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रविवार, 16 अप्रैल 2023

मुक्तक, कुण्डलिया, गीत, नवगीत, अव्यक्त अग्रवाल, समीक्षा, दोहा, जनक छंद, बाँस, छत्तीसगढ़ी,

मुक्तक

आमंत्रण या आवश्यकता अगर नहीं तो चुप ही रहिए।
सीख सीखिए, मत सिखाइए, नहीं सहारा नाहक गहिए।।
बिन माँगे सलाह बेमानी, कोई उस पर गौर न करता-
हो संजीव जीव सब लखिए, जो हो श्रेष्ठ उसी को तहिए।।
***
प्रश्नोत्तर
हिंदी धर्म में कन्या को लक्ष्मी कहा जाता है तो कन्यादान क्यों किया जाता है?
कुण्डलिया
सुता लक्ष्मी सत्य है, करिए उसका दान।
नहीं किया तो टैक्स भर, हो जाएँ हैरान।।
हो जाएँ, हैरान, लगे जी एस टी भारी।
वैल्थ टैक्स दे लगे, भार कन्या बेचारी।।
सौंप और को भार, हुआ बेफिक्र हर पिता।
शीघ्र खोज दामाद, सौंपिए उसीको सुता।
१६-४-२०२३
***
जीवन में अनमोल क्या है?
कुण्डलिया
जीवन में अनमोल है, आती-जाती श्वास।
रंग श्वास में भर रही, मन में पलती आस।।
मन में पलती आस, सास साली अरु सलहज।
अगर न हों तो, करें किस तरह श्वसुरालय हज।।
कहता कवि संजीव, पत्नि बिन सकल सृष्टि वन।
खटिया करती खड़ी, मगर संजीवित जीवन।।
१६-४-२०२३
***
गीत:
जीवन के ढाई आखर को
*
बीती उमर नहीं पढ़ पाये, जीवन के ढाई आखर को
गृह स्वामी की करी उपेक्षा, सेंत रहे जर्जर बाखर को...
*
रूप-रंग, रस-गंध चाहकर, खुदको समझे बहुत सयाना
समझ न पाये माया-ममता, मोहे मन को करे दिवाना
कंकर-पत्थर जोड़ बनायी मस्जिद, जिसे टेर हम हारे-
मन मंदिर में रहा विराजा, मिला न लेकिन हमें ठिकाना
निराकार को लाख दिये आकार न छवि उसकी गढ़ पाये-
नयन मुँदे मुस्काते पाया कण-कण में उस नटनागर को...
*
श्लोक-ऋचाएँ, मंत्र-प्रार्थना, प्रेयर सबद अजान न सुनता
भजन-कीर्तन,गीत-ग़ज़ल रच, मन अनगिनती सपने बुनता
पूजा-अनुष्ठान, मठ-महलों में रहना कब उसको भाया-
मेवे छोड़ पंजीरी फाके, देख पुजारी निज सर धुनता
खाये जूठे बेर, चुराये माखन, रागी किन्तु विरागी
एक बूँद पा तृप्त हुआ पर है अतृप्त पीकर सागर को...
*
अर्थ खोज-संचित कर हमने, बस अनर्थ ही सदा किया है
अमृत की कर चाह गरल का, घूँट पिलाया सतत पिया है
लूट तिजोरी दान टेक का कर खुद को पुण्यात्मा माना-
विस्मित वह पाखंड देखकर मनुज हुआ पाषाण-हिया है
कैकट्स उपजाये आँगन में, अब तुलसी पूजन हो कैसे?
देश निकाला दिया हमीं ने चौपालों पनघट गागर को
१६-४-२०२१
...
पुस्तक सलिला
'सही के हीरो' साधारण लोगों की असाधारणता की मार्मिक कहानियाँ
*
[पुस्तक विवरण- सही के हीरो, कहानी संग्रह, ISBN 9789385524400, डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण पेपर बैंक बहुरंगी, कहानीकार संपर्क- डी ७ जसूजा सिटी, जबलपुर ४८२००३]
*
मनुष्य में अनुभव किये हुए को कहने की अदम्य इच्छा वाक् क्षमता के रूप में विकसित हुई। अस्पष्ट स्फुट ध्वनियाँ क्रमशः सार्थक संवादों के रूप में आईं तो लयबद्ध कहन कविता के रूप में और क्रमबद्ध कथन कहानी के रूप में विकसित हुए। कहानी, कथा, किस्सा, गल्प, गप्प और चुटकुले विषयवस्तु के आकार और कथ्य के अनुरूप प्रकाश में आये। गद्य में निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत्त, व्यंग्य लेख, आत्मकथा, समीक्षा आदि विधाओं का विकास होने के बाद भी कहानी की लोकप्रियता सर्वकालों में सर्वाधिक थी, है और रहेगी। कहानी वह जो कही जाए, अर्थात उसमें कहे जाने और सुने जाने योग्य तत्व हों। वर्तमान पूँजीवादी राजनीति-प्रधान व्यक्तिपरक जीवन शैली में साहित्य संसाधनों और पहुँच के सफे पर हाशिये में रखे जा रहे जीवट और संघर्ष को पुनर्जीवन दे रहा है।
स्वतंत्रता के पश्चात अहिंसा की माला जपते दल विशेष ने सत्ता पर और हिंसा पर भरोसा करनेवाले अन्य दल विशेष ने शिक्षा संस्थानों और साहित्यिक अकादमियों पर कब्ज़ा कर साहित्यिक विधाओं में वैषम्य और विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण को सामने लाकर सामाजिक संघर्ष को तेज करनेवाले साहित्य और साहित्यकारों को पुरस्कृत किया। फलतः, आम आदमी के नाम पर स्त्री-पुरुष, संपन्न-विपन्न, नेता-जनता, श्रमिक-उद्योगपति, छात्र-शिक्षक, हिन्दू-मुस्लिम आदि के नाम पर टकराव ने सद्भाव, सहयोग, सहकार, विश्वास, निष्ठा आदि को अप्रासंगिक बनने का काम किया। इस पृष्ठभूमि में अत्यन्त अल्प संसाधनों और पिछड़े क्षेत्र से संघर्ष कर स्वयं को विशेषज्ञ चिकित्सक के रूप में स्थापित कर, अपने मरीजों के इलाज के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्ष को पहचान कर मानसिक संबल देनेवाले डॉ. अव्यक्त अग्रवाल ने निर्बल का बल बनने के अपने महाभियान में विवेच्य कहानी संग्रह के माध्यम से पाठकों को भी सहभागी बनने का अवसर दिया है।
इस कहानी संग्रह के अधिकांश पात्र निम्न जीवन स्तर और विपन्नता की मेंड़ पर लगातार चुभ रहे काँटों के बीच पैर रखते हुए आगे बढ़ते हैं। नियति ने भले ही इन्हें मरने के लिए पैदा किया हो पर अपनी जिजीविषा के सहारे ये मौत के अनुकूल परिस्थितियों से जूझकर जीवन का राजमार्ग तलाश पाते हैं। साहित्य के प्रभाव, उपयोगिता और पठनीयता पर प्रश्न उठानेवाले इस संग्रह को पढ़ें तो उनके जीवन की नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता का वरण कर सकेगी। परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँसकर लहूलुहान होते हुए भी ऊपर उठने और आगे बढ़ने को प्रेरित करते इस कथा-संग्रह में कथाकार शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता है। कहानी के पात्र पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगति के हलाहल को कंठ में धारकर अपने सपने पूरे होते देखने का अमृत पान करते हुए कहीं काल्पनिक प्रतीत नहीं होते। ये कहानियाँ वास्तव में कल से प्राप्त विरासत को आज सँवार-सुधार कर कल को उज्जवल थाती देने का सारस्वत अनुष्ठान हैं।
'सही के हीरो' शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित देबाशीष साहा द्वारा निर्मित चित्र ही यह बता देता कि आम आदमियों के बीच में से उभरते हुए चरित नायक अपनी भाषा, भूषा, सोच और संघर्ष के साथ पाठक से रू-ब-रू होंगे। मर्मस्पर्शी कहानियाँ तथा प्रेरक कहानियाँ और संस्मरण दो भागों में क्रमशः १० + १८ कुल २८ हैं। संस्मरणात्मक कहानियाँ, पाठक को देखकर भी अनदेखे किये जाते पलों और व्यक्तियों से आँखें मिलाने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं। पात्रों और परिवेश के अनुकूल शब्द-चयन और वाक्य-संरचना कथानक को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। अंतर्जाल पर सर्वाधिक बिकनेवाले संग्रहों में सम्मिलित इस कृति की प्रथम कहानी 'लाइफगार्ड' के नायक एक बेसहारा बच्चे विक्टर को फ्रांसिस पालता है, युवा विक्टर अन्य बेसहारा बच्चे एडम को अपना लेता है और उसे विमाता से बचाने के लिए अपनी प्रेमिका से विवाह करने से कतराता है। डूबते फ्रांसिस को बचाते हुए मौत के कगार पर पहुँचे विक्टर की चिकित्सा अवधि के मध्य विक्टर की प्राणरक्षा की दुआ माँगते एडम और मारिया एक दूसरे के इतने निकट आ जाते हैं कि नन्हा एडम विक्टर से मारिया मम्मी की माँग कर उसे नया जीवन देता है।
