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रविवार, 4 फ़रवरी 2024

गरिमा सक्सेना, नवगीत, समीक्षा

 समीक्षा :

''है छिपा सूरज कहाँ पर'' : खोजिए नवगीत में
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल"
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[कृति विवरण : है छिपा सूरज कहाँ पर, नवगीत संग्रह, गरिमा सक्सेना, प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८९४६१७९, आकार २२ से.मी. x १४.से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द लेमिनेटेड जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य २००/-, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा। लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क : २१२ ए ब्लॉक, सेंचुरी सरस् अपार्टमनत, अनंतपुरा मार्ग, यलहंका, बेंगलोर ५६००६४, चलभाष ७६९४९२८४४८, ईमेल : garimasaxena1990@gmail.com ]
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साहित्य समाज का समय सापेक्ष दर्पण है जिसमें उज्जवल-मलिन छवि बिना किसी लाग-लपेट के देखी जा सकती है। साहित्य स्वयं पूरी तरह निरपेक्ष होता है किन्तु साहित्यकार प्राय: तटस्थ नहीं होता। हर रचनाकार की अपनी मान्यताएँ और प्रतिबद्धताएँ होती हैं। साहित्य भाषा, अनुभूति और भाव की त्रिवेणी है जिओ सतत प्रवाहित हो तो निर्मल और किसी प्रतिबद्धता के कुएँ में कैद होकर मलिन हो जाती है। साहित्य लेखन, पठान और समीक्षण तीनों स्तरों पर गतागत का संघर्ष स्वाभाविक है। साहित्यकार जिन्हें पढ़कर लिखने सीखता है, सीखते ही उनसे भिन्न पथ पर जाता है किन्तु किसी वैचारिक खूँटे से बँधे स्वयंभूजन उसे नकारने या अपने खेमे में खींचने-घसीटने का प्रयास करते हैं। समय, भाषा और साहित्य सतत परिवर्तनशील होता है किन्तु ये तथाकथित प्रतिबद्ध मठाधीश परिवर्तन को नकारकर अपनी मान्यताओं को थोपकर खुद को धन्य अनुभव करते हैं। समाज के युवा जनों को आकर्षित करती विधाएँ नवगीत, व्यंग्य लेख हुए लघुकथा के क्षेत्र में यह द्व्न्द सहज दृष्टव्य है।
नवोदित नवगीतकार रचना सक्सेना इस सबसे परिचित होकर भी किसी खेमे में कैद न होकर बेबाकी से अपनी अनुभूतियों को नवगीत में अभिव्यक्त कर सकी हैं, इसके लिए उन्हें सराहा जाना चाहिए। डॉ. कुंअर बेचैन ने ठीक ही लिखा है "जैसे बागों में हर वर्ष पतझर का मौसम भी आता है और वसंत का भी, पतझर में पुराने पत्ते झर जाते हैं और फिर नई कोंपलें आती हैं। ऐसे ही हमारे जीवन में उम्र और परिस्थिति के अलग-अलग पड़ावों पर हमारे भाव, हमारे विचार, हमारी जीवन शैली, हमारे भाषा-व्यवहार और अगर हम साहित्य से जुड़े रचनाकार हैं तो कुछ नया करने का भाव भी बदलता जाता है। गीतकार का मन भी एक वृक्ष की तरह होता है, उस पर भी भावनाओं-अनुभूतियों और उनकी शब्दाभिव्यक्तियों के नए-नए रूप जैसे प्रतीकों की नवीनता, बिम्बों की नवीनता और गीतों के आकार का स्वरूप आदि बदलते जाते हैं। यह नव्यता ही गीत को नवगीत की ओर ले जाती है।" नवगीत के उद्भव से अब तक नवगीतकारों के कथ्य और शिल्प में यह बदलाव सहज दृष्टव्य है। गरिमा के नवगीत इस बदलाव के साक्षी हैं।
