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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

संजीव २४ फरवरी

मुक्तिका

कविता सुनी है हमने कहो तुमने क्या किया?
ताली बजाई हमने सदा तुमने क्या किया?

हमने दिए हैं दर्द कहो उनका शुक्रिया
हमने दिए जो अश्क़ कहो तुमने क्या किया?

लिक्खे हैं गीत-ग़ज़ल-कता जिस जमीन पर
हमने दिया है क़र्ज़ कहो तुमने क्या किया?

पानी है आँख में जो बचा, हमने ही दिया
तुमसे लिया; लिया ही लिया, तुमने क्या किया?

जो दे रही हो उर्मि ला माधव से आज तुम
संजीव; हर निर्जीव किया, तुमने क्या किया?
***
सोरठा
बादल गरजा खूब, संध्या सिंह बनकर दिखा।
गया शर्म से डूब, डर रवि ने मुँह छिपाया।।
***
मुक्तक
उर्मिला माधव मिटा तम, जगत को उजियार दें।
उर्मि पा हों ऊर्जस्वी, बाँट सबको प्यार दें।।
द्वेष को कर दूर मन से, जीव हर संजीव हो-
निशि-तिमिर ला रवि-उषा को, सकल सृष्टि निखार दें।।
*

हम सबकी माँ वसुंधरा।
हमें गोद में सदा धरा।।
हम वसुधा की संतानें।
सब सहचर समान जानें।
उत्तम होना हम ठानें।।
हम हैं सद्गुण की खानें।।
हममें बुद्धि परा-अपरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
अनिल अनल नभ सलिल हमीं।
शशि-रवि तारक वृंद हमीं।
हम दर्शन, विज्ञान हमीं।।
आत्म हमीं, परमात्म हमीं।।
वैदिक ज्ञान यहीं उतरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
कल से कल की कथा कहें।
कलकल कर सब सदा बहें।
कलरव कर-सुन सभी सकें।।
कल की कल हम सतत बनें।।
हर जड़ चेतन हो सँवरा।
हम सब की माँ वसुंधरा।।
(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)
२४-२-२०२२
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सॉनेट गीत
वंदे मातरम्
वंदे मातरम् कहना है।
माँ सम सुख-दुख तहना है।।
माँ ने हमको जन्म दिया।
दुग्ध पिलाया, बड़ा किया।
हर विपदा से बचा लिया।।
अपने पैरों खड़ा किया।।
माँ संग पल-पल रहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
नेह नर्मदा है मैया।
स्वर्गोपम इसकी छैंया।
हम सब डालें गलबैंयां।
मिल खेलें इसकी कैंया।।
धूप-छाँव सम सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
सब धर्मों का मर्म यही।
काम करें निष्काम सही।
एक नीड़ जग, धरा मही।।
पछुआ-पुरवा लड़ी नहीं।।
धूप-छाँव संग सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
२४-२-२०२२
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पुरोवाक
केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत भूमि का सौंदर्य और समृद्धि चिरकाल से सकल विश्व को आकर्षित करता रहा है। इसी कारण यह पुण्यभूमि आक्रांताओं द्वारा बार-बार पददलित और शोषित की गयी। बकौल इक़बाल 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा', भारत हर बार संघर्ष कर स्वाभिमान के साथ पूर्वापेक्षा अधिक गौरव के साथ सर उठाकर न केवल खड़ा हुआ अपितु 'विश्वगुरु' भी बना। संघर्ष और अभ्युत्थान के वर्तमान संघर्षकाल में देश के सौंदर्य, शक्ति और श्रेष्ठता को पहचान कर संवर्धित करने के साथ-साथ-कमजोरियों को पहचान कर दूर किया जाना भी आवश्यक है। विवेच्य कृति 'केरल : एक झाँकी' इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