कहानी 'चने के दाने' एक न हो सके किशोर प्रेमियों के पुनर्मिलन की मर्मस्पर्शी गाथा है। कठोर ह्रदय पाठकों की भी ऑंखें नम कर सकने में समर्थ 'आधी परी' तथाकथित समझदारों द्वारा स्नेह-प्रेम की आड़ में अल्पविकसित का शोषण करने पर आधारित है। तरुणी प्रीति के बहाने जीवनसाथी चुनते समय स्वस्थ्य - समझ का संदेश देती है 'पासवर्ड' कहानी। 'एक अलग प्रेम कहानी' साधनहीन ग्रामीण दंपति के एकांतिक प्रेम के समान्तर चिकित्सक-रोगी के बीच महीन विश्वास तन्तु के टूटने तथा बढ़ते व्यवसायीकरण को इंगित करती व्यथा-कथा है। पारिवारिक रिश्तों के बिखरने पर केंद्रित चलचित्र 'बावर्ची' में नायक घरेलू नौकर बनकर परिवार के सदस्यों के बीच मरते स्नेह बंधन को जीवित करता है। कहानी जादूगर में नायिका के कैशोर्य काल का प्रेमी जो अब मनोचिकित्सक है, नायिका में उसके पति के प्रति घटते प्रेम को पुनर्जीवित करता है। 'बहुरुपिया' में साधनहीन भाई-बहिन का निर्मल प्रेम, 'आइसक्रीम कैंडी' में राजनेताओं के कारण आहत होते आमजन, 'ज़िंदगी एक स्टेशन' में बदलते सामाजिक ढाँचे के कारण स्थापित व्यवसायों के अलाभप्रद होने की समस्या और समाधान तथा 'मेरा चैंपियन' में पिता के सपने को पूरा करते पुत्र की कहानी है।
दूसरे भाग में 'सही का हीरो' एक साधनहीन किन्तु अपने सपने साकार करने के प्रति आत्मविश्वास से भरे बच्चे की कथा है। 'गूगल' किसी घटना को देखने के दो भिन्न दृष्टिकोण, 'मैं ठीक हूँ' मौत के मुख से लौटी नन्हीं बच्ची द्वारा जीवन की हर साँस का आनंद लेने की सीख, 'दुश्वारियाँ एक अवसर' अपंग बच्चे के संकल्प और सफलता, 'सफलता मंत्र' जीवन का आनंद लेने, 'मेरी पचमढ़ी और मैं' संस्मरण, 'आसान है' में सच को स्वीकार कर औरों को ख़ुशी देने, 'उमैया एक तमाशा' विपन्न बच्चों में छिपी प्रतिभा, 'एक और सुबह' बचपन की यादों, 'फाँस' जीवनानंद की खोज, 'लोकप्रियता का रहस्य' अपनी क्षमताओं की पहचान, 'वो अधूरी कहानी' जीवन के उद्देश्य की पहचान, 'सफलता सबसे शक्तिशाली मंत्र ' निज सामर्थ्य से साक्षात्, 'स्वतः प्रेरणा' मन की आवाज़ सुनने, 'हम सब रौशनी पुंज' निराशा में आशा, 'हवा का झौंका समीर' में बेसहारा बच्चों के लालन-पालन तथा 'ज़िन्दगी एक चैस बोर्ड' में अपने उद्देश्य की तलाश को केंद्र में रखकर कथा का ताना-बाना बुना गया है।
'सही का हीरो' कहानी संग्रह की विशेषता इसमें साधारणता का होना है। अधिकांश कहानियाँ जीवन में घटी वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। यथार्थ को कल्पना का आवरण पहनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि मूल घटना और पात्रों की विश्वसनीयता, उपयोगिता और सन्देशवाहकता बनी रहे। अधिकांश घटनाएँ और पात्र पाठक के इर्द-गिर्द से ही उठाये गए हैं किन्तु उन्हें देखने की दृष्टि, उनके मूल्याङ्कन का नज़रिया और उसने सीख लेने का हौसला बिलकुल नया है। इन कहानियों में अभाव-उपेक्षा, टकराव-बिखराव, सपने-नपने, गिराव-उठाव, निराशा-आशा, अवनति-उन्नति, विफलता-सफलता, नासमझी और समझदारी अर्थात जीवन रूपी इंद्रधनुष का हर रंग अपनी चमक और चटख के साथ उपस्थित है। नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय, पाठक को लड़ने, बदलने और जीतने का सन्देश देती है। शिल्प की दृष्टि से ये रचनाएँ कहानी, लघुकथा, संस्मरण, शब्द चित्र आदि विधाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल की भाषा सहज, सरस, सुगम, विषय, पात्र और परिवेश के अनुकूल है। किसी पहाड़ी से नि:सृत निर्झर की तरह अनगढ़पने में देने की आकुलता, नया ग्रहण करने की आतुरता और सबको अपना लेने की उत्सुकता पात्रों को जीवंत और प्रेरणादायी बनाती है। अव्यक्त जी खुद घटना को व्यक्त नहीं करते, वे पात्र या घटना को सामने आने देते हैं। कम से कम में अधिक से अधिक कहने का कौशल सहज नहीं होता किन्तु अव्यक्त जी इसे कुशलतापूर्वक साध सके हैं। वे पात्र के मुँह में शब्द ठूँसने या कहलाने का कोई प्रयास नहीं करते। उनके पात्र न तो भदेसी होने का दिखावा करते हैं, न सुसंस्कृत होने का पाखण्ड। कथ्य संक्षिप्त - गठा हुआ, संवाद सारगर्भित, भाषा शैली सहज - प्रचलित, शब्द चयन सम्यक - उपयुक्त, मुहावरों का यथोचित प्रयोग, हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन के अनुसार प्रयोग पाठक को बाँधता है। इस उद्देश्यपूर्ण कृति का सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्य में शुमार होना आश्वस्त करता है कि हिंदी तथा साहित्य के प्रेमी पाठकों का अभाव नहीं है। सही के हीरो' ही देश और समाज का गौरव बढ़ाकर मानवता को परिपुष्ट करते हैं। अव्यक्त जी को इस कृति हेतु
बधाई
। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
------
दोहा सलिला
*
अरुणचूर दे रहा है, अरुण देखकर बाँग
जो सोये वे कह रहे, व्यर्थ अड़ाता टाँग
*
कन्याएँ धरना धरे, पूर्ण कीजिए माँग
क्वाँरे झट सिंदूर ले, पहुँचे भरने माँग
*
वह बोली यह टाँग दे, वह भागा हो भीत
टाँग न दूँ मैं तो कभी, कैसी है यह रीत
*
संजीव
१६-४-२०२०
मनरंजन:
प्रस्तुत दोहे का अर्थ व रचनाकार बताएँ
अम्बुज अरि पति ता सुता ता पति उर को हार।
ता अरि पति कि भामिनी आई बसै यही द्वार।।
वास्तु विमर्श
*
पूर्व, पूर्वोत्तर व उत्तर दिशा में भगवान का चित्र स्थापित कर, उसकी ओर मुँह कर पूजन करें।
पूर्व सूर्य भगवान के प्रागट्य की दिशा है।
उत्तर में दिशादर्शक ध्रुवतारा है।
एक दिन में पथ प्रदर्शन करता है दूसरा रात में राह दिखाता है। दोनों के मध्य ईशान दिशा को ईश का स्थान मानता है वास्तुशास्त्र।
यह विग्यान सम्मत भी है। सूर्य प्रकाश और ऊर्जा के अक्षय स्रोत हैं। वे जीवनदाता हैं। सूर्य किरणें प्रकाश देती हैं, विषाणुओं को नष्ट करती हैं, विटामिन डी देती हैं, आतिशी शीशे का प्रयोग कर इनसे आग सुलगाई जा सकती है।
विश्व के प्रतापी राजवंश खुद को सूर्यवंशी कहते रहे हैं।
'भा' धातु का अर्थ प्रकाशित करना है इसलिए सूर्य भास्कर और हमारा देश 'भारत' है। हमें इंडिया नहीं होना है।
सूर्योपासना कुष्ठ रोग निवारक बताई गई है।
वास्तु के अनुसार आवास में सूर्य प्रकाश आना आवश्यक है। यदि न आता हो तो यथासंभव रोज या सप्ताह में एक दिन धूप में कुछ घंटे बिताएँ। पश्चिमी देशों में लोग समुद्र तट पर जाकर 'सन बाथ' लेते हैं अर्थात नयूनतम वस्त्रों में देह को सूर्य प्रकाश ग्रहण कराते हैं। यह फैशन या निर्लज्जता नहीं, प्राकृतिक चिकित्सा है। हमारे गाँवों में पनघट, नदी, तालाब या कुएँ पर स्नान करने की परंपरा इसीलिए है कि शुद्ध प्राणवायु और सूर्यप्रकाश का मणिकांचन संयोग हो सके।
कुंभादि पर्वों पर अगणित मनुष्यों के स्नान के समय सूर्य किरणें विषाणु नष्ट करती रहती हैं। वर्तमान कोरोना संकट का विकरालतम रूप वहीं है जहाँ सूर्य देव की कृपा कम है। हम रोज सवेरे सूर्योदय के समय उन्हें प्रणाम कर दीर्घ - निरोगी तथा कर्मप्रधान जीवन की कामना करें। सूर्य स्वानुशासन, कर्मठता, नियमितता तथा निष्काम कर्म के जीवंत प्रतीक हैं।
*

