 'थिर प्रयास तुम
तुमसे हारी सब बाधाएँ
श्रम-सीकर, मन का हुलास तुम
गयी देह, हैं
यादें प्यारी
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तुममें मैं था, मुझमें तुम हो
पल-पल सँग रहकर भी गुम हो
तब दीखते थे आँख खोलते
नयन मूँद अब दीखते तुम हो
वर दो, गहें
विरासत प्यारी
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रहे महकती सींचा जिसको
तुमने वह
संतति की क्यारी
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७.१०.२०१८