पुस्तक की लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी प्रतिष्ठित राजघराने की सदस्य (केणल गोदवर्म राजा की पुत्री, थिरुवल्ला के राजराजा की पत्नी) होते हुए भी जन सामान्य की समस्याओं में गहन रूचि लेकर, उनके कारणों का विश्लेषण और समाधान की राह सुझाने का महत्वपूर्ण दायित्व स्वेच्छा से निभा सकी हैं। हिंदी में संस्मरण निबंध विधाओं में अन्य विधाओं की तुलना में लेखन कम हुआ है जबकि संस्मरण लेखन लेखन बहुत महत्वपूर्ण विधाएँ हैं । इस महत्वपूर्ण कृति का सरस हिंदी अनुवाद कर प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. ने हिंदी-मलयालम सेतु सुदृढ़ करने के साथ-साथ केरल की सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य से अन्य प्रदेश वासियों को परिचित कराने का सफल प्रयास किया है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से इस स्तुत्य सारस्वत अनुष्ठान के लिए लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी तथा अनुवादक द्व्य प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम संस्मरण 'जरूरत है एक मलयाली गुड़िया की' में सांस्कृतिक पहचानों के प्रति सजग होने का आह्वान करती विदुषी लेखिका का पूरे देश में खिचड़ी अपसंस्कृति के प्रसार को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। 'स्मृतियाँ विस्मृति में' ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा की ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। 'आयुर्वेद एक अमूल्य निधि' में भारत के पुरातन औषधि विज्ञान एवं वैद्यक परंपरा की महत्ता को रेखांकित किया गया है। भारतीय संस्कारों की महत्ता 'आचार प्रभवो धर्म:' में प्रतिपादित की गयी है। 'तिरुवितांकुर का दुर्भाग्य' विलोपित होती विरासत की करुण कथा कहती है। 'हे मलयालम माफ़ी! माफ़ी!' में मातृभाषा की उपेक्षाजनित पीड़ा मुखरित हुई है। आंचलिक परिधानों की प्रासंगिकता और महत्व 'मुंट (धोती) और तोर्त (अँगोछा) का महत्व' संस्मरण में है।
वर्तमान में केरल की ख्याति नयनाभिराम पर्यटल स्थल के रूप में सारी दुनिया में है। वर्षों पूर्व केरल का भविष्य पर्यटन में देख सकने की दिव्य दृष्टि युक्त केणल गोदवर्म राजा पर भारत सरकार को डाक टिकिट निकलना चाहिए। केरल सरकार प्रतिवर्ष उनकी जन्मतिथि को केरल पर्यटन दिवस के रूप में मनाये। लेखिका का परिवार भी इस दिशा में पहल कर केरल के पर्यटन पर देश के अन्य प्रांतों के लेखकों से पुस्तक लिखवा-छपाकर राजाजी की स्मृति को चिरस्थायी कर सकता है। 'पिताजी के सपने और यथार्थ' शीर्षक संस्मरण में उनके अवदान को उचित ही स्मरण किया गया है। समयानुशासन का ध्यान न रखने पर अपनी लाड़ली बेटी को दंडित कर, समय की महत्ता समझाने का प्रेरक संस्मरण 'समय की कैसी गति' हमारे जन सामान्य, अफसरों और नेताओं को सीख देता है। 'किस्सा एक हठी का' रोचक संस्मरण है जो अतीत और वर्तमान के स्थापित करता है।
आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति और शहरीकरण ने भारत की परिवार व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुँचाने के साथ-साथ बच्चों के कुपोषण तथा संस्कारों की उपेक्षा की समस्या को जन्म दिया है। 'टेलीविजन और नन्हें बच्चे', 'नारी की आवाज', 'मलयाली का ह्रास', 'कन्या कनक संपन्ना' में समकालिक सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, निराकरण के संकेत अन्तर्निहित हैं। 'क्या मलयाली व्यंजन भी फ्रीज़र में रखे जायेंगे?' में आहार संबंधी अपसंस्कृति को उचित ही लांछित किया गया है। 'टिकिट के साथ गंदगी और गर्द' तथा 'धन्यवाद और निंदा' में सामाजिक दायित्वों की ओर सजगता वृद्धि का उद्देश्य निहित है। समाजिक जीवन में नियमों और उद्घोषणाओं के विपरीत आचरण कर स्वयं को गर्वित करने के कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए लेखिका ने 'उद्घोषणा करने लायक कुछ मौन सत्य' शीर्षक संस्मरण में सार्वजानिक अनुशासन और सामाजिक शालीनता की महत्ता प्रतिपादित की है।
'धार्मिक मैत्री का तीर्थाटन मौसम', 'आयात की गई जीवन शैलियाँ', 'अतिथि देवो भव' आदि में लेखिका के संतुलित चिंतन की झलक है। लेखिका के बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक देते इनसंस्मरणों में पर्यावरण के प्रति चिंता 'काई से भरे मन और जलाशय' में दृष्टव्य है। दुर्भाग्य से प्राचीन विरासत के विपरीत स्वतंत्र भारत में जल परिवहन को महत्व न देकर खर्चीले हुए परवरण के लिए हानिप्रद वायु परिवहन तथा थल परिवहन को महत्व देकर देख का राजकोषीय घाटा बढ़ाया जाता रहा है।