नव प्रयोग
दोहा-जनक छंद
*
विधि-विधान से कार्य कर, ब्रह्मा रहें प्रसन्न
याद रखें गुरु-सीख तो, विपद् न हो आसन्न
बात मीठी ही कहिए
मुकुल मन हँसते रहिए
स्नेह सलिला सम बहिए
*


मुक्तक
*
पंडित को पेट हेतु राम की जरूरत है
मंदिर को छत हेतु खाम की जरूरत है
सीता को दंडित कर राजदंड ठठा रहा
काल कहे नाश परिणाम की जरूरत है
*
रोजी और रोटी ही अवाम की जरूरत है
हाथों को भीख नहीं काम की जरूरत है
स्वाति सलिल मोतियों के ढेर लगा देंगे पर
मोल लेने के लिए दाम की जरूरत है
*
शीत कहे सूर्य तपो घाम की जरूरत है
जेठ कहे अब न तपो शाम की जरूरत है
सूर्य ठिठक सोच रहा, जो कहते कहने दो
पहले कर काम फिर आराम की जरूरत है
*
आधुनिका को चिकने चाम की जरूरत है
मद्यप को साकी को जाम की जरूरत है
सत्ता को अमन-चैन से न रहा वास्ता
कैसे भी, कहीं भी हो लाम की जरूरत है
*
कोरोना को तुरत लगाम की जरूरत है
घर में खुश रह कहें विराम की जरूरत है
मदद करें यथाशक्ति, पढ़ें-लिखें, योग करें
साहस सुख शांति दे, अनाम की जरूरत है
*
१६-४-२०२०

***
भक्ति गीत :
कहाँ गया
*
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
*
कण-कण में तू रम रहा
घट-घट तेरा वास.
लेकिन अधरों पर नहीं
अब आता है हास.
लगे जेठ सम तप रहा
अब पावस-मधुमास
क्यों न गूंजती बाँसुरी
पूछ रहे खद्योत
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
*
श्वास-श्वास पर लिख लिया
जब से तेरा नाम.
आस-आस में तू बसा
तू ही काम-अकाम.
मन-मुरली, तन जमुन-जल
व्यथित विधाता वाम
बिसराया है बोल क्यों?
मिला ज्योत से ज्योत
कहाँ गया रणछोड़ रे!,
जला प्रेम की ज्योत
*
पल-पल हेरा है तुझे
पाया अपने पास.
दिखता-छिप जाता तुरत
ओ छलिया! दे त्रास.
ले-ले अपनीं शरण में
'सलिल' तिहारा दास
दूर न रहने दे तनिक
हम दोनों सहगोत
कहाँ गया रणछोड़ रे!
जला प्रेम की ज्योत
***
दोहा दुनिया
*
नेह-नर्मदा नहा ले, गर्मी होगी शांत
जी भर जलजीरा गटक, चित्त न पित्त अशांत
*
नित्य निनादित नर्मदा, कलकल सलिल प्रवाह
ताप किनारे ही रुका, लहर मिटाती दाह
*
परकम्मा करते चरण, वरते पुण्य असीम
छेंक धूप को छाँह दें, पीपल, बरगद, नीम
*
मन कठोर चट्टान सा, तप पा-देता कष्ट
जल संतों सा तप करे, हरता द्वेष-अनिष्ट
*
मग पर पग पनही बिना, नहीं उचित इस काल
बाल न बाँका लू करे, पनहा पी हर हाल
*
गाँठ प्याज की संग रख, लू से करे बचाव
मट्ठा पी ठट्ठा करो, व्यर्थ न खाओ ताव
*
भर गिलास लस्सी पियो, नित्य मलाईदार
कहो 'नर्मदे हर' सलिल, एक नहीं कई बार
*
पीस पोदीना पत्तियाँ, मिर्ची-कैरी-प्याज
काला नमक व गुड़ मिला, जमकर खा तज लाज
*
मीठी या नमकीन हो, रुचे महेरी खूब
सत्तू पी ले घोलकर, जा ठंडक में डूब
*
खरबूजे-तरबूज से, मिले तरावट खूब
लीची खा संजीव नित, मस्ती में जा डूब
*
गन्ना-रस ग्लूकोज़ का, करता दूर अभाव
गुड़-पानी अमृत सदृश, पार लगाता नाव
*
***
छंद बहर का मूल है: ४
कुंडल छंद
*
छंद परिचय:
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद
चौदह वार्णिक शर्करी जातीय छंद।
संरचना: SIS ISI SIS ISI SS
सूत्र: रजरजगग।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़ऊलुं।
*
प्रात, शाम, रात रोज आप ही सुहाए
मौन हेरता रहा न आज आप आए
*
छंद-गीत, राग-रीत कौन सीखता है?
शारदा कृपा करें तभी न सीख पाए
*
है कहाँ छिपा हुआ, न चाँद दीखता है
दीप बाल-बाल रात ही न हार जाए
*
दूर बैठ ताकती , न भू भुला सकी है
सूर्य रश्मि-रूप धार श्वास में समाए
*
आसमान छेदता, दिशा-हवा न रोके
कामदेव चित्त को अशांत क्यों बनाये?
*
प्रेमिका न ज्ञान-दान प्रेम चाहती है
रुठती न, रूठना दिखा-दिखा खिझाए
*
हारता न, हार-हार प्रेम जीतता है
जीतता न जीत-जीत, प्रेम ही हराए
*
१६.४.२०१७
***
* शादी या बर्बादी **
1. आ बैल मुझे मार = पत्नी से पंगा लेना।
2. दीवार से सिर फोड़ना = पत्नी को कुछ समझाना।
3. चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात = पत्नी का मायके से वापस आना।
4. आत्महत्या के लिए उकसाना = शादी की राय देना।
5. दुश्मनी निभाना = दोस्तों की शादी करवाना।
6. खुद का स्वार्थ देखना = शादी ना करना।
7. ओखली में सिर देना = शादी के लिए हां करना।
8. दो पाटों में पिसना = दूसरी शादी करना।
9. खुद को लुटते हुऐ देखना = पत्नी को पर्स से पैसे निकालते हुए देखना।
10. पैरों तले जमीन खिसकना = पत्नी का अचानक साक्षात सामने आना।
11. सिर मुंडाते ही ओले पड़ना = परीक्षा में फेल होते ही शादी हो जाना।
12. शादी के लिए हां करना = स्वेच्छा से जेल जाना।
13. साली आधी घर वाली = वह स्कीम जो दूल्हे को बताई जाती है लेकिन दी नहीं जाती
आभार: गुड्डो दादी
***
नवगीत
संजीव
.
बांसों के झुरमुट में
धांय-धांय चीत्कार
.
परिणिति
अव्यवस्था की
आम लोग
भोगते.
हाथ पटक
मूंड पर
खुद को ही
कोसते.
बाँसों में
उग आये
कल्लों को
पोसते.
चुभ जाती झरबेरी
करते हैं सीत्कार
.
असली हो
या नकली
वर्दी तो
है वर्दी.
असहायों
को पीटे
खाखी हो
या जर्दी.
गोलियाँ
सुरंग जहाँ
वहाँ सिर्फ
नामर्दी.
बिना किसी शत्रुता
अनजाने रहे मार
.
सूखेंगे
आँसू बह.
रक्खेंगे
पीड़ा तह.
बलि दो
या ईद हो
बकरी ही
हो जिबह.
कुंठा-वन
खिसियाकर
खुद ही खुद
होता दह
जो न तर सके उनका
दावा है रहे तार
***
नवगीत:
.
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
.
कथ्य अमरकंटक पर
तरुवर बिम्ब झूमते
डाल भाव पर विहँस
बिम्ब कपि उछल लूमते
रस-रुद्राक्ष माल धारेंगे
लोक कंठ बस छंद कन्त रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
.
दुग्ध-धार लहरें लय
देतीं नवल अर्थ कुछ
गहन गव्हर गिरि उच्च
सतत हरते अनर्थ कुछ
निर्मल सलिल-बिंदु तर-तारें
ब्रम्हलीन हों साधु-संत रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
.
विलय करे लय मलय
न डूबे माया नगरी
सौंधापन माटी का
मिटा न दुनिया ठग री!
ढाई आखर बिना न कोई
किसी गीत में तनिक तंत रे!
नेह नर्मदा-धारा मुखड़ा
गंगा लहरी हुए अंतरे
.
***
नव गीत:
.
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
इसको-उसको परखा फिर-फिर
धोखा खाया खूब
नौका फिर भी तैर न पायी
रही किनारे डूब
दो दिन मन में बसी चाँदनी
फिर छाई क्यों ऊब?
काश! न होता मन पतंग सा
बन पाता हँस दूब
पतवारों के
वार न सहते
माँझी होकर सूर
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
एक हाथ दूजे का बैरी
फिर कैसे हो खैर?
पूर दिये तालाब, रेत में
कैसे पायें तैर?
फूल नोचकर शूल बिछाये
तब करते है सैर
अपने ही जब रहे न अपने
गैर रहें क्यों गैर?
रूप मर रहा
बेहूदों ने
देखा फिर-फिर घूर
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
संबंधों के अनुबंधों ने
थोप दिये प्रतिबंध
जूही-चमेली बिना नहाये
मलें विदेशी गंध
दिन दोपहरी किन्तु न छटती
फ़ैली कैसी धुंध
लंगड़े को काँधे बैठाकर
अब न चल रहे अंध
मन की किसको परख है
ताकें तन का नूर
१६-४-२०१५
***
छत्तीसगढ़ी दोहा
*
हमर देस के गाँव मा, सुन्हा सुरुज विहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती रोय किसान..
*
जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत.
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिया-कुंदरा मीत..
*
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पैयाँ परत हौं. मूंडा पर धर हात..
*
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
*
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', मावस दूबर चंद..
१६.४.२०१०
***
आरोग्य-आशा:
स्व. शान्ति देवी वर्मा के नुस्खे
पारंपरिक चिकित्सा-विधि
*
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें। इनका प्रयोग स्वविवेक से करें।
वायु भगाएँ दूर :
एक चुटकी अजवाइन में नीबू रस की कुछ बूँदें डालकर थोड़े से नमक के साथ मिलाकर रगड़ लें। आधा कप पानी के साथ सेवन करने पर कुछ देर बाद वायु निकलना प्रारम्भ हो जायेगी।
पांडु रोग / पीलिया :
अदरक की पतली-पतली फाँकें नीबू के रस में डूबा दें। इसमें अजवाइन के दाने तथा स्वाद के अनुसार नमक मिला दें. अदरक का रंग लाल होने पर तीन-चार बार सेवन करने पर पांडु रोग में लाभ होगा.
इसक् साथ रोज सवेरे तथा शाम को किसी बगीचे या मैदान में जहाँ खूब पेड़-पौधे हों घूमना लाभदायक है। बगीचे में खूब गहरी-गहरी साँसें लें ताकि अधिक से अधिक ओषजन वायु शरीर में पहुँचे।
जोड़ों का दर्द:
सरसों के तेल में लहसुन तथा अजवाइन दल कर आग पर गरम करें। लहसुन काली पड़ने पर ठंडा कर छान लें और किसी शीशी में भर लें। इसकी मालिश करते समय ठंडी हवा न लगे। धीरे-धीरे दर्द कम होकर आराम मिलेगा।
यह तेल कान के दर्द को भी दूर करेगा. दाद, खारिश, खुजली में इसके उपयोग से लाभ होगा. कब्ज से बचें तथा कढ़ी, चांवल जैसा वायु बढ़ने वाला आहार न लें.
***

