सलिल सृजन १३ फरवरी
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सोरठा सलिला
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कृष्ण कांत का दास, बन तर जा भव से सलिल।
मन रख दृढ़ विश्वास, चंद्रा तारणहार हैं।।
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धवल कृष्ण सा अन्य, सकल सृष्टि में है कहाँ?
श्यामल श्यामल अनन्य, जहाँ देखो पाओ वहाँ।।
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राम श्याम हैं एक, धनुष-चक्र ले दनु वधें।
सिय-राधा के कांत, कांता-कांति अनन्य है।।
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वनवासी-गोपाल, त्याग-राग वैराग्य वर।
होते भक्त निहाल, भवसागर को पार कर।।
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सरयू-जमुना धार, सलिल राह देखे अथक।
कब हो प्रभु अवतार, दर्शन कर पाए पुलक।।
१३-२-२०२३
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सॉनेट
चुनाव
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लबरों झूठों के दिन आए।
छोटे कद, वादे हैं ऊँचे।
बातें कड़वी, जहर उलीचे।।
प्रभु ये दिन फिर मत दिखलाए।।
फूटी आँख न सुहा रहे हैं।
कीचड़ औरों पर उछालते।
स्वार्थ हेतु करते बगावतें।।
निज औकातें बता रहे हैं।।
केर-बेर का संग हो रहा।
सुधरो, जन धैर्य खो रहा।
भाग्य देश का हाय सो रहा।।
नाग-साँप हैं, किसको चुन लें?
सोच-सोच अपना सिर धुन लें।
जन जागे, नव सपने बुन ले।।
१३-२-२०२२
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भोपाल १२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के प्रथम सत्र में संक्षिप्त वक्तव्य के साथ तुरंत रची मुक्तिका तथा मुक्तक का पाठ किया-
गीतिका उतारती है भारती की आरती
नर्मदा है नेह की जो विश्व को है तारती
वास है 'कैलाश' पे 'उमेंश' को नमन करें
'दीपक' दें बाल 'कांति' शांति-दीप धारती
'शुक्ल विश्वम्भर' 'अरुण' के तरुण शब्द
'दृगों में समंदर' है गीतिका पुकारती
'गीतिका मनोरम है' शोभा 'मुख पुस्तक' की
घनश्याम अभिराम हो अखंड भारती
गीतिका है मापनी से युक्त-मुक्त दोनों ही
छवि है बसंत की अनंत जो सँवारती
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मुक्तक
अपनी जड़ों से टूटकर, मत अधर में लटकें कभी
गोद माँ की छोड़कर, परिवेश में भटकें नहीं
रच कल्पना में अल्पना, रस-भाव-लय का संतुलन
जो हित सहित है सर्व के, साहित्य है केवल वही
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मुख पुस्तक पर पढ़ रहे, मन के अंतर्भाव
रच-पढ़-बढ़ते जो सतत, रखकर मन में चाव
वे कण-कण को जोड़ते, सन्नाटे को तोड़
क्षर हो अक्षर का करे, पूजन 'सलिल' सुभाव
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टीप- श्री कैलाश चंद्र पंत मंत्री राष्ट्र भाषा प्रचार समिति विशेष अतिथि, डॉ. उमेश सिंह अध्यक्ष साहित्य अकादमी म. प्र. मुख्य अतिथि, डॉ. देवेन्द्र दीपक निदेशक निराला सर्जन पीठ अध्यक्ष , डॉ. कांति शुक्ल प्रदेश अध्यक्ष मुक्तिका लोक, डॉ. विश्वम्भर शुक्ल संयोजक मुक्तक लोक, अरुण अर्णव खरे संयोजक, घनश्याम मैथिल 'अमृत', अखंड भारती संचालक, बसंत शर्मा अतिथि कवि, दृगों में समंदर तथा गीतिका मनोरम है विमोचित कृतियाँ.
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गीतिका है मनोरम सभी के लिये
दृग में है रस समुंदर सभी के लिए
सत्य, शिव और सुंदर सृजन नित करें
नव सृजन मंत्र है यह सभी के लिए
छंद की गंधवाही मलय हिन्दवी
भाव-रस-लय सुवासित सभी के लिए
बिम्ब-प्रतिबिम्ब हों हम सुनयने सदा
साध्य है, साधना है, सभी के लिए
भाव ना भावना, काम ना कामना
तालियाँ अनगिनत गीतिका के लिए
गीत गा गीतिका मुक्तिका से कहे
तेवरी, नव गजल 'सलिल' सब के लिए
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दोहा
इस युग में भी हो सके, जो इंसान अशोक
उसे नमन 'संजीव' का, उससे भूषित लोक
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अमृत शब्दों में भरे, देता जो आनंद
जग उसका वन्दन करे, सुना-सुनकर छंद
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छंद गूँजते धरा पर, जब हो तभी बसंत
बरस-बरस रस मंजरी, देती हर्ष अनंत
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कुण्डलिया
तरु-तल हों घनश्याम तो, हो बसंत चहुँ ओर
बाल अरुण संजीव-छवि, कहती निकला भोर
कहती निकला भोर, उषा का रंग गुलाबी
खोज रही चितचोर, प्रभाती सुना शराबी
हो अशोक गौरैया चहके, जंगल-मंगल
सत्य सुनाये छंद, चलो बैठें सब तरु-तल
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अशोक चंद्र डूबे 'अशोक', संपादक विप्रवाणी भोपाल
पतझर को जब तक नहीं, मिले सलिल का साथ!