चिर काल से भारत कृषि प्रधान देश था, है और रहेगा। विलुप्त होती फसलों के संबंध में लेखिका की चिंता 'उन्मूलन होती फसलें' संस्मरण में सामने आई है। देश के हर भाग में साधनहीन बच्चों द्वारा भिक्षार्जन की समस्या पर 'नियति की धूप मुरझाती कलियाँ', रोग फैलाते मच्छरों पर 'मच्छर उन्मूलन : न सुलझती समस्या', महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए विशेष व्यवस्थाओं पर 'प्रदर्शकों को एक मार्ग, जनता को राजमार्ग' पठनीय मात्र नहीं, चिंतनीय भी हैं। कृति के अंत में 'स्वगत' के अंतर्गत अपने व्यक्तित्व पर प्रकाश डालकर उनके ऊर्जस्वित व्यक्तित्व से अपरिचित पाठकों को अपना परिचय देते हुए अपनी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि, बहुरंगी बचपन और असाधारण व्यक्तित्व का उल्लेख इतने संतुलित रूप में किया है की कहीं भी अहम्मन्यता नहीं झलती तथा सामान्य पाठक को भी वे अपने परिवार की सदस्य प्रतीत होती हैं।
सारत: 'केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी' एक रोचक, ज्ञानवर्धक, लोकोपयोगी कृति है जो देश के सामान्य और विशिष्ट वर्ग की खूबियों और खामियों को भारतीय विरासत के संदर्भ से जोड़ते हुए इस तरह उठाती है कि किसी को आघात भी न पहुँचे और सबको निराकरण हेतु संदेश और सुझाव मिल सकें। इस तरह के लेखन की कमी को देखते हुए इस कृति के अल्प मोली संस्करण निकाले जाकर इसे हर बच्चे और बड़े पाठक तक पहुँचाया जाना चाहिए।
२४-२-२०२१

***
मुक्तिका
शशि पुरवार
*
न माने हार।
रोग को जीत
सुनो जयकार।
पराजित पीर
मानकर हार।
खुशी लो थाम
खड़ी तव द्वार।
अधर पर हास
बने सिंगार।
लिखो नवगीत
बने उपचार।
करे अभिषेक
सलिल की धार।
२४-२-२०२१
*
आध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व सामान्य को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ हुए समाप्त करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा।
आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली।
भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से स्थायित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है।
किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का लेखा रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी, सहचरों आदि से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का शास्त्र विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
बर्फ, ठंड और नमी वाले अंचलों में विपरीत पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण हाथों की अंगुलिया कड़ी हो गईं, वहाँ के निवासी वृत्ताकार बनाने में असुविधा अनुभव करते थे। वहाँ सीधी-छोटी रेखाओं और बिंदुओं का समायोजन कर रोमन लिपि का विकास हुआ। रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। चित्र अंकन करने की रुचि ने चित्रात्मक लिपियों के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह वातावरण तथा खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अवधी भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से व्याध द्वारा नर का वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है। हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति जैसी मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति-पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं।