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

सॉनेट, दोहा, लघुकथा, छत्तीसगढ़ी, कांति शुक्ला, भव छंद, सोमराजी छंद

सॉनेट
कौन?
पूछ रहा मन मैं हूँ कौन?
हुआ कहाँ से मेरा आना?
उत्तर में छाया है मौन।।
जाना कहा? न कोई ठिकाना।।


रचनाकार कौन है मेरा?
कहो किसलिए मुझे बनाया?
पलट कभी क्या मुझे न हेरा?
भू पर काहे मुझे पठाया?


प्रश्न कई गायब हैं उत्तर।
छोड़ो चिंता, मौज मनाओ।
मुस्कान नव सॉनेट रचकर।।
खुद को रचनाकार बनाओ।।


जिसका अंश उसी के सम हो।
राई-नौन उतारो यम हो।।
१३-४-२०२३
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सॉनेट
आशा
पल में तोला, पल में माशा।
आशा और निराशा जीवन।
कर्म करो नित बिन प्रत्याशा।।
तभी बनेगी दुनिया मधुबन।।

सुख-दुःख दोनों साथी सच्चे।
धूप-छाँव आती-जाती है।
विहँस उतरते-चढ़ते बच्चे।।
मंज़िल छिनती-मिल जाती है।।

चुग्गा चुगती है गौरैया।
लेकिन खुद कम ही खाती है।
चूजे नाचें ता ता थैया।।
जब मैया चुग्गा लाती है।।

मन में आने दो न निराशा।
सच्ची जीवन साथ आशा।।
१३-४-२०२३
•••
मुक्तिका 
सपनों की लहरों
*
सपनों की लहरों मत रुकना।
टूट-बिखर, मत थक, फिर बढ़ना।।

बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में।
अपनी किस्मत खुद ही लिखना।।