गरिमा के व्यक्तित्व में भाव पक्ष और बुद्धि पक्ष के सहल-सार्थक तालमेल की उपज हैं ये नवगीत। गरिमा के शब्दों में "गीत वही है जो किसी एक ह्रदय से उपजकर हर ह्रदय का स्वर स्वत्: ही बन जाये। अधिक निजी पैन लिए गीत या अत्यधिक क्लिष्ट गीत आमजन के मन तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि उनका संबंध लोक से स्थापित नहीं हो पता है, न ही वे आम जन के लिए उपयोगी हो पते हैं। गीत का विस्तार तभी हो पायेगा जब गीत समाज में वर्तमान की व्याप्तियों को अभिव्यक्त कर पाएंगे और सबकी पीड़ा का आभास कर सकेंगे और गीत का प्रयोजन तब पूर्ण होगा जब न केवल घाव को इंगित करें बल्कि उन घावों पर समाधान का मरहम भी लगाने का प्रयत्न करें। ऐसे में गीत को सामाजिक यथार्थ को समझना होगा, वह भी गीत के शिल्प, लय, गेयता, भाव आदि विशिष्टताओं को बचाते हुए।"
'है छिपा सूरज कहाँ पर' के गीत तिमिर से भयाक्रांत नहीं हैं। वे तमस की भयावहता का चित्रण कर रुकते भी नहीं, वे अँधेरे में भटकते भी नहीं अपितु उजास देने या राह तलाशने की कोशिश करते हैं। समाज में व्याप्त असंगति का संकेत संकलन के आरम्भ में ही है-
है बदलता आस में पन्ने कलेंडर
पर छाला जाता है बस प्रस्ताव से
ताख पर सिद्धांत
धन की चाह भारी
हो गया है आज
आँगन भी जुआरी
रोज ही गंदला रहा है आँख का जल
स्वार्थ ईर्ष्या के हुए ठहराव से
प्रतिबद्ध रचनाकारों के नवगीत इस ठहराव के आगे नहीं बढ़ पाते क्योंकि उनकी यह मान्यता है की नवगीत वैषम्य धर्मा है, दिशा दर्शन या पीर-हरण से नवगीत को कुछ लेना-देना नहीं है। मेरी कृतियों 'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' को इसी पूर्वाग्रही दृष्टिका शिकार होना पड़ा। मैं देख पाता हूँ कि मुखपोथी (फेसबुक) पर उदित हो रही नई कलमें ही नहीं नवगीतकारों की प्रतिष्ठित हो रही नई पीढ़ी जिसमें संध्या सिंह, अशोक गीते, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, पूर्णिमा बर्मन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, बृजमोहन श्रीवास्तव, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', रामशंकर वर्मा, डॉ. प्रदीप शुक्ल, शीला पाण्डे, डॉ. रंजना गुप्ता, बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार, रविशंकर मिश्र, धीरज श्रीवास्तव, कृष्ण 'शलभ', छाया सक्सेना आदि भी अपने नवगीतों में सांत्वना, सहानुभूति और सामाजिक सरोकारों को सुदृढ़ करने के स्वर घोल रहे हैं। विडम्बना है कि इनमें से अधिकांश को नवगीत कोष में स्थान नहीं मिला है। कारण उनसे अपिरचय हो या उनकी अवहेलना नवगीत के लिए दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तन की पदचाप को अनसुना किया जाना हितकर नहीं है। गरिमा के नवगीत 'समाधान के गीत' लिखकर इस पीढ़ी का प्रतिनिधि स्वर बन पाती है-
हरे-भरे जीवन के पत्ते
हुए जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत
अँधियारे पर कलम चलकर
सूरज नया उगायें
उम्मीदों के पंखों को
विस्तृत आकाश थमायें
चलो हाय-तौबा की, डर की
आज गिरायें भीत
इन गीतों में सामाजिक वैषम्य को विविध बिम्बों, रूपकों और उपमाओं के माध्यम से व्यक्त किया गया है- 'गाँवों के भी मन-मन अब / उग आये हैं शूल / देख चकित हो रहा बबूल', 'बने बिजूके हम सब / वर्षों से चुपचाप ख़डे', 'रेत हो रही नदियाँ / खोया कल-कल का उल्लास', 'क्षरित हुए संबंध नेह के / जीवन के बदलावों से, 'इस सूखे में बीज न पनपे / फिर जीवन से ठना युद्ध है', सुर्ख लावा हो गए हैं / पाँव तपती रेत में', 'वृद्धाश्रम में माँ बेटे की / राह देखती', 'हम अधीन हो गए / सफल हो गया नियोजन', 'धन अर्जित कर सहे जा रहे / निज मूल्यों की मंदी हम', 'राजमार्ग पर सपने सजते / पगडंडी का घाव हरा है', 'ओझल मुद्दों को करना है / हंगामा इसलिए जरूरी', 'राजनीति ने छला हमेशा / नदियों का विश्वास', 'क्षरित हुई ओज़ोन / बनी भू गरम कड़ाही है', 'नख से शिख तक है भ्रष्ट तंत्र / रो-रोकर कहते बाबूजी', सदा सियासत करते रहती / समझौंतों की ता-ता-थैया, आदि आदि पंक्तियों में देश-काल को विविध दृष्टियों से निरख-परख कर यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप गयी विसंगतियों का लेखा-जोखा इन नवगीतों के सर्जक की सजगता शब्द-शब्द में निहित है।