व्याकरण और पिंगल का विकास-भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका। इसलिये भारत में हर मनुष्य हेतु आवश्यक सोलह संस्कारों में अक्षरारम्भ को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। भारत में विश्व की पहली कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही छंद शास्त्र के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर मात्रा के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये।
छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।गीति काव्य में छंद-गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है। इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है।
संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गया। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पच्चीस-तीस छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा।
संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला ने पारम्परिक छंदों के साथ अप्रचलित छंदों का मिश्रण कर अपनी काव्य रचनाओं को अन्यों के लिए गूढ़ बना दिया। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा।
निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी की किताबी शोधोपाधियाँ प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा व् समझ से हीन प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह में अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में न केवल जीवित रहा अपितु सामयिक देश-काल-परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाते हुए जनानुभूतियों का प्रवक्ता बन गया। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर का नाम देकर करते हैं।
***
लेख: २
भाषा, काव्य और छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
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[लेखमाला की पहली श्रृंखला में भाषा, व्याकरण, वर्ण, व्यंजन, शब्द, रस, भाव, अनुभूति, लय, छंद, शब्द योजना, तुक, अलंकार, मात्रा गणना नियमादि की प्राथमिक जानकारी के पश्चात् ख्यात छन्दशास्त्री साहित्यकार अभियंता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से प्राप्त करते हैं कुछ और जानकारियां - संपादक]
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दग्ध अक्षर
डॉ. सतीश चंद्र सक्सेना 'शून्य' ग्वालियर - दग्ध अक्षर पर चर्चा छूट गई है।
पिंगल शास्त्र के पुराने नियमों के अनुसार १९ अक्षरों (ट, ठ, ढ, ण, प, फ, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल व्, ष, ह) को दग्धाक्षर मानते हुए इनसे काव्य पंक्तियों का प्रयोग निषिद्ध किया गया था। कालांतर में इन्हें घटाकर ५ अक्षरों (झ, ह, र, भ, ष) को दग्धाक्षर कहकर काव्य पंक्ति के आरम्भ रखा जाना वर्जित किया गया है।
दीजो भूल न छंद के, आदि झ ह र भ ष कोइ।
दग्धाक्षर के दोष तें, छंद दोष युत होइ।।
मंगल सूचक अथवा देवतावाचक शब्द में इनका प्रयोग हो तो दोष परिहार हो जाता है।
देश, काल, परिस्थिति के अनुसार भाषा बदलती है। पानी और बानी बदलने की लोकोक्ति सब जानते हैं। व्याकरण और पिंगल के नियम भी निरंतर बदल रहे हैं। आधुनिक समय में दग्धाक्षर की मान्यता के मूल में कोई तार्किक कारण नहीं है। १९ से घटकर ५ रह जाना ही संकेत करता है की भविष्य में इन्हें समाप्त होना है।
वर्ण
गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - आपके अनुसार हम वर्ण को अजर, अमर और अक्षर मानते हैं तो कहना चाहता हूँ कि वर्ण का आशय तो आकार, जाति, नस्ल, रू,प रंग, संकेत आदि से है। ये सब परिवर्तनशील व मरणधर्मा हैं। फिर ये अजर अक्षर अमर कैसे हो सकते हैं ? हाँ ध्वनि निश्चित ही अक्षर है। उसका संकेत कदापि अक्षर नहीं हो सकता । वह तो अरक्ष या वर्ण ही होगा।