बाँहों में हो, चाहों में जो।
छल कर खुद को खुद मत ठगना।।

मंज़िल तुम तक खुद आएगी।
चलना गिरना उठना चढ़ना।।

बाधाओं को चित्र मानकर।
फ्रेम कोशिशों का ले मढ़ना।।
१३-४-२०२३
•••
सॉनेट
आलोक
लोक में आलोक हो प्रभु!
तोम-तम भी साथ में हो।
हृदय में हो प्रेम हे विभु!
हाथ कोई हाथ में हो।
मुस्कुराएँ हम उषा में।
दोपहर में मेहनत कर।
साँझ झूमे मन खुशी से।।
रात में हो बात जी भर।।
नवाशा दीपक जलाएँ।
गीत गाएँ प्रयासों के।
तुझे सबमें देख पाएँ।।
रंग देखें उजासों के।।
तू बुलाए, दौड़ आएँ।
तुझे तुझसे ही मिलाएँ।।
१३-४-२०२२
•••
सामयिक दोहे
*
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
*
तब्लीगी की फ़िक्र में, बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
*
बुला रहा जो उसे हो, सबसे भारी दंड
देव लात के बात से, कब मानें उद्द्ण्ड
*
नेताजी की चाह है, हर दिन कहीं चुनाव
कोरोना की फ़िक्र तज, सरकारों का चाव
*
मंत्री जी पहिनें नहीं, मास्क न कोई बात
किंतु नागरिक खा रहे, रोज पुलिसिया लात
*
दवा-ओषजन है नहीं, जनगण है लाचार
शासन झूठ परोसता, हर दिन सौ सौ बार
*
दवा ब्लैक में बेचना, निज आत्मा को मार
लानत है व्यापारियों, पड़े काल की मार
*
अँधा शासन प्रशासन, बहरा गूँगे लोग
लाजवाब जनतंत्र यह, ' सलिल' कीजिए सोग
*
भाँग विष नहीं घोल दें, मुफ्त न पीता कौन?
आश्वासन रूपी सुरा, नेता फिर हों मौन
*
देश लाश का ढेर है, फिर भी हैं हम मस्त
शेष न कहीं विपक्ष हो, सोच हो रहे त्रस्त
*
लोकतंत्र में 'तंत्र' का, अब है 'लोक' गुलाम
आजादी हैं नाम की, लेकिन देश गुलाम
१३-४-२०२१
***
***
दोहे
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
तब्लीगी की फ़िक्र में बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
बुला रहा जो उसे हो सबसे भारी दंड
देव लात के बात से कब मानें उद्द्ण्ड
***
कैसी हो लघुकथा?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
यह यक्षप्रश्न ऐसा है जिसका हर पांडव अलग-अलग उत्तर देता है और यक्ष का उत्तर सबसे अलग होना ही है। अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में दो लघुकथाकारों के चार मत होते हैं, इसलिए एक ही लघुकथाकार अलग-अलग समय पर अलग-अलग बातें कहता है। बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.... संपादक जी के कहे अनुसार 'कम में अधिक' कहना है तो मेरे मत में 'लघु' को 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह 'कम से कम में अधिक से अधिक कहने' में समर्थ होना चाहिए। कितना लघु? हो यह कथ्य की माँग और कथाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है।एक-दो वाक्यों से लेकर लगभग एक पृष्ठ तक। पश्चात्वर्ती पर अधिक महत्वपूर्ण तत्व है 'कथा', कथा वह जो कही जाए, कही वह जाए जो कहने योग्य हो, कहने योग्य वह जिसे कहने का कुछ उद्देश्य हो, निरुद्देश्य कथा कही जाए या न कही जाए, क्या फर्क पड़ता है? सोद्देश्य कथा तो उपन्यास, आख्यायिका, और कहानी में भी कही जाती है। लघुकथा सबसे भिन्न इसलिए है कि इसमें 'पिन पॉइंटेड' कहना है। चरित्र चित्रण, कथोकथन आदि का स्थान नहीं है। लघु कथा में अ. लघुता, आ. कथात्मकता, इ. मर्मस्पर्शिता/मर्मबेधकता तथा ई. उद्देश्य परकता ये चार तत्व अनिवार्य हैं। शीर्षक, मारक वाक्य, अंत, भाषा शैली, शब्द चयन वाक्य संरचना आदि विधा के तत्व नहीं लेखक की शैली के अंग हैं। लघुकथा के कई प्रकार हैं। भारत में सनातन साहित्यिक-सामाजिक विरासत का अभिन्न हिस्सा लघुकथा कई प्रकार से लोककथा, पर्व कथा, बाल कथा, बोध कथा, दृष्टांत कथा, उपदेश कथा, नुक्क्ड़ कथा, यात्रा कथा, शिकार कथा, गल्प, गप्प, आख्यान आदिके रूप में कहीं गयी है। ये विधा के तत्व नहीं प्रकार है। लक्षणात्मकता, व्यञजनात्मकता, सरसता, सरलता, प्रासंगिकता, समसामयिकता आदि लघुकथा विशेष की विशेषता है तत्व नहीं। लघुकथा की सुदीर्घ विरासत, प्रकार और प्रभाव जितना भारत में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
***
दोहा सलिला
*
ओवरटाइम कर रहे, दिवस-रात यमदूत
शाबासी यमराज दें, भत्ते बाँट अकूत
*
आहुति पाकर चंडिका, कंकाली के साथ
भ्रमण करें भयभीत जग, झुका नवाये माथ
*
जनसंख्या यमलोक में, बढ़ी नहीं भूखंड
रेट हाई हैं आजकल, बढ़ी डिमांड प्रचंड
*
हैं रसूल एकांत में, सब बंदों से दूर
कह सोशल डिस्टेंसिंग, बंदे करें जरूर
*
गुरु कहते रख स्वच्छता, बाँटो कड़ा प्रसाद
कोई भूखा ना रहे, तभी सुनूँ अरदास
*
ईसा मूसा नमस्ते करें, जोड़कर हाथ
गले क्यों मिलें दिल मिले, जनम जनम का साथ
*
आज सुरेंद्र नरेंद्र का, है समान संदेश
सुर नर व्यर्थ न घूमिए, मानें परमादेश
*
भोले भंडारी कहें, खुले रखो भंडार
जितना दो उतना बढ़े, सच मानो व्यापार
*
मौन लक्ष्मी दे रहीं, भक्तों को संदेश
दान दिया धन दस गुना, हो दे लाभ अशेष
*
शारद के भंडार को, जो बाँटे ले जोड़
इसीलिए तो लगी है, नवलेखन की होड़
*
चित्र गुप्त हो रहे हैं, उद्घाटित नित आज
नादां कहते दुर्वचन, रहा न दूजा काज
***
नवगीत:
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना
बाँसगुला केश सजा हेरूँ ऐना
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना
बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना
बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद
बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना
बगदई मैया पूजूँ, बगियाना भूल
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना, बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल, ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती, सैना = संकेत, बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना, बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना, बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात, बिजना = बाँस का पंखा.
१३-४-२०२०
***
सामयिक दोहे
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सामयिक दोहे
*
लोकतंत्र की हो गई, आज हार्ट-गति तेज?
राजनीति को हार्ट ने, दिया सँदेसा भेज?
*
वादा कर जुमला बता, करते मन की बात
मनमानी को रोक दे, नोटा झटपट तात
*
मत करिए मत-दान पर, करिए जग मतदान
राज-नीति जन-हित करे, समय पूर्व अनुमान
*
लोकतंत्र में लोकमत, ठुकराएँ मत भूल
दल-हित साध न झोंकिए, निज आँखों में धूल
*
सत्ता साध्य न हो सखे, हो जन-हित आराध्य
खो न तंत्र विश्वास दे, जनहित से हो बाध्य
*
नोटा का उपयोग कर, दें उन सबको रोक
स्वार्थ साधते जो रहे, उनको ठीकरा लोक
*
'वृद्ध-रत्न' सम्मान दें, बच्चों को यदि आप।
कहें न क्या अपमान यह, रहे किस तरह माप?
*
'उत्तम कोंग्रेसी' दिया, अलंकरण हो हर्ष।
भाजपाई किस तरह ले, उसे लगा अपकर्ष।।
*
'श्रेष्ठ यवन' क्यों दे रहे पंडित जी को मित्र।
'मर्द रत्न' महिला गहे, बहुत अजूबा चित्र।।
*
'फूल मित्र' ले रहे हैं, हँसकर शूल खिताब।
'उत्तम पत्थर'विरुद पा, पीटे शीश गुलाब।।
*
देने-लेने ने किया, सचमुच बंटाढार।
लेन-देन की सत्य ही महिमा सलिल अपार।।
***
१३.४.२०१९
***
पुरोवाक :
कहने-पढ़ने योग्य जीवन प्रसंगों से समृद्ध कांति शुक्ल की कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कंठजनित ध्वनि का उपयोग सीखने के बाद ध्वनियों को अर्थ देकर भाषा का विकास किया। कालान्तर में ध्वनि संकेतों की प्रचुरता के बाद उन्हें स्मरण रखने में कठिनाई अनुभव कर विविध माध्यमों पर संकेतों के माध्यम से अंकित किया। सहस्त्रों वर्षों में इन संकेतों के साथ विशिष्ट ध्वनियाँ संश्लिष्ट कर लिपि का विकास किया गया। भूमण्डल के विविध क्षेत्रों में विचरण करते विविध मानव समूहों में अलग-अलग भाषाओँ और लिपियों का विकास हुआ। लिपि के विकास के साथ ज्ञान राशि के संचयन का जो क्रम आरम्भ हुआ वह आज तक जारी है और सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा। मौखिक या वाचिक और लिखित दोनों माध्यमों में देखे-सुने को सुनाने या किसी अन्य से कहने की उत्कंठा ने कहानी को जान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सभी जातियों में चला आ रहा है सब जगह उनका समाविश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना प्रधान और मार्मिक उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी।"१ प्राचीन कहानियों में कथ्यगत घटनाक्रम सिलसिलेवार तथा भाव प्रधान रहा जबकि आधुनिक कहानी में घटना-श्रृंखला सीधी एक दिशा में न जाकर, इधर-उधर की घटनाओं से जुड़ती चलती है जिनका समाहार अंत में होता है।
चितà¥�र में ये शामिल हो सकता है: 1 वà¥�यकà¥�ति, चशà¥�मे और कà¥�लोज़अप कल्पना-सापेक्ष गद्यकाव्य का अन्य नाम कहानी है... प्रेमचंद कहानी को ऐसी रचना मानते हैं "जिसमें जीवन के किसी अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। बाबू श्याम सुन्दर दस के अनुसार कहानी "एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।" पश्चिमी कहानीकार एडगर एलिन पो के अनुसार कहानी "इतनी छोटी हो कि एक बैठक में पढ़ी जा सके और पाठक पर एक ही प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए लिखी गई हो।" २ "कहानी साहित्य की विकास यात्रा में समय के साथ इसके स्वरुप, सिद्धांत, उद्देश्य एवं कलेवर में आया बदलाव ही जीवंतता का द्योतक है।"३ मेहरुन्निसा परवेज़ के शब्दों में "कहानी मनुष्य के अंतर्मन की अभिव्यक्ति है, मनुष्य के जीवित रहने का सबूत है, उसके गूँगे दुःख, व्यथा, वेदना का दस्तावेज है।"४ स्वाति तिवारी के अनुसार "कहानी गपबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होतीं। वे किसी मन का वचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है, उसकी जिजीविषा है, उसके बनते-बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष हैं, कहानी इसी जीवन की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है, विविधता है, अत: फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता।"५
सारत: कहानी जीवन की एक झलक (स्नैपशॉट) है। डब्ल्यू. एच. हडसन के अनुसार कहानी में एक हुए केवल एक केंद्रीय विचार होना चाहिए जिसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए।६ कांति जी की लगभग सभी कहानियों में यह केंद्रीय एकोन्मुखता देखी जा सकती है। 'बदलता सन्दर्भ' की धोखा तेलिन हो या 'मुकाबला ऐसा भी' की भौजी उनके चरित्र में यह एकोन्मुखता ही उन कहांनियों का प्राण तत्व है।
कहानी के प्रमुख तत्व कथा वस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य हैं। इस पृष्ठ भूमि पर श्रीमती कांति शुक्ल की कहानियाँ संवेदना प्रधान, प्रवाहपूर्ण घटनाक्रम युक्त कथानक से समृद्ध हैं। वे कहानियों के कथानक का क्रमिक विकास कर पाठक में कौतूहलमय उत्सुकता जगाते हुए चार्म तक पहुंचाती हैं। स्टीवेंसन के अनुसार "कहानी के प्रारम्भ का वातावरण कुछ ऐसा होना चाहिए कि किसी सुनसान सड़क के किनारे सराय के कमरे में मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में कुछ लोग धीरे-धीरे बात कर रहे हों" आशय यह कि कहानी के आरम्भ में मूल संवेदना के अवतरण हेतु वातावरण की रचना की जानी चाहिए। कांति जी इस कला में निपुण हैं। 'संभावना शेष' के आरम्भ में नायक का मोहभंग, 'आखिर कब तक' और 'आशा-तृष्णा ना मरे' में केंद्रीय चरित का स्वप्न टूटना, 'करमन की गति न्यारी' में नायिका के बचपन की समृद्धि, 'ना माया ना राम' में बिटियों पर पहरेदारी, 'मुकाबला ऐसा भी' के नायक का सुदर्शन रूप आदि मूल कथा के प्रागट्य पूर्व का वातावरण ऐसा उपस्थित करते हैं कि पाठक के मन में आगे के घटनाक्रम के प्रति उत्सुकता जागने लगती है।
कांति जी रचित कहानियों में पात्रों और घटनाओं का विकास इस तरह होता है कि कथानक द्रुत गति से विकसित होकर आतंरिक कुतूहल अथवा संघर्ष के माध्यम से परिणति की ओर अग्रसर होता है। वे पाठक को वैचारिक ऊहापोह में उलझने-भटकने का अवकाश ही नहीं देतीं। 'समरथ का नहीं दोष गुसाई' में ठाकुर-पुत्र के दुर्व्यवहार के प्रत्युत्तर में पारबती की प्रतिक्रिया, उसकी अम्मा की समझाइश, ईंधन की कमी, पारबती का अकेले जाना, न लौटना और अंतत: मृत शरीर मिलना, यह सब इतने शीघ्र और सिलसिलेवार घटता है कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य घटनाक्रम की सम्भावना भी पाठक के मस्तिष्क में नहीं उपजती। कांति जी कहानी के कथानक के अनुरूप शब्द-जाल बुनने में दक्ष हैं। 'तेरे कितने रूप' में वैधव्य का वर्णन संतान के प्रति मोह में परिणित होता है तो 'संकल्प और विकल्प' में नवोढ़ा नायिका को मिली उपेक्षा उसके विद्रोह में। संघर्ष, द्वन्द, कुतूहल, आशंका, अनिश्चितता आदि मनोभावों से कहानी विकसित होती है। '५ क' (क्या, कब, कैसे, कहाँ और क्यों?) का यथावश्यक-यथास्थान प्रयोग कर कांति जी कथानक का विकास करती हैं।
इन कहानियों में आशा और आशंका, उत्सुकता और विमुखता, संघर्ष और समर्पण, सहयोग और द्वेष जैसे परस्पर विरोधी मनोभावों के गिरि-शिखरों के मध्य कथा-सलिला की अटूट धार प्रवाहित होकर बनते-बिगड़ते लहर-वर्तुलों की शब्दाभा से पाठक को मोहे रखती है। वेगमयी जलधार के किसी प्रपात से कूद पड़ने या किसी सागर में अचानक विलीन होने की तरह कहानियों का चरम आकस्मिक रूप से उपस्थित होकर पाठक को अतृप्त ही छोड़ देता है। ऐसा नहीं होता, यह कहानीकार की निपुणता का परिचायक है। कांति जी की कहानियों की परिणिति (क्लाइमेक्स) में ही उसका सौंदर्य है, इनमें निर्गति (एंटी क्लाईमेक्स) के लिए स्थान ही नहीं है। सीमित किन्तु जीवंत पात्र, अत्यल्प, आवश्यक और सार्थक संवाद, विश्लेषणात्मक चरित्र चित्रण, वातावरण का जीवंत शब्दांकन, इन कहानियों में यत्र-तत्र दृष्टव्य है।
कहानी के सकल रचना प्रसार में तीन स्थल आदि, मध्य और अंत बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। आरम्भ पूर्वपीठिका है तो अंत प्रतिपाद्य, मध्य इन दोनों के मध्य समन्वय सेतु का कार्य करता है। यदि अंत का निश्चय किए बिना कहानी कही जाए तो वह मध्य में भटक सकती है जबकि अंत को ही सब कुछ मान लिया जाए तो कहानी नद्य में प्रचारात्मक लग सकती है। इन तीनों तत्वों के मध्य संतुलन-समन्वय आवश्यक है। कांति जी इस निकष पर प्राय: सफल रही हैं। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के अनुसार 'आड़ी और 'आंत के तारतम्य में 'आंत को अधिक महत्त्व देना चाहिए क्योंकि मूल परिपाक का वही केंद्र बिंदु है।७ कांति जी की कहांनियों में अंत अधिकतर मर्मस्पर्शी हुआ है। 'अनुरक्त विरक्त' और 'चाह गयी चिंता मिटी' के अंत अपवाद स्वरूप हैं।
कहानी में कहानीकार का व्यक्तित्व हर तत्व में अन्तर्निहित होता है। शैली के माध्यम से कहानीकार की अभिव्यक्ति सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ एक्सप्रेशन) की परीक्षा होती है। कहानी में कविता की तुलना में अधिक और उपन्यास की तुलना में अल्प विवरण और वर्णन होते हैं। अत: वर्णन-सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ नरेशन) की परीक्षा भी शैली के माध्यम से होती है। भाषा, भाव और कल्पना अर्थात तन, मन और मस्तिष्क... इन कहानियों में इन तत्वों की प्रतीति भली प्रकार की जा सकती है। कांति जी की कहानियों का वैशिष्ट्य घटना क्रम का सहज विकास है। कहीं भी घटनाएँ थोपी हुई या आरोपित नहीं हैं। चरित्र चित्रण स्वाभाविक रूप से हुआ है। कहानीकार ने बलात किसी चरित्र को आदर्शवाद, या विद्रोह या विमर्श के पक्ष में खड़ा नहीं किया है, न किसी की जय-पराजय को ठूँसने की कोशिश की है।
कहानी के भाषिक विधान के सन्दर्भ में निम्न बिंदु विचारणीय होते हैं- भाषा पात्र को कितना जीवन करती है, भाषा कहानी की संवेदना को कितना उभारती है, भाषा कहानी के केन्द्रीय विचार को कितना सशक्त तरीके के व्यक्त करती है, भाषा कहानी के घटना क्रम के समय के साथ कितना न्याय करती है तथा भाषा वर्तमान युग सन्दर्भ में कितनी ग्राह्य और सहज है।८ ये कहानियाँ वतमान समय से ही हैं अत: समय के परिप्रेक्ष्य की तुलना में पात्र, घटनाक्रम और केन्द्रीय विचार के सन्दर्भ में इन कहानियों की भाषा का आकलन हो तो कांति जी अपनी छाप छोड़ने में सफल हैं। प्राय: सभी कहानियों की भाषा देश-काल. पात्र और परिस्थिति अनुकूल है।
कहानी का उद्देश्य न तो मनरंजन मात्र होता है, न उपदेश या परिष्करण, इससे हटकर कहानी का उद्देश्य कहानी लेखन का उद्देश्य मानव मन में सुप्त भावनाओं को उद्दीप्त कर उसे रस अर्थात उल्लास, उदात्तता और सार्थकता की प्रतीति कराना है। क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरकता और अहं से मुक्त होकर उदारता, उदात्तता, सर्वहित और नम्रता जनित आनंद की प्रतीति साहित्य सृजन का उद्देश्य होता है। कहानी भी एतदअनुसार कल्पना के माध्यम से यथार्थ का अन्वेषण कर जीवन को परिष्कृत करने का उपक्रम करती है। कांति जी की कहानियाँ इस निकष पर खरी उतरने के साथ-साथ किसी वाद विशेष, विचार विशेष, विमर्श विशेष के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। उनकी प्रतिबद्धताविहीनता ही निष्पक्षता और प्रमाणिकता का प्रमाण है। प्रथम कहानी संकलन के माध्यम से कांति जी भावी संकलनों के प्रति उत्सुकता जगाने में सफल हुई हैं। कहानी कला में शैली और शिल्पगत हो रहे अधुनातन प्रयोगों से दूर इन कहानियों में ब्यूटी पार्लर का सौंदर्य भले ही न हो किन्तु सलज्ज ग्राम्य बधूटी का सात्विक नैसर्गिक सौंदर्य है। यही इनका वैशिष्ट्य और शक्ति है।
*********
संदर्भ: १. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, २. आलोचना शास्त्र मोहन वल्लभ पंत, ३. समाधान डॉ. सुशीला कपूर, ४. अंतर संवाद रजनी सक्सेना, ५.मेरी प्रिय कथाएँ स्वाति तिवारी, ६. एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ लिटरेचर, ७. कहानी का रचना विधान जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, ८समकालीन हिंदी कहानी संपादक डॉ. प्रकाश आतुर में कृष्ण कुमार ।
***
छंद बहर का मूल है: १
छंद परिचय:
दस मात्रिक दैशिक जातीय भव छंद।
षडवार्णिक गायत्री जातीय सोमराजी छंद।
संरचना: ISS ISS,
सूत्र: यगण यगण, यय।
बहर: फ़ऊलुं फ़ऊलुं ।
*
कहेगा-कहेगा
सुनेगा-सुनेगा।
हमारा-तुम्हारा
फ़साना जमाना।
मिलेंगे-खिलेंगे
चलेंगे-बढ़ेंगे।
गिरेंगे-उठेंगे
बनेंगे निशाना।
न रोके रुकेंगे
न टोंके झुकेंगे।
कभी ना चुकेंगे
हमें लक्ष्य पाना।
नदी हो बहेंगे
न पीड़ा तहेंगे।
ख़ुशी से रहेंगे
सुनाएँ तराना।
नहीं हार मानें
नहीं रार ठानें।
नहीं भूल जाएँ
वफायें निभाना।
***
एक कुंडली- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
*
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के
१३-४-२०१७
***
जैनेन्द्र कुमार ने कहा था :
1. भाषा के बारे में कोई कुछ भी सुझाव दे, ध्यान मत दो ।
2. जिस लेखक को तिरस्कार मिलता है, वह उससे बेहत्तर लिखता है, जिसे जल्द पुरस्कार मिल जाता है
***
रतन टाटा के सुविचार दोहानुवाद सहित
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
***