शोर मचाते पेड़ बस, लेकर पीले हाथ!!
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साथ सलिल का पा गये, अंकुर मुखर अनंत!
वृद्ध वृक्ष नर्तन करें, सुरभित हुआ बसंत!!
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बरसें बस 'घनश्याम ' करें हम तरुतल में वन्दन!
पुण्य 'सलिल' से महक उठे हो जाये धरती चन्दन!!
रवि को भी कुछ मिले चुनौती, लुकता छिपता भागे-
दादुर भी 'अशोक' हो बोलें वन्दन शत शत अभिनन्दन!!
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मुक्तक
आशा की कंदील झूलती
मिली समय की शाख पर
जलकर भी देती उजियारा
खुश हो खुद को राख कर
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लघुकथा-
निरुत्तर
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मेरा जूता है जापानी, और पतलून इंग्लिस्तानी
सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
पीढ़ियाँ गुजर गयीं जापान, इंग्लॅण्ड और रूस की प्रशंसा करते इस गीत को गाते सुनते, आज भी उपयोग की वस्तुओं पर जापान, ब्रिटेन, इंग्लैण्ड, चीन आदि देशों के ध्वज बने रहते हैं उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की आपत्ति किसी को नहीं होती। ये देश हमसे पूरी तरह भिन्न हैं, इंग्लैण्ड ने तो हमको गुलाम भी बना लिया था। लेकिन अपने आसपास के ऐसे देश जो कल तक हमारा ही हिस्सा थे, उनका झंडा फहराने या उनकी जय बोलने पर आपत्ति क्यों उठाई जाती है? पूछा एक शिष्य ने, गुरु जी थे निरुत्तर।
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आशा की कंदील झूलती, मिली समय की शाख पर
जलकर भी देती उजियारा, खुश हो खुद को राख कर
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हाइकु नवगीत :
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टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
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कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
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जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
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अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
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कुण्डलिया:
आभा की देहरी हुआ, जब से देहरादून
चमक अर्थ पर यूं रहा, जैसे नभ में मून
जैसे नभ में मून, दून आनंद दे रहा
कितने ही यू-टर्न, मसूरी घुमा ले रहा
सलिल धार से दूरी रख, वर्ना हो व्याधा
देख हिमालय शिखर, अनूठी जिसकी आभा.
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हुए अवस्था प्राप्त जो, मिला अवस्थी नाम
राम नाम निश-दिन जपें, नहीं काम से काम
नहीं काम से काम, हुए बेकाम देखकर
शास्त्राइन ने बेलन थामा, लक्ष्य बेधकर
भागे जान बचाकर, घर से भंग बिन पिए
बेदर बेघर-द्वार आज देवेश भी हुए
१३-२-२०१५
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छंद सलिला:
सिद्धि छंद
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दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं के मात्रिक सिद्धि छंद में प्रथम चरण इन्द्रवज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु) तथा द्वितीय, तृतीय व् चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा (जगण तगण जगण २ गुरु) छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. आना, न जाना मन में समाना, बना बहाना नज़रें मिलाना
सुना तराना नज़दीक आना, बना बहाना नयना चुराना
२. ऊषा लजाये खुद को भुलाये, उठा करों में रवि चूम भागा
हुए गुलाबी कह गाल ?, करे ठिठोली रतनार मेघा
३. आकाशचारी उड़ता अकेला, भरे उड़ानें नभ में हमेशा
न पिंजरे में रहना सुहाता, हरा चना भी उसको न भाता
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हास्य सलिला:
लाल गुलाब
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लालू घर में घुसे जब लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
चलो रसोई सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
चलकर पहले पोंछ दो मैली मेरी चार.'
१३-२-२०१४
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नवगीत:
कम लिखता हूँ...
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क्या?, कैसा है??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
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पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत केवल
है गरीब की
भूखा मरना...
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चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
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शेष न जंगल,
यही मंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
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मुक्तिका
साथ बुजुर्गों का...
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साथ बुजुर्गों का बरगद की छाया जैसा.
जब हटता तब अनुभव होता था वह कैसा?
मिले विकलता, हो मायूस मौन सहता मन.
मिले सफलता, नशा मूंड़ पर चढ़ता मै सा..
कम हो तो दुःख, अधिक मिले होता विनाश है.
अमृत और गरल दोनों बन जाता पैसा..
हटे शीश से छाँव, धूप-पानी सिर झेले.
फिर जाने बिजली, अंधड़, तूफां हो ऐसा..
जो बोया है वह काटोगे 'सलिल' न भूलो.
नियति-नियम है अटल, मिले जैसा को तैसा..
***
मुक्तिका:
जमीं बिस्तर है
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जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.
न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..
नहीं कुदरत करे अपना-पराया.
दिमागे-आदमी की गंदगी है..
बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है
इरादों-हौसलों की मंदगी है..
जबरिया बात मनवाना किसी से
नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है.
बात कहने से पहले तौल ले गर
'सलिल' कविताई असली छंदगी है..
१३-२-२०११
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