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सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

समीक्षा, आदमी अभी जिन्दा है, सुरेंद्र सिंह पवार, लघुकथा

कृति चर्चा 
*आदमी अभी जिंदा है।*
सुरेंद्र सिंह पवार 
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                        सूचना-क्रांति और कृत्रिम- बुद्धिमत्ता से उपजी संवेदनाशून्यता व मूल्य हीनता के वाबजूद यदि आदमी जिंदा है तो वह इसलिए नहीं कि उसके सीने में एक धडकता हुआ दिल है, उसकी सांसें चल रहीं हैं बल्कि उस पर सत-साहित्य का असर बरकरार है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। सुविख्यात साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'आदमी अभी जिंदा है' (अपना प्रकाशन, भोपाल /मूल्य 370रुपये)  ऐसे ही सत्य को उद्घाटित कर रहा है। संग्रहित लघुकथाओं की गागर से छलकता अमिय रस, सुधि पाठकों को चेतनता का आभास तो कराता ही है, उनके मन, मस्तिष्क और आत्मा को संस्कारित कर उस ऊँचाई पर स्थापित कर देता है जहाँ से वे परिवार, समाज, देश और दुनिया के लिए प्रतिमान बन जाते हैं।'

                        वास्तव में लघुकथाएँ, कथाएँ ही हैं- देश, काल और भाषा की बाध्यता से मुक्त। हाँ, 'अमित अर्थ अरु आखर थोरे' -उसकी देह (आकार) और सृष्टि (संसार) दोनों को सुनिश्चित करते हैं। कम समय का उपयोग कर छोटी- छोटी-छोटी कथाओं को पढ़ लेना और उनके संदेश को समग्रता से ग्रहण कर लेना पाठकों को सुविधाजनक लगता है। मौलिक कल्पना, मार्मिक अनुभूतियाँ, आधारभूत अवधारणाओं के कलात्मक मिश्रण से युक्त कथानक लघुकथाओं की पहचान होती है और शिल्प यानी अंदाजे-बयां रचना की ताकत। जिस सूक्ष्म को, क्षण को, संवेदन को, व्यंग्य को, संदेश को रचनाकार लघुकथा में चाहता है, शिल्प उस लक्ष्य या विचार से कथानक को जोड़ने हेतु सेतु का निर्माण करता है। माधवराव सप्रे की "एक टोकरी भर मिट्टी" को हिंदी की पहली लघुकथा का सम्मान दिया जाता है।

                        'आदमी अभी जिंदा है' लघुकथा संग्रह में 99+2 (फ्लैप पर) = 101 सरल, सरस, सहज, संप्रेषणीयता की कसौटी पर कसी लघुकथाएँ हैं। राजनैतिक परिदृश्यों की पट्टभूमि पर चोट करती संग्रह की प्रथम लघुकथा, 'बदलाव का मतलब' एक करारा व्यंग्य है। नागनाथ साँपनाथ में से किसे चुनें किंकर्तव्यविमूढ़ मतदाता? अंत में सत्ताधारी दल को हटाकर विपक्ष को सत्तासीन करा देता है। स्थिति यथावत रहती है और ठगा सा मतदाता हाथ मलता रह जाता है।

                        दूसरी लघुकथा 'भयानक सपना' में लघुकथाकार ने स्वयं (मैं) सजग रहकर इसका ताना-बाना बुना है। हिंदी राष्ट्र भाषा बनाई गई परंतु राजभाषा बनकर रह गई। अपनी भाषा को संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए कथाकार विरोध में तनी हुई मुठ्ठी को कसता है और पौराणिक मिथक का सहारा लेते हुए कहता है, [यदि अपेक्षित स्नेह व सम्मान नहीं मिला तो] 'सरस्वती नदी की तरह लुप्त हो जाऊँगी'।' यह भाषाई विषमता का संघर्ष है जो रचना में परिलक्षित होता है। 'जेबकतरे' लघुकथा पढ़ने में व्यंग्य शिल्पी श्री लाल शुक्ल की "राग-दरबारी" (आयरनी) शैली का आनंद दिलाती है।

                        'गणराज्य' (व्यापमं घोटाला)', 'सांसों के कैदी' (जेपी आंदोलन)', 'मुझे जीने दो'(कश्मीर समस्या), 'बेदाग' (पीएमटी घोटाला) लघुकथाओं के कथानक समकालीन घटनाओं से उठाए हैं जिनमें स्ट्रक्चर, भाषा, शिल्प की बजाय वास्तविकता की तरफ ज्यादा ध्यान दिया है फिर भी वे घटनाएँ, ये लघुकथाएँ मन को बहुत अंदर तक कसती हैं।