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

सरस्वती चालीसा, छत्तीसगढ़ी, कन्हैया साहू 'अमित', अशोक अग्य

*सरस्वती चालीसा~छत्तीसगढ़ी भाषा*
(सर्वाधिकार सुरक्षित सामग्री)
जय जय दाई सरसती, अइसन दे वरदान।
अग्यानी ग्यानी बनय, होवय जग कल्यान।। (दोहा)
(चौपाई)
हे सरसती हरव अँधियारी।
हिरदे सँचरय झक उजियारी।।-1
जिनगी जग मा कटही रुख हे।
तोर चरण मा जम्मों सुख हे।।-2
मूँड़ मुकुट हीरा मणि मोती।
दगदग दमकय चारो कोती।।-3
सादा हंसा तोर सवारी।
कमल विराजे वीणाधारी।।-4
सुर सरगम के सिरजनहारी।
मान-गउन के तैं अवतारी।।-5
सारद तीन लोक विख्याता।
विद्या वैभव बल के दाता।।-6
सबले बढ़के वेद पुरानिक।
सरी कला के तहीं सुजानिक।।-7
ग्यान बुद्धि के तैं भंडारी।
तहीं जगत मा बड़ उपकारी।।-8
वरन वाक्य पद बोली भासा।
महतारी तैं सबके आसा।।-9
तोर दया ले सब्बो सिरजन।
कविता कहिनी गीता सुमिरन।।-10
जंतर मंतर कुछु नइ जानँव।
सबले पहिली तोला मानँव।।-11
मुरहा मैं मन के बड़ भोला।
गोहराँव मैं निसदिन तोला।।-12
हाथ जोड़ के करथँव विनती।
होय भक्त मा मोरो गिनती।।-13
मोर कुटी मा आबे दाई।
बिगड़े काज बनाबे दाई।।-14
एती वोती मैं झन भटकँव।
राग रंग मा मैं झन अटकँव।।-15
मोर करम ला सवाँरबे तैं।
अँचरा दे के दुलारबे तैं।।-16
जिनगी के दुख पीरा हर दे।
छँइहा सुख के छाहित कर दे।।-17
सुर नर मुनि मन महिमा गावैं।
संझा बिहना माथ नवावैं।।-18
तहीं ग्यान विग्यान विसारद।
सुमिरय तोला ऋषि मुनि नारद।।-19
तोरे पूजा आगू सब ले।
सरी बुता हा बनथे हब ले।।-20
विधि विधान जग के तैं बिधना।
बोली भाखा तोरे लिखना।।21
जीव जगत के तैं महतारी।
तोरे अंतस ममता भारी।।-22
तोर नाँव हे जग मा पबरित।
बरसाथस तैं किरपा अमरित।।-23
दाई चारो वेद लिखइया।
ग्यान कला अउ साज सिखइया।।-24
रचे छंद अउ कहिनी कविता।
भाव भरे बोहावत सरिता।-25
नीति नियम ला तहीं बखानी।
ग्रंथ शास्त्र हा तोर जुबानी।।-26
मंत्र आरती सीख सिखावन।
आखर तोरे हावय पावन।।-27
अप्पड़ होवय अड़बड़ ग्यानी।
कोंदा बोलय गुरतुर बानी।।-28
सूरदास हा बजाय बाजा।
बनय खोरवा हा नटराजा।।-29
बनथस सबके सबल सहारा।
जिनगी जम्मों तोर अधारा।।-30
भरे सभा मा लाज बचाथस।
अँगरी मा तैं जगत नचाथस।।-31
महतारी झन तैं तरसाबे।
अंतस खच्चित मोर हमाबे।।-32
हावँव लइका निच्चट अँड़हा।
परे हवँव मैं कचरा कड़हा।।-33
राखे रहिबे मोरो सुरता।
खँगे-बढ़े के करबे पुरता।।-34
अखन आसरा खँगे पुरोबे।
मन सुभाव मल मोरो धोबे।।-35
झार केंरवस, कर दे उज्जर।
बनय 'अमित' छकछक ले सुग्घर।।-36
मेट सवारथ झगरा ठेनी।
दया मया बोहा तिरबेनी।।-37
अरजी करत 'अमित' अभिमानी।
करबे किरपा तहीं भवानी।।-38
पूत 'अमित' के सदा सहाई।
कभू भुलाबे झन तैं दाई।।-39
अंतस ले जे तोला गावँय।
मनवांछित फल वोमन पावँय।।-40
सुमिरन करलव सारदा, लेलव सरलग नाम।
होहय जग मा मान बड़, सिद्ध परय सब काम।।(दोहा)
******************************