गीतों में अंतर्व्याप्त दूसरा तत्व है इन विसंगतियों के प्रति चेतना जागना। प्रथम चरण में विसंगतियों का आकलन तो हो गया यदि उस आकलन पर चिंतन न हो तो आकलन करना उद्देश्यहीन हो जायेगा। ' ढल रहा जो वक़्त / उसकी चाल का स्वर / कह रहा है आगमन का / वक़्त बदतर', 'कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ / मौत का माहौल हैँ', 'हम बिन आखिर प्रतिरोधों के / अक्षर कौन गढ़े', कब तलक हम बरगदों की / छाँव में पलते रहेंगे', 'कोहरे की बढ़ गयी हैं टहनियाँ / मौत का माहौल है', 'पोखर-नाले भी करते हैं / अब उसका उपहास', 'जीवन के सच बतलाते हैं दाग पड़े गहरे / मगर बने प्रोफ़ाइल पिक्चर / दाग मुक्त चेहरे', 'क्षरित हुए संबंध नेह के / जीवन के बदलावों से', 'धन की कमी कहीं अच्छी थी / मन को मिले अभावों से', 'घायल कंधे, मन है व्याकुल / स्वप्न पराजित, समय क्रुद्ध है', 'मैं ही क्यूँ? मेरे हिस्से क्यूँ? / सोचूँ लिखा मुश्किल ढोना', 'नैन मूंदकर बोलबो कब तक / पूजोगे तुम पाहुन को', 'सोच रहे है सुता -भाग्य में / क्यों लिक्खी है सिर्फ रसोई' आदि अभिव्यक्तियाँ केवल विसंगति का शब्दांकन नहीं करतीं उनके प्रति असंतोष को मुखर कर परिवर्तन की चेतना जगाती हैं।
गरिमा सक्सेना के नवगीत जिस तीसरे तत्व को मुखर करते हैं वह है विसगंतियों के आकलन से उपजी चेतना को बदलाव में बदलने का आव्हान या विसंगतियों की प्रतिक्रियावत उपजे प्रश्न। इस अंतर्वस्तु को उद्घाटित करती कुछ पंक्तियाँ देखें - 'हरे-भरे जीवन के पत्ते / हुए जा रहे पीत / आओ हम सब मिलकर गायें / समाधान के गीत', 'कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ?', 'हम बिन आखिर प्रतिरोधों के / अक्षर कौन गढ़े', 'कैसे मानें सत्य, ट्रेंड में जब / जुमला है', 'आओ मिलकर आज लगायें / खुशियों की दो-चार फसल', 'कौन लड़ा है किसकी खातिर / खुद ही लड़ना है', चूक गया सूरज गगन का / अब उजाला कौन देगा?' आदि पंक्तियों से पाठक की मन:स्थिति परिवर्तन हेतु तत्पर होने की बनती है।
ये नवगीत आव्हान मात्र को भी पर्याप्त नहीं मानते। वे उपचार और समाधान भी सुझाते हैं- 'जी रहा जो वृहनला का / रूप धरकर / यदि जगे उस पार्थ के / गांडीव का स्वर / तो सुरक्षित हो सकेगा देश अपना / स्वयं पर ही हो रहे पथराव से', 'अँधियारे पर कलम चलकर / सूरज नया उगायें / उम्मीदों के पंखों को / विस्तृत आकाश थमायें / चलो हाय-तौबा की, डर की / आज गिरायें भीत', 'आग खोजें, कँपकँपाती हड्डियाँ', 'ढूँढ़ते हैं / है छिपा सूरज कहाँ पर .... चेतते हैं जड़ों की जकड़न छुड़ाकर ... चीखते हैं / आइए संयम भुलाकर। ... तोड़ते हैं स्वयं पर हावी हुआ डर ...', 'कुहरे का गुब्बारा / छेड़ गयी पिन / चीर निकल आई हैं / किरणें कमसिन ... साहस ने काट लिए पतझड़ के दिन', 'कूकने है लगी कोयल / देख ऋतु मधुमास की', 'हमें हमारी चिंता खुद ही / करनी होगी / कब तक मन का क्रोध रहेगा / सुविधा भोगी', नए वर्ष में जारी रक्खें / उम्मीदों की चहल-पहल', कब तक हम दीपक बालेंगे / हमको सूर्य उगाना होगा' आदि पंक्तियों में गरिमा परिवर्तन की अभिलाष को संकल्प तक ले जाती हैं।