                        संजीव वर्मा 'सलिल' जी एक सफल शिल्प वेत्ता हैं।अभियांत्रिकी शिक्षा के गिरते स्तर और सफलता के लिए शार्ट कट अपनाती वर्तमान पीढ़ी के अनैतिक तरीके देखकर कथाकार व्यथित हो जाता है और ऐसे में जन्म लेतीं हैं- 'परीक्षा' 'करनी-भरनी', 'विरासत' और 'निर्माण' जैसी लघुकथाएँ। अभियंता 'सलिल' ने इन कथाओं में विसंगतियों को बखूबी उकेरा है, विशुद्ध यांत्रिक रंग-ढंग से।

                        साहित्य के दलदल में उलझे आज को आवाज दे रहीं हैं 'मोल', 'मूकदर्शन' , 'योग्यता' , 'देर है' जैसी लघुकथाएँ। इन कहानियों में साहित्यकार, संपादक और प्रकाशक का दर्द तो है ही, प्रतिक्रियात्मक स्पर्श व्यंजना भी है।
                        
                        एक बात देखने में आई है कि नष्ट होते हुए मानव-मूल्य कथाकार को व्यथित करते हैं तो मूल्यों की पुनर्स्थापना होते देखकर उसका मन मयूर मुदित होकर नृत्य करने लगता है। संग्रह की बहुतायत लघुकथाओं को इसी भावभूमि पर देखा-परखा जा सकता है। जैसे कि 'उनके नाम का दिया' में बड़े बेटे ने अपनी पसंद से ब्याह किया। छोटे का विवाह उसकी पसंद से उन्होंने कराया। वृद्धावस्था, रुग्णावस्था में छोटा बेटा-बहू साथ छोड़ देते हैं। बड़े बेटे-बहू ने जी-जान से सेवा की और बड़ी बहू उनके नाम का दिया जला रही है। यह कथा पाठकों को तरल कर देती है।

                        'जन सेवा' में सड़क पर घायल पागल को अनदेखा किया। घर पहुँचकर पता चला कि उसी पागल ने उनके बेटे को दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया और खुद घायल हो गया जिसे वे तड़फता छोड़ चले आए, विवशता की बाॅडी लैंग्वेज इसमें स्पष्ट दिखाई देती है। 'कल का छोकरा' में झोपड़-पट्टी  का एक बच्चा पेन-पेंसिल खरीदने के लिए पैसे माँगता है, बदले में उसे मिलतीं हैं झिड़कियाँ। नाले में बाढ़ आने पर वही बच्चा डूबते बच्चों को बचाता है और शासन-प्रशासन से ईनाम पाकर रातों-रात 'हीरो' बन जाता है। 'सम्मान की दृष्टि' में कचरा बीननेवाले बच्चों को हेय दृष्टि से देखनेवाला अंत में उन बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्च उठाता है। 'हृदय का रक्त' में बच्चे की दुर्घटना से मौत होने पर पिता अपने बेटे का देहदान कर आदर्श प्रस्तुत करता है। 'आलिंगन का संसार' टूटे और बिखरे मूल्यों की पुनर्स्थापना की कहानी है जो मुंशी प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाती है। अलगू और जुम्मन दलगत राजनीति का शिकार हो जाते हैं। स्थानीय प्रतिद्वंद्विता से उनमें वैमनस्यता पनपती है परंतु अगलू का बच्चा एक्सीडेंट में घायल हो जाता है। तब रक्त की आवश्यकता होने पर जुम्मन स्वयं रक्तदान करता है और दोनों मित्र फिर से गले लग जाते हैं।

                        'भय की रात' सूक्ष्मदृष्टा साहित्यकार का सार्थक सृजन है। रात में सुनसान रास्ते पर चलती स्त्री का मोबाइल नहीं लगा तो जान-बूझकर ऊँची आवाज में बोलती रही ताकि आने-जानेवालों को लगे बात चल रही है। 'आदमी अभी जिंदा है'-शीर्षक पढ़कर लगता है कि यह 'दुर्योधन अभी जिंदा है' या 'रावण अभी जिंदा है' जैसी कोई पुरा-आख्यानिका होगी, परंतु अपनी यति-गति से गुजरती हुई लघुकथा को जब रचनाकार ने साहित्य से अंत:संबंधित किया. तो मुँह से वाह निकल गया। 'मुखौटे', 'पिंजरा' , 'जीत का इशारा', 'हवा का रुख' स्तरीय लघुकथाएँ हैं। 'पतंग' में एक प्रेरणादायी कहानी है, जीवन को उदात्त बनाती है- "जीतने के लिए कोशिश, हौसला और जुगत तीनों जरूरी है", जैसा अमोघ मंत्र देती है।