वर्ण / अक्षर :वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
आदरणीय कृपया ध्यान दें -
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि - कहलाती वर्ण।
चारों विशेषण ध्वनि को दिए गए हैं जिसे चिन्ह विशेष द्वारा अंकित किये जाने पर उसे वर्ण कहा जाता है। ध्वनि के मूल रूप को लिपिबद्ध करने पर उसे संस्कृत और हिंदी में अक्षर या वर्ण कहा गया है। लिपि का आरम्भ होते समय ज्ञान की अन्य शाखाएँ नहीं थीं। युगों बाद समाजशास्त्र में समाज की ईकाई व्यक्ति के मूल उसके गुण या योग्यता जिससे आजीविका मिलती है, को वर्ण कहा गया। सामान्यतः वर्ण अर्थात् व्यक्ति का गुण, ज्ञान, या योग्यता उससे छीनी नहीं जा सकती इसलिए व्यक्ति के जीवनकाल तक स्थाई या अमर है।
लिंग
अरुण शर्मा - गुरु जी नमन। इस क्रम को आगे बढाते हुए लिंग पर भी विस्तृत जानकारी प्रदान करें सादर।
संस्कृत शब्द 'लिंग' का अर्थ निशान या पहचान है। लिंग से जातक की जाति पहचानी जाती है की वह स्त्री है या पुरुष। हिन्दी भाषा में संज्ञा शब्दों के लिंग के अनुसार उनके विशेषणों तथा क्रियाओं का रूप निर्धारित होता है। इस दृष्टि से भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए संज्ञा शब्दों के लिंग-ज्ञान होना आवश्यक। हिंदी में दो लिंग पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग हैं।
संस्कृत में ३ लिंग पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग हैं।
अंग्रेजी में ४ लिंग पुल्लिंग (मैस्क्युलाइन जेंडर), स्त्रीलिंग (फेमिनाइन जेंडर), नपुंसक लिंग (न्यूट्रल जेंडर) तथा उभय लिंग (कॉमन जेंडर) हैं।
पुल्लिंग वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जिनसे पुरुष होने का बोध होता है पुल्लिंग शब्द हैं। पुल्लिंग शब्दों का अंत बहुधा अ अथवा आ से होता है। सामान्यत: पेड़ (अनार, केला, चीकू, देवदार, पपीता, शीशम, सागौन आदि अपवाद नीम, बिही, इमली आदि), धातु (सोना, तांबा, सोना, लोहा अपवाद पीतल अपवाद चाँदी, पीतल, राँगा, गिलट आदि), द्रव (पानी, शर्बत, पनहा, तेल, दूध, दही, घी, शहद, पेट्रोल आदि अपवाद लस्सी, चाय, कॉफी आदि), गृह (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ), अनाज (गेहूं, चाँवल, चना, बाजरा, जौ, मक्का, अपवाद धान, कोदो, कुटकी), सागर (प्रशांत, हिन्द महासागर आदि अपवाद बंगाल की खाड़ी, खंभात की खाड़ी आदि), पर्वत (विंध्याचल, सतपुड़ा, हिमालय, कैलाश आदि), प्राणीवाचक शब्द (इंसान, मनुष्य, व्यक्ति, पशु, गो धन, सुर, असुर, वानर, साधु, शैतान अपवाद पक्षी, चिड़िया, कोयल, गौरैया आदि), देश (भारत, अमरीका, जापान, श्रीलंका आदि अपवाद इटली,जर्मनी आदि), माह (चैत्र, श्रावण, माघ, फागुन, मार्च, अप्रैल, जून, अगस्त आदि), दिन (सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार), समय (युग, वर्ष, साल, दिन, घंटा, मिनिट, सेकेण्ड, निमिष, पल आदि अपवाद घड़ी, ), अक्षर (अ, आ, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: अपवाद इ, ई )।
स्त्रीलिंग वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जो स्त्री होने का बोध कराएँ, उन्हें स्त्रीलिंग शब्द कहते हैं। स्त्रीलिंग शब्दों का अंत बहुधा इ या ई से होता है। सामान्यत: आहार (रोटी, दाल, कढ़ी, सब्जी, साग, पूड़ी, खीर, पकौड़ी, कचौड़ी, बड़ी, गजक आदि अपवाद पान, पापड़ आदि), पुस्तक ( रामायण, भगवद्गीता, रामचरित मानस, बाइबिल, कुरान, गीतांजलि आदि अपवाद वेद, पुराण, उपनिषद, सत्यर्थप्रकाश, गुरुग्रंथ साहिब), तिथि (प्रथमा, द्वितीया, प्रदोष, त्रयोदशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि), राशि (कर्क, मीन, तुला, सिंह, कुम्भ, मेष आदि), समूहवाचक शब्द (भीड़,सेना, सभा, कक्षा, समिति अपवाद हुजूम,दल, जमघट आदि), बोलियाँ (संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभृंश, हिंदी, बांगला, तमिल, असमिया, अंग्रेजी, रुसी, बुंदेली आदि), नदी (नर्मदा, गंगा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, वोल्गा, टेम्स आदि), मसाले (हल्दी, मिर्ची, लौंग, सौंफ, आजवाइन, अपवाद धनिया, जीरा आदि), वस्त्र (धोती, साड़ी, सलवार, टाई, शमीज, जाँघिया, बनियाइन, चोली आदि अपवाद कोट, कुरता, पेंट, पायजामा, ब्लाउज आदि ), आभूषण (चूड़ी, पायल, बिछिया, बिंदिया, अंगूठी, नथ, करधनी अपवाद कंगन, बेंदा आदि)। अपवादों को छोड़ दें तो आकार में छोटी, स्त्रियों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कोमल, अथवा परावलंबी वस्तुएँ स्त्रीलिंग हैं जबकि अपेक्षाकृत बड़ी, पुरुषों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कठोर अथवा स्वावलंबी वस्तुतं पुल्लिंग हैं। सबसे बड़ा अपवाद 'मूँछ' है जो पौरुष का प्रतीक होते हुए भी स्त्रीलिंग है और घूँघट अथवा पर्दा स्त्रियों से सम्बद्ध होने के बाद भी पुल्लिंग है।
लिंग परिवर्तन
१. 'ई' प्रत्यय जोड़कर - देव - देवी, नर - नारी, जीजा - जीजी, दास - दासी, वानर - वानरी आदि। नाना - नानी, दादा - दादी, चाचा - चाची, मामा - मामी, मौसा - मौसी, लड़का - लड़की, मोड़ा - मोड़ी, लल्ला - लल्ली, पल्ला - पल्ली, निठल्ला - निठल्ली, काका - काकी, साला - साली, नाला - नाली, घोड़ा - घोड़ी, बकरा - बकरी, लकड़ा - लकड़ी, लट्ठा - लट्ठी आदि।
२. 'इया' प्रत्यय जोड़कर - बूढ़ा - बुढ़िया, खाट - खटिया, बंदर - बंदरिया, लोटा - लुटिया, बट्टा - बटिया आदि।
३. 'इका' प्रत्यय जोड़कर - बालक - बालिका, पालक - पालिका, चालक - चालिका, पाठक - पाठिका, संपादक - संपादिका, पत्र - पत्रिका।
४. 'आनी' प्रत्यय जोड़कर - ठाकुर - ठकुरानी, सेठ - सेठानी, देवर - देवरानी, इंद्र - इंद्राणी, नौकर - नौकरानी, मेहतर - मेहतरानी।
५. 'आइन' प्रत्यय जोड़कर - गुरु - गुरुआइन, पंडित - पंडिताइन, चौधरी - चौधराइन, बाबू - बबुआइन, बनिया - बनियाइन, साहू - सहुआइन, साहब - सहबाइन आदि।
६. 'इन' प्रत्यय जोड़कर - माली - मालिन, लुहार - लुहारिन, कुम्हार - कुम्हारिन, दर्जी - दर्जिन, सुनार सुनारिन, मजदूर - मजदूरिन, हलवाई - हलवाइन, चौकीदार - चौकीदारिन, चमार - चमारिन, धोबी - धोबिन, बाघ - बाघिन, सांप - साँपिन, नाग - नागिन।
७. 'नी' प्रत्यय जोड़ कर - डॉक्टर - डॉक्टरनी, मास्टर - मास्टरनी, अफसर - अफसरनी, कलेक्टर - कलेक्टरनी, आदि।
८. 'ता' के स्थान पर 'त्री' का प्रयोग कर - धाता - धात्री, वक्ता - वक्त्री, रचयिता - रचयित्री, नेता - नेत्री, अभिनेता - अभिनेत्री, विधाता - विधात्री, कवि - कवयित्री।
९. 'नई' प्रत्यय का प्रयोग कर - हाथी - हथिनी, शेर - शेरनी, चाँद - चाँदनी, सिंह - सिंहनी, मोर - मोरनी, चोर - चोरनी, हंस - हंसनी, भील - भीलनी, ऊँट - ऊँटनी।
१०. 'इनी' प्रत्यय का प्रयोग कर - मनस्वी - मनस्विनी, तपस्वी - तपस्विनी, सुहास - सुहासिनी, सुभाष - सुभाषिणी / सुभाषिनी, अभिमान अभिमानिनी, मान - मानिनी, नट - नटिनी, आदि।
११. 'ति' / 'ती' प्रत्यय का प्रयोग कर - भगवान - भगवती, श्रीमान - श्रीमती, पुत्रवान - पुत्रवती, आयुष्मान - आयुष्मति, बुद्धिमान - बुद्धिमति, चरित्रवान - चरित्रवती आदि।
१२. 'आ' प्रत्यय जोड़कर - प्रिय - प्रिय, सुत - सुता, तनुज - तनुजा, तनय - तनया, पुष्प - पुष्पा, श्याम - श्यामा, आत्मज - आत्मजा, भेड़ - भेड़ा, चंचल - चंचला, पूज्य - पूज्या, भैंस - भैंसा आदि।
१३. कोई नियम नहीं - भाई - बहिन, सम्राट - साम्राज्ञी, बेटा - बहू, पति - पत्नी, पिता - माता, पुरुष - स्त्री, बिल्ली - बिलौटा, वर - वधु, मर्द - औरत, राजा - रानी, बुआ - फूफा, बैल - गाय आदि।
१४. कोई परिवर्तन नहीं - किन्नर, हिजड़ा, श्रमिक, किसान, इंसान, व्यक्ति, विद्यार्थी, शिक्षार्थी, लाभार्थी, रसोइया आदि।