नवगीतकारों की नयी पीढ़ी नवगीतों को 'अरण्य रोदन' मात्र न बनाकर उन्हें मांगलिक परिवर्तन और शुभत्व से जोड़ रहे है। यह स्वर १९८० से २०१० के मध्य जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' के नवगीतों में था किन्तु तब नवगीतों को वैषम्य चित्रण तक सीमित रखने की जिद ने उन्हें नवगीत की परिधि में स्वीकार नहीं किया। अब नवगीतकारों की नई पीढ़ी नवगीत का सीमा विस्तार कर उसे विसंगति, विसंगति की प्रतीति, प्रतीति से उपजा आक्रोश और आक्रोश से परिवर्तन के संकल्प तक ले जा रही है। गरिमा सक्सेना के शब्दों में -
हवा आज आई है
लाल किले से होकर
बोल रही है नव विकास का
द्वार खुला है
यही नहीं गरिमा एक कदम और आगे बढ़कर परिवर्तन असफल न रह जाए, इसके प्रति भी चेताती हैं। संपूर्ण क्रांति और अन्ना आंदोलन की परिणति को देखते हुए गरिमा का यह चिंतन यथार्थवादी ही कहा जायेगा।
देखना फिर उग न आएँ
नागफनियाँ खेत में
इस कृति में वैचारिक दृष्टि से एक और नवाचार है। अन्न का मोल रुपये से नहीं चुकाया जा सकता। वास्तव में रूपया ममता, शिक्षा, स्नेह, श्रम, त्याग, समर्पण किसी का मोल नहीं चुका सकता।
नहीं अन्न का मोल रुपैया
अन्न बड़ी मेहनत से उगता
इसे उगाने की खातिर ही
कोई धूप, शीत सब सहता
कथ्य में नवता के साथ इस संकलन के नवगीत भाषिक दृष्टी से सटीक शब्दों का चयन कर रचे गए हैं। गरिमा की पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा उन्हें प्रचुरशब्द संपदा और सांस्कारिक भाषा संपन्न बनाती है , यह समृद्धि नवगीतों में झलकती है।
'है छिपा सूरज कहाँ पर' के गीत छंद वैविध्य की दृष्टि से प्रयोगधर्मिता कम है। पारंपरिक छंदों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है। सामान्यत: चार पंक्तियों के तीन अंतरों का प्रयोग कर गीत रचे गए हैं। मुखड़े में २ से ५ पंक्तियों का प्रयोग है। मात्रिक छंदों पर आधृत इन गीतों में लयबढ़ता और गेयता चारुत्व वृद्धि करती है। छंद वैविध्य ने इन नवगीतों की सरसता वृद्धि की है। कुछ उदाहरण देखें-
सरसी छंद
हरे-भरे जीवन के पत्ते,
हुए जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत
पादाकुलक छंद
अम्मा आँखों के स्याही से
नया नहीं कुछ लिख पाती हैं
विष्णुपद छंद
जहाँ कभी थीं हरसिंगार की
टेसू की बातें
चम्पा, बेली के संग कटतीं
थीं प्यारी रातें
अवतारी जातीय छंद
सदियों तक जो
शक्ति रही है जन जीवन की
तट को सींचा, प्यास बुझाई
जिसने तन की
चौपाई छंद
सुता किसी की ब्याह योग्य है
कहीं बीज का कर्जा भरी
जुआ किसानी हुआ गाँव में
मदद नहीं कोई सरकारी
सर्व विदित है कि चन्द्रमा में भी दाग होते हैं। ''है छिपा सूरज कहीं पर'' में क्रिया रूपों में समरूपता नहीं है। यथा - गायें पृष्ठ ३३, वर्जनाएँ पृष्ठ ४६, आई पृष्ठ ४७ , आयी पृष्ठ ७५, भायी पृष्ठ ४९, हुए पृष्ठ ५५ , गए पृष्ठ ५९, नई पृष्ठ ५१, तुरपाई पृष्ठ ६८, बुझायी पृष्ठ ७० आदि। अशुद्ध शब्द प्रयोग दुक्ख पृष्ठ ८२, रक्खें ८५। लिंग दोष - ऊपर से शिक्षा ऋण का / युवकों को गड़ती पिन।
दोहा संग्रह 'दिखते नहीं निशान' के पश्चात् यह गरिमा सक्सेना की दूसरी प्रकाशित कृति है। 'है छिपा सूरज कहीं पर' के नवगीत उनकी कारयित्री प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं। यह कृति नवगीत में नवाचार की दृष्टी से महत्वपूर्ण है और नवगीत के नव आयामों में ले जाने में सक्षम है। गरिमा के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा की जाएगी।
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[संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संसथान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]

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