*सरस्वती चालीसा~छत्तीसगढ़ी भाषा*
(सर्वाधिकार सुरक्षित सामग्री)
जय जय दाई सरसती, अइसन दे वरदान।
अग्यानी ग्यानी बनय, होवय जग कल्यान।। (दोहा)
(चौपाई)
हे सरसती हरव अँधियारी।
हिरदे सँचरय झक उजियारी।।-1
जिनगी जग मा कटही रुख हे।
तोर चरण मा जम्मों सुख हे।।-2
मूँड़ मुकुट हीरा मणि मोती।
दगदग दमकय चारो कोती।।-3
सादा हंसा तोर सवारी।
कमल विराजे वीणाधारी।।-4
सुर सरगम के सिरजनहारी।
मान-गउन के तैं अवतारी।।-5
सारद तीन लोक विख्याता।
विद्या वैभव बल के दाता।।-6
सबले बढ़के वेद पुरानिक।
सरी कला के तहीं सुजानिक।।-7
ग्यान बुद्धि के तैं भंडारी।
तहीं जगत मा बड़ उपकारी।।-8
वरन वाक्य पद बोली भासा।
महतारी तैं सबके आसा।।-9
तोर दया ले सब्बो सिरजन।
कविता कहिनी गीता सुमिरन।।-10
जंतर मंतर कुछु नइ जानँव।
सबले पहिली तोला मानँव।।-11
मुरहा मैं मन के बड़ भोला।
गोहराँव मैं निसदिन तोला।।-12
हाथ जोड़ के करथँव विनती।
होय भक्त मा मोरो गिनती।।-13
मोर कुटी मा आबे दाई।
बिगड़े काज बनाबे दाई।।-14
एती वोती मैं झन भटकँव।
राग रंग मा मैं झन अटकँव।।-15
मोर करम ला सवाँरबे तैं।
अँचरा दे के दुलारबे तैं।।-16
जिनगी के दुख पीरा हर दे।
छँइहा सुख के छाहित कर दे।।-17
सुर नर मुनि मन महिमा गावैं।
संझा बिहना माथ नवावैं।।-18
तहीं ग्यान विग्यान विसारद।
सुमिरय तोला ऋषि मुनि नारद।।-19
तोरे पूजा आगू सब ले।
सरी बुता हा बनथे हब ले।।-20
विधि विधान जग के तैं बिधना।
बोली भाखा तोरे लिखना।।21
जीव जगत के तैं महतारी।
तोरे अंतस ममता भारी।।-22
तोर नाँव हे जग मा पबरित।
बरसाथस तैं किरपा अमरित।।-23
दाई चारो वेद लिखइया।
ग्यान कला अउ साज सिखइया।।-24
रचे छंद अउ कहिनी कविता।
भाव भरे बोहावत सरिता।-25
नीति नियम ला तहीं बखानी।
ग्रंथ शास्त्र हा तोर जुबानी।।-26
मंत्र आरती सीख सिखावन।
आखर तोरे हावय पावन।।-27
अप्पड़ होवय अड़बड़ ग्यानी।
कोंदा बोलय गुरतुर बानी।।-28
सूरदास हा बजाय बाजा।
बनय खोरवा हा नटराजा।।-29
बनथस सबके सबल सहारा।
जिनगी जम्मों तोर अधारा।।-30
भरे सभा मा लाज बचाथस।
अँगरी मा तैं जगत नचाथस।।-31
महतारी झन तैं तरसाबे।
अंतस खच्चित मोर हमाबे।।-32
हावँव लइका निच्चट अँड़हा।
परे हवँव मैं कचरा कड़हा।।-33
राखे रहिबे मोरो सुरता।
खँगे-बढ़े के करबे पुरता।।-34
अखन आसरा खँगे पुरोबे।
मन सुभाव मल मोरो धोबे।।-35
झार केंरवस, कर दे उज्जर।
बनय 'अमित' छकछक ले सुग्घर।।-36
मेट सवारथ झगरा ठेनी।
दया मया बोहा तिरबेनी।।-37
अरजी करत 'अमित' अभिमानी।
करबे किरपा तहीं भवानी।।-38
पूत 'अमित' के सदा सहाई।
कभू भुलाबे झन तैं दाई।।-39
अंतस ले जे तोला गावँय।
मनवांछित फल वोमन पावँय।।-40
सुमिरन करलव सारदा, लेलव सरलग नाम।
होहय जग मा मान बड़, सिद्ध परय सब काम।।(दोहा)
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कन्हैया साहू 'अमित'
शिक्षक-भाटापारा छ.ग.
संपर्क~9200252055
कन्हैया साहू 'अमित'
शिक्षक-भाटापारा छ.ग. संपर्क~9200252055
सरस्वती वंदना
अशोक अग्य
*
माँ शारदे चहु दिश धरा का
अंग अंग बसंत हो।
संसार से दुर्दैव का बस
अंत हो बसंत हो।
दिव्य वीणा का मधुर सुर ताल मय संगम रहे।
काव्य की धारा बहे मन बुद्धि पर संयम रहे।
झनन झन झनकार से गुंजित सुरभि सुखवंत हो।
माँ.........
गीत पंचम में सुनाती बाग में कोयल मिले।
पुष्प नीले लाल पीले विविध रंग के हों खिले।
कामना के कल्पतरु के तर बसा रतिकंत हो।
माँ शारदे.......
नाचते नित मोर श्री वृन्दा विपिन की ओर हों।
कृष्ण राधे धुन सदा सर्वत्र ब्रज के छोर हो।
फूलती फलती धरा धन धान्य से अत्यंत हो।
माँ शारदे.......
बस तेरी आराधना मैं नित करूँ उठकर नमन।
मैं अकिंचन भी रहूँ पर दो मुझे संतोष धन।
लेखनी इस अग्य की भी रसिक हित रसवंत हो।
माँ शारदे........

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

भाषा सेतु

भाषा सेतु 
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
बाङ्ला-हिंदी-गुजराती-छत्तीसगढ़ी  
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।

यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***

भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
*
गुजराती में रूपान्तरण -
द्वारा कल्पना भट्ट, भोपाल

શ્રાવણ નભ ની આ અંધારી રાત રે
કેમે પહુંચે બાગ માં કોમળ નાર રે
મસ્ત હવા ફૂંકારે યમુના તીર રે
ગરજે વાદળ ,વરસે મેઘ અહીં રે
દામિની દમકે તરૂ તન કમ્પૅ થર થર રે
ઘન ઘન રીમઝીમ રીમઝીમ રીમઝીમ વરસે વાદળ સમૂહ રે
છે અંધારું ઘોર , તૂટી પડયા છે ઝાડ રે
જાણું છું આ બધું પણ જો ને aa નિષ્ઠુર કાન્હ ને
રાધા નામની મધુર તાણ વગાડતો આ છલિયો રે
સજાઓ મુને મુક્ત મણિ થી
લગાડો માથે એક કાળો દીઠડો રે
ક્ષુબ્ધ હૃદય છે ,લટ બાંધો ,ચંપો બાંધો સુહાથ રે
અરજ કરતો હૂં 'સલિલ' ભાવ ભારી રે
હૂં 'ભાનુ' છું પ્રભુ તમારો દાસ રે .

***
श्रावण नभ् नी आ अंधारी रात रे
केमे पहुंचे बाग़ मां कोमल नार रे
मस्त हवा फुंकारे यमुना तीर रे
गरजे वादळ, वरसे मेघ अहीं रे
दामिनी दमके तरु तन कम्पे थर थर रे
घन घन रिमझिम रिमझिम रिमझिम वरसे वादळ समूह रे
छे अंधारु घोर, टूटी पड्या छे झाड़ रे
जाणु छुं आ बधुं पण जो ने आ निष्ठुर कान्ह ने
राधा नाम नी मधुर तान वगाळतो आ छलियो रे
सजाओ मुने मुक्त मणि थी
लगाड़ो माथे एक काडो डिठडो रे
क्षुब्ध ह्रदय छे ,लट बांधो चम्पो बाँधो सुहाथ रे
अरज करतो हूँ 'सलिल' भाव भारी रे
हूँ ' भानु' छु प्रभु तमारो दास रे
***

छत्तीसगढ़ी रूपांतरण द्वारा ज्योति मिश्र, बिलासपुर
***
सावन आकास मां बादर छागे आधी रात ऱे।
बाड़ी रद्दा कोन जतन जाबे, तैं दूबर मितान रे।
बइहा हवा हे ,जमुना फुंकारे गरजत-बरसत हे मेघ।
चमकत हे बिजरी, रद्दा- पेड़ लोटत झुर-झुर कपथे सरीर।
घन-घन, झिमिर ,झिमिर, झिमिर बरसे बादर के झुण्ड।
साल अउ चार, ताड़-तेज बिरिख अब्बड़ अंधियारे हे बारी।
कइसे मितानिन ! अत्त मचात हे, काबर ये कन्हई।
बंसी बजाथे,"राधा" के नांव ले अब्बड़ दुखिया कन्हई।
मोती, जेवर जाथा पहिरा दे, काला चीन्हा लगा दे माथ।
मन ह ब्याकुल हे, गूंद चोटी पिरो,खोंच चंपा सुहात।
अंधियार रात, झन जाबे छोड़ कन्हाई मिले के आस।
गरजत हे बादर, भय भारी, सुरुज तोरे हे दास।
या
गरजत हे बादर, भय भारी, "भानु" तोरे हे दास।
***

रविवार, 16 अप्रैल 2017

chhatisgarhi doha


छत्तीसगढ़ी  दोहा:-- 
हमर देस के गाँव मा, सुन्हा सुरुज विहान. 
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती रोय किसान.. 
*
जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत. 
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिया-कुंदरा मीत.. 
*
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात. 
दाई! पैयाँ परत हौं. मूंडा पर धर हात.. 
*
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस. 
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस.. 
*
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद. 
कुररी कस रोही 'सलिल', मावस दूबर चंद..
१६-४-२०१० 
***

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना

बाँसगुला केश सजा हेरूँ  ऐना  
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना

बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना

बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद

बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना

बगदई मैया पूजूँ,  बगियाना  भूल    
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल  
     
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना,  बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल,  ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती,  सैना = संकेत,  बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना,  बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना,  बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात,  बिजना = बाँस का पंखा.