२४-२-२०२०
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मात्रा गणना नियम-
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएं गिनी जाती हैंं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, क्षमा = १२ =३आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, प्रिया १+२, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि।
हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
दोहा लिखना सीखिए;१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
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कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
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नवगीत को साम्यवादियों की विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा जनीर मानकों की कैद से छुड़ा कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
* अधरों के किस्लाई किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
सनातन शाश्वत अनुभुतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते.
अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टंगी रहीं आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
नवगीत की सरसता सहजता और ताजगी ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की क्ला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं ओ नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, लिखा है एक खत, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेर चंचल हुआ है, अनछुई उसांसें, तुम आये थे, अपने मन का हो लें, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
***
नवगीत:
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शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
***

हाइकु:
*
हर-सिंगार
शशि भभूत नाग
रूप अपार
*
रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
*
अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
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चिंतन
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१.
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार
२४-२-२०१७
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नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
***
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी आय दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
२४-२-२०१६
***
नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
२४-२-२०१५
***
नवगीत:
.
कब टूटे
साँसों की डोरी
कौन बताये?
.
वो रोये
परदेस में,
टूटी चूड़ी एक.
पास रखूँ
हो अपशकुन,
कैसे दूँ
कह फेंक?
चुप रूठे
गोरी से साजन
कौन मनाये?
.
चट्टानों को
काट दे,
बहता आँसू गर्म.
टूटे छेनी
पर नहीं,
भेद सके
मन-मर्म.
मत तजना रे!
जोरा-जोरी,
फागुन भाये.
२३-२-२०१५
*
***
नवगीत:
.
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
संयम-नियम
तुला पर साधा
परमपिता
को भी आराधा
पार कर गया
सब भव-बाधा
खोया-पाया
आधा-आधा
चाहा मन्दिर
पाया मन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
कब क्या बीता
भूलो मीता!
थोड़ा मीठा
थोड़ा तीता
राम न खुद
पर चाहें सीता
पढ़ते नहीं
पढ़ाते गीता
आया गोरख
भाग मछन्दर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
.
खुद के मानक
खुद गढ़ दह ना
तीसमारखाँ
खुद को कह ना
यह नवगीत
उसे मत कहना
झगड़े-झंझट
नाहक तह ना
मिले सुधा जब
हो मन चंदर
जब भी
झाँका
दिल के अन्दर
पाया
गहरा
एक समन्दर
२३-२४ फरवरी २०१५
*

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