                        'सहिष्णुता - 1' पारिवारिक परिवेश की लघुकथा है। आवेश को दबाने, चुप रहने तथा वार्तालाप बंद होने पर पहल करने पर कलह टल जाती है, सुलह हो जाती है। स्त्री-विमर्श , दलित-विमर्श , किन्नर-विमर्श के क्रम में यह एवं ऐसी अन्य लघुकथाएँ, स्त्री बनाम पुरुष या पति-विमर्श के नये वातायन खोलती हैं।

                        'गाइड' एक अपेक्षाकृत लंबी (२ पृष्ठीय) लघुकथा है जो सामाजिक समस्याओं पर आधारित है। इसे पढ़कर जगदीश चन्द्र माथुर की एकांकी "रीढ़ की हड्डी" का कथानक और संवाद याद आ गए। वैसी ही कलात्मकता, वैसे ही तेवर। देखा जाए तो 'गाइड' शीर्षक से एक-और लघुकथा, संग्रह के फ्लेप पर प्रकाशित है। 'गुलामी का अनुबंध' शीर्षक भी दो बार दिखा (?) ऐसी ही कुछ अन्य लघुकथाएँ हैं जहाँ शीर्षक 1, 2 का प्रयोग किया गया है। इसे शीर्षकों का टोटा कहें या संपादन की चूक? 'धनतेरस' और 'थोड़ा सा चंद्रमा' दो अलग कथाओं का एक ही अंत खटकता है!

                        एक-और लघुकथा है 'घर'। छोटी सी बच्ची ने दरवाजा बंद करते हुए कहा-'आरक्षण की भीख चाहनेवालों को यहाँ आना मना है। यह संसद नहीं, भारत के नागरिक का घर है।' यह सच है कि लघुकथा में संवाद सपाटपन, सहजबयानी और वर्णात्मक ठंडेपन पर प्रहार करते हैं। फिर भी यदि बच्ची मौन रहकर दरवाजा बंद करती और वहाँ  चस्पा इबारत की तरफ इशारा करती तो ज्यादा प्रासंगिक होता।
                        
                        किसी ने कहा है, कोई रचना अपने-आप में परिपूर्ण नहीं होती, उसमें ढूँढने से कुछ तो कमी निकल ही आती है। बावजूद इसके,  'आदमी अभी जिंदा है' की सचेतन लघुकथाएँ साहित्य-जगत का ध्यान आकर्षित कर रहीं हैं। इनकी एक दृष्टि है, विचारधारा है। इनका अपना वर्ग और वर्ण चरित्र है। इनकी अपनी भाषा और मुहावरे हैं। इनका अपना [जबलपुरिया] अंदाज है। इसलिए इनमें कमी की खोज की अपेक्षा उनकी विशेषताओं और विशिष्टताओं की तलाश करना उचित होगा।

                        वैसे इन दिनों लघुकथा लेखकों की बाढ़-सी आ गई है। लघुकथा के नाम पर उसके छोटे आकार में कुछ-भी परोस देना प्रचलन में है यानी स्तरीय रचनाओं के साथ कूड़ा-कर्कट भी। कबीरदास जी यहाँ इस रूप में संगत लगते हैं कि "सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय।" समय के साथ सारगर्भित रचनाएँ अपना स्थान और सम्मान अवश्य प्राप्त कर लेंगी।

                        और सबसे आखिर में, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' एक लंबे अर्से (चार दशक से अधिक) से इस विधा को साध रहे हैं, नवोदित रचनाकारों कोलघुकथा लेखन के गुर सिखा रहे हैं। आश्चर्य! उनका प्रथम लघुकथा संकलन 'आदमी अभी जिंदा है' अन्य विधाओं की ९ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकाने के बाद अब आया है। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। भरोसा है, पाठक और प्रशंसक इन्हें पढ़ेंगे, सराहेंगे तथा और-लघुकथाओं की प्रतीक्षा करेंगे।
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सुरेन्द्र सिंह पंवार, २०१, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर - ४८२००३ (म प्